राष्ट्रपति शासन के परिणाम
जब किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू हो तो राष्ट्रपति को निम्नलिखित असाधारण शक्तियां प्राप्त हो जाती हैं-
1. वह राज्य सरकार के कार्य अपने हाथ में ले लेता है और उसे राज्यपाल तथा अन्य कार्यकारी अधिकारियों की शक्ति प्राप्त हो जाती है।
2. वह घोषणा कर सकता है कि संसद, राज्य विधायिका की शक्तियों का प्रयोग करेगी।
3. वह वे सभी आवश्यक कदम उठा सकता है, जिसमें राज्य के किसी भी निकाय या प्राधिकरण से संबंधित संवैधानिक प्रावधानों को निलंबन करना शामिल है।
अतः जब राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू हो तो राष्ट्रपति, मुख्यमंत्री के नेतृत्व वाली मंत्रिपरिषद को भंग कर देता है। राज्य का राज्यपाल राष्ट्रपति के नाम पर राज्य सचिव की सहायता से अथवा राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किसी सलाहकार की सहायता से राज्य का प्रशासन चलाता है। यही कारण है कि अनुच्छेद 356 के अंतर्गत की गई घोषणा को राज्य में ‘राष्ट्रपति शासन’ कहा जाता है। इसके अतिरिक्त राष्ट्रपति, राज्य विधानसभा को विघटित अथवा निलंबित कर सकता है। संसद, राज्य के विधेयक और बजट प्रस्ताव को पारित करती है।
जब कोई राज्य विधानसभा इस प्रकार निलंबित हो अथवा विघटित हो-
1. संसद राज्य के लिए विधि बनाने की शक्ति राष्ट्रपति अथवा उनके द्वारा उल्लिखित किसी अधिकारी को दे सकते हैं।
2. संसद या किसी प्रतिनिधि मंडल के मामले में राष्ट्रपति या अन्य कोई प्राधिकारी, केंद्र अथवा इसके अधिकारियों व प्राधिकरण पर शक्तियों पर विचार करने और कर्त्तव्यों के निर्वहन के लिए विधि बना सकते हैं।
3. जब लोकसभा का सत्र नहीं चल रहा हो तो राष्ट्रपति, संसद की अनुमति के लिए लंबित पड़े राज्य की संचित निधि के प्रयोग को प्राधिकृत कर सकता है। एवं
4. जब संसद का सत्रावसान हो तो राष्ट्रपति, राज्य के लिए अध्यादेश जारी कर सकता है।
राष्ट्रपति अथवा संसद अथवा अन्य किसी विशेष प्राधिकारी द्वारा बनाया गया कानून, राष्ट्रपति शासन के पश्चात् भी प्रभाव में रहेगा। अर्थात् ऐसा कोई कानून जो इस अवधि में प्रभावी है, राष्ट्रपति शासन की घोषणा की समाप्ति पर अप्रभावी नहीं होगा। परंतु इसे राज्य विधायिका द्वारा वापस अथवा परिवर्तित अथवा पुनः लागू किया जा सकता है।
यहां यह बात ध्यान देने योग्य है कि राष्ट्रपति को संबंधित उच्च न्यायालय की शक्तियां प्राप्त नहीं होती हैं और वह उनसे संबंधित संवैधानिक प्रावधानों को निलंबित नहीं कर सकता। अन्य शब्दों में, राष्ट्रपति शासन की अवधि में संबंधित उच्च न्यायालय की स्थिति, स्तर, शक्तियां और कार्य प्रभावी रहती है।
अनुच्छेद 356 का प्रयोग
वर्ष 1950 से अब तक, 100 से अधिक बार राष्ट्रपति शासन का प्रयोग किया जा चुका है, अर्थात् औसतन प्रत्येक वर्ष में दो बार इसका प्रयोग होता है। इसके अतिरिक्त, अनेक अवसरों पर राष्ट्रपति शासन का प्रयोग मनमाने ढंग से राजनैतिक व व्यक्तिगत कारणों से किया गया है। अतः अनुच्छेद 356 संविधान का सबसे विवादास्पद एवं आलोचनात्मक प्रावधान बन गया है। सर्वप्रथम राष्ट्रपति शासन का प्रयोग 1951 में पंजाब में किया गया। अब तक लगभग सभी राज्यों में एक अथवा दो अथवा इससे अधिक बार इसका प्रयोग हो चुका है। इस संबंध में ब्यौरा इस पाठ के अंत में तालिका 16.2 में दिया गया है।
कांग्रेस पार्टी जब 1977 में आंतरिक आपातकाल के पश्चात् लोकसभा के चुनाव हुए तब सत्ताधारी चुनाव में हार गयी और जनता पार्टी सत्तारूढ़ हुई। मोरारजी देसाई के नेतृत्व वाली नई सरकार ने कांग्रेस शासित नौ राज्यों में इस आधार पर राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया कि वे राज्य विधानसभाएं जनमत खो चुकी हैं। जब 1980 में, कांग्रेस पार्टी सत्ता में आई तो उसने भी इसी आधार पर नौ राज्यों में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया।
सन् 1992 में बीजेपी शासित राज्यों (मध्य प्रदेश, हिमाचल व राजस्थान) में कांग्रेस पार्टी सरकार द्वारा इस आधार पर राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया कि ये राज्य केंद्र द्वारा धार्मिक संगठनों पर लगाए गए प्रतिबंधों का अनुपालन करने में असमर्थ हो रहे थे। बोम्मई केस (1994) में उच्चतम न्यायालय ने अपने एक दूरगामी निर्णय में, राष्ट्रपति शासन की घोषणा का इस आधार पर अनुमोदन किया कि धर्मनिरपेक्षता संविधान का ‘मूल विशेषता है। परंतु न्यायालय ने 1988 में नागालैंड, 1989 में कर्नाटक एवं 1991 में मेघालय में राष्ट्रपति शासन को वैध नहीं ठहराया।
डॉ. बी. आर. अंबेडकर ने संविधान सभा में इस प्रावधान के आलोचकों को उत्तर देते हुए आशा व्यक्त की थी कि अनुच्छेद 356 की यह उम्र शक्ति एक ‘मृत पत्र’ की भाँति ही रहेगी और इसका प्रयोग अंतिम साधन के रूप में किया जाएगा। उन्होंने कहा
“केंद्र को उसके हस्तक्षेप से प्रतिबंधित करना चाहिए, क्योंकि वह प्रांत (राज्य) की संप्रभुता पर आक्रमण माना जाएगा। यह एक सैद्धान्तिक प्रतिज्ञा है जिसमें हमें उन कारणों को मानना पड़ेगा कि हमारा संविधान एक संघीय है। ऐसा होने पर, यदि केंद्र प्रांतीय प्रशासन में कोई हस्तक्षेप करता है, तो यह संविधान द्वारा केंद्र पर लागू प्रावधानों के अंतर्गत होना चाहिए। मुख्य बात यह है कि हमें यह उम्मीद करनी चाहिए कि ऐसे अनुच्छेद कभी भी प्रयोग में नहीं लाए जाएंगे और वे एक ‘मृत-पत्र’ होंगे। यदि कभी उनका प्रयोग होता है, तो मैं उम्मीद करता हूँ कि राष्ट्रपति जिसमें ये सभी शक्तियां निहित हैं, प्रांत के प्रशासन को निलंबित करने से पूर्व उचित सावधानी बरतेगा।”
हालांकि, अनुवर्ती घटनाओं से स्पष्ट होता है जिसे संविधान का मृत -पत्र माना गया, वही राज्य सरकारों व विधानसभाओं के विरुद्ध एक घातक सिद्ध हुआ। इस संदर्भ में संविधान सभा के एक सदस्य एच. बी. कामथ ने एक दशक पूर्व कहा- “डॉ. अंबेडकर तो अब जीवित नहीं हैं परंतु ये अनुच्छेद अभी भी जीवित है।”
न्यायिक समीक्षा की संभावनाएं
1975 के 38वें संविधान संशोधन अधिनियम में यह प्रावधान कर दिया गया है कि अनुच्छेद 356 के प्रयोग में राष्ट्रपति को संतुष्ट किया जायेगा तथा इसे किसी न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती। लेकिन 1978 के 44वें संविधान संशोधन से इस प्रावधान को समाप्त कर दिया गया कि राष्ट्रपति को संतुष्टि, न्यायिक समीक्षा से परे नहीं है। बोम्मई मामले (1994) में, उच्चतम न्यायालय ने अनुच्छेद 356 के अंतर्गत राष्ट्रपति शासन लागू करने के संबंध में निम्नलिखित निर्णय दिए-
1. राष्ट्रपति शासन लागू करने की राष्ट्रपति की घोषणा न्यायिक समीक्षा योग्य है।
2. राष्ट्रपति की संतुष्टि तर्कसंगत संसाधनों पर आधारित होनी चाहिए। राष्ट्रपति के कार्य पर न्यायालय द्वारा रोक लगाई जा सकती है, यदि यह अतार्किक अथवा अन्यथा आधार पर आधारित है अथवा यह दुर्भावना या तर्क विरुद्ध पाया जाए।
3. केंद्र पर यह जिम्मेदारी होगी कि वह राष्ट्रपति शासन को न्यायोचित सिद्ध करने के लिए तर्कसम्मत कारणों को प्रस्तुत करे।
4. न्यायालय यह नहीं देख सकता कि संसाधन सही अथवा पर्याप्त है अपितु यह देखता है कि कार्य तर्क सम्मत है अथवा नहीं।
5. यदि न्यायालय राष्ट्रपति की घोषणा को असंवैधानिक और अवैधं पाया है तो उसे विघटित राज्य सरकार को पुनः स्थापित करने और निलंबित अथवा विघटित विधानसभा को पुनः बहाल करने का अधिकार है।
6. राज्य विधानसभा को केवल तभी विघटित किया जा सकता है जब राष्ट्रपति की घोषणा को संसद को अनुमति मिल जाती है। जब तक ऐसी कोई घोषणा को मंजूरी नहीं प्राप्त होती है, राष्ट्रपति विधानसभा को केवल निलंबित कर सकता है। यदि संसद इसे मंजूरी देने में असमर्थ होती है तो विधानसभा पुनर्जीवित हो जाती है।
7. धर्मनिरपेक्षता संविधान का ‘मूल विशेषता’ है। अतः यदि कोई राज्य सरकार सांप्रदायिक राजनीति करती है तो इस अनुच्छेद के अंतर्गत, उस पर कार्यवाही की जा सकती है।
8. राज्य सरकार का विधानसभा में विश्वास मत खोने का प्रश्न संसद में निश्चित किया जाना चाहिए जब तक यह न हो तब तक मंत्रिपरिषद बनी रहेगी।
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