राष्ट्रीय आपातकाल (घोषणा के आधार )
यदि भारत की अथवा इसके किसी भाग की सुरक्षा को युद्ध अथवा बाह्य आक्रमण अथवा सशस्त्र विद्रोह के कारण खतरा उत्पन्न हो गया हो तो अनुच्छेद 352 के अंतर्गत राष्ट्रपति, राष्ट्रीय आपात की घोषणा कर सकता है। राष्ट्रपति, राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा वास्तविक युद्ध अथवा बाह्य आक्रमण अथवा सशस्त्र विद्रोह से पहले भी कर सकता है। यदि वह समझे कि इनका आसन्न खतरा है। राष्ट्रपति युद्ध, बाह्य आक्रमण, सशस्त्र विद्रोह अथवा आसन्न खतरे के आधार पर वह विभिन्न उद्घोषणाएं भी जारी कर सकता है। चाहे उसने पहले से कोई उद्घोषणा की हो या न की हो या ऐसी उद्घोषणा लागू हो। यह प्रावधान 1975 में 38वें संविधान संशोधन अधिनियम के द्वारा जोड़ा गया है।
जब राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा युद्ध अथवा बाह्य आक्रमण के आधार पर जाती है, तब इसे बाह्य आपातकाल के नाम से जाना जाता है। दूसरी ओर, जब इसकी घोषणा सशस्त्र विद्रोह के आधार पर की जाती है तब इसे ‘आंतरिक आपात काल’ के नाम से जाना जाता है।
राष्ट्रीय आपात काल की उद्घोषणा संपूर्ण देश अथवा केवल इसका किसी एक भाग पर लागू हो सकती है। 1976 के 42वें संविधान संशोधन अधिनियम ने राष्ट्रपति को भारत के किसी विशेष भाग पर राष्ट्रीय आपातकाल लागू करने का अधिकार प्रदान किया है। प्रारंभ में संविधान ने राष्ट्रीय आपातकाल के तीसरे आधार के रूप में ‘आंतरिक गड़बड़ी’ का प्रयोग किया था किंतु यह शब्द बहुत ही अस्पष्ट तथा विस्तृत अनुमान वाला था। अतः 1978 के 44वें संशोधन अधिनियम द्वारा आंतरिक गड़बड़ी शब्द को ‘सशस्त्र विद्रोह’ शब्द से विस्थापित कर दिया गया। अतः अब आंतरिक गड़बड़ी के आधार पर आपातकाल की घोषणा करना संभव नहीं है, जैसा कि 1975 में इंदिरा गाँधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार ने किया था।
किंतु राष्ट्रपति, राष्ट्रीय आपातकाल की उद्घोषणा केवल मंत्रिमंडल की लिखित सिफारिश प्राप्त होने पर ही कर सकता है। इसका तात्पर्य यह है कि आपातकाल की घोषणा केवल मंत्रिमंडल की सहमति से ही हो सकती है न कि मात्र प्रधानमंत्री की सलाह से। 1975 में प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने बिना मंत्रिमंडल की सलाह के के राष्ट्रपति को आपातकाल की घोषणा करने की सलाह दी और आपातकाल लागू करने के बाद मंत्रिमंडल को इस उद्घोषणा के बारे में बताया। 1978 के 44वें संशोधन अधिनियम ने प्रधानमंत्री के इस संदर्भ में अकेले बात करने और निर्णय लेने की संभावना को समाप्त करने के लिए इस सुरक्षा का परिचय दिया है।
1975 के 38वें संशोधन अधिनियम ने राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा न्यायिक समीक्षा की परिधि से बाहर रखा था किंतु इस प्रावधान को 1978 के 44वें संशोधन अधिनियम द्वारा समाप्त कर दिया गया। इसके अतिरिक्त मिनर्वा मिल्स मामले (1980) में उच्चतम न्यायालय ने कहा था कि राष्ट्रीय आपातकाल की उद्घोषणा को अथवा इस आधार पर कि घोषणा को कि वह पूरी तरह बाह्य प्रभाव तथा असंबद्ध तथ्यों पर या विवेक शून्य या हठधर्मिता के आधार पर की गयी हो तो अदालत में चुनौती दी जा सकती है।
संसदीय अनुमोदन तथा समयावधि
संसद के दोनों सदनों द्वारा आपातकाल की उद्घोषणा जारी होने के एक माह के भीतर अनुमोदित होनी आवश्यक है। प्रारंभ में संसद द्वारा अनुमोदन के लिए दी गई समय सीमा दो माह थी किन्तु 1978 के 44वें संशोधन अधिनियम द्वारा इसे घटा दिया गया। किंतु आपातकाल की उद्घोषणा ऐसे समय होती है, जब लोकसभा का विघटन हो गया हो अथवा लोकसभा का विघटन एक माह के समय में बिना उद्घोषणा के अनुमोदन के हो गया हो; तब उद्घोषणा लोकसभा के पुनर्गठन के बाद पहली बैठक से 30 दिनों तक जारी रहेगी, जबकि इस बीच राज्यसभा द्वारा इसका अनुमोदन कर दिया गया हो।
यदि संसद के दोनों सदनों से इसका अनुमोदन हो गया हो तो आपातकाल छह माह तक जारी रहेगा तथा प्रत्येक छह माह में संसद के अनुमोदन से इसे अनंतकाल तक बढ़ाया जा सकता है। आवधिक संसदीय अनुमोदन का यह प्रावधान भी 1978 के 44वें संशोधन अधिनियम द्वारा जोड़ा गया है। इसके पहले आपातकाल एक बार संसद द्वारा अनुमोदन के पश्चात् मंत्रिमंडल की इच्छानुसार प्रभावी रह सकता था। किंतु यदि लोकसभा का विघटन, छह माह की अवधि में आपातकाल को जारी रखने के अनुमोदन के बिना हो जाता है, तब उद्घोषणा लोकसभा के पुनर्गठन के बाद पहली बैठक से 30 दिनों तक जारी रहती है, जबकि इस बीच राज्यसभा ने इसके जारी रहने का अनुमोदन कर दिया हो।
आपातकाल की उद्घोषणा अथवा इसके जारी रहने का प्रत्येक प्रस्ताव संसद के दोनों सदनों द्वारा विशेष बहुमत से पारित होना चाहिए जो कि है— (अ) उस सदन के कुल सदस्यों का बहुमत (ब) उस सदन में उपस्थित तथा मतदान करने वाले सदस्यों का एक तिहाई बहुमत । इस विशेष बहुमत का प्रावधान 1978 के 44वें संशोधन अधिनियम द्वारा किया गया। इससे पूर्व ऐसा प्रस्ताव संसद के साधारण बहुमत द्वारा पारित हो सकता था ।
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