धर्म और राजनीति में पारस्परिक क्रिया
भारतीय राजनीति के निर्धारक तत्त्वों में ‘धर्म और साम्प्रदायिकता‘ अत्यन्त प्रभावशाली तत्व माना जाता है। धर्म का प्रयोग राजनीति में जहां एक ओर तनाव उत्पन्न करने के लिए किया जाता है नवहीं दूसरी ओर प्रभाव और शक्ति अर्जित करने का भी धर्म माध्मय मान लिया जाता.. है। जामा मस्जिद के शाही इमाम अब्दुल्ला बुखारी और जय गुरुदेव की राजनीतिक शक्ति की आधारशिला उनके अपने-अपने सम्प्रदायों के अनुयायियों का संख्या बल है। धर्म के आधार पर राजनीतिक दलों का निर्माण होता है, चुनावों में समर्थन और मत प्राप्त करने लिए धर्म का सहारा लिया जाता है। जनता से की जाने वाली अपीलों, उन्हें दिए जाने वाले आश्वासनों, निर्वाचनों में प्रत्याशियों के चयन तथा मतदान व्यवहार में धर्म का राजनीतिक स्वरूप देखने को मिलता है। धर्मनिरपेक्ष संविधान अपना जाने के बाद भी धर्म और सम्प्रदाय भारतीय राजनीति के स्वरूप को निम्नलिखित ढंग से प्रभावित ढंग से प्रभावित करते रहे हैं-
(1) धर्म और राजनीतिक दल— स्वाधीनता के बाद धर्म और सम्प्रदाय के आदार पर भारत में राजनीतिक दलों का गठन हुआ है। मुस्लिम लीग, शिरोमणि अकाली दल, रामराज्य परिषद्, हिन्दू महासभा, आदि राजनीतिक दलों के निर्माण में धार्मिक और साम्प्रदायिक तत्वों की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। यदि साम्प्रदायिकता एक रोग है और वह भी संक्रामक तो इन दलों के शासन और राजनीति पर प्रभाव को सहज ही आंका जा सकता है। ये साप्रदायिक दल राजनीति में धर्म को प्रधानता देते हैं, धर्म के आधार पर चुनावों में प्रत्याशियों का चयन करते हैं और सम्प्रदाय के नाम पर वोट मांगते हैं। चुनावों में धार्मिक मुद्दों जैसे गौ-वध को बन्द करवाने, आदि को उठवाने का प्रयत्न करते हैं। प्रो. मॉरिस जोन्स ने लिखा है, “यदि साम्प्रदायिकता को संकुचित अर्थ में लिया जाए अर्थात् कोई राजनीतिक पार्टी किसी विशेष धार्मिक समुदाय के राजनीतिक दावों की रक्षा के लिए बनी हो तो कुछ पार्टियां ऐसी हैं जो स्पष्ट रूप से अपने को साम्प्रदायिक कहती हैं; जैसे मुस्लिम लीग जो भारत में सिर्फ दक्षिण भारत में रह गई है और जो मालाबार मोपला समदाय के बल पर केवल केरल में ही शक्तिशाली है, सिखों की अकाली पार्टी जो सिर्फ पंजाब में ही है, हिन्दू महासभा जिसका अब कोई प्रभाव क्षेत्र नहीं रहा।”
जनसंघ पर साम्प्रदायिक दल होए के आरोप लगाए जाते थे तथा 1991-97 के वर्षों में ‘भारतीय जनता पार्टी’ ने अपने आपको जिस प्रकार ‘मन्दिर विवाद’ के साथ जोड़ा है, उसके आधार पर इस पार्टी पर भी कुछ लोगों द्वारा साम्प्रदायिकता का आरोप लगाया जाता है। वस्तुतः कांग्रेस और साम्यवादी दल सहित अन्य राजनीतिक दल भी साम्प्रदायिकता से मुक्त नहीं हैं। केरल में ईसाई समुदाय के साथ कांग्रेस का ऐसा गठजोड़ रह है कि इसे साम्प्रदायिक कहा जा सकता है। यहां तक कि साम्यवादियों ने भी कुछ जगहों पर और कतिपय प्रयोजनों के लिए साम्प्रदायिक क्षेत्र तैयार कर लिए हैं।
(2) धर्म और निर्वाचन- भारत में अधिकांश राजनीतिक दल और उनके नेता चुनावों में धर्म और सम्प्रदाय की दलीलों के आधार पर वोट हैं। वोट बटोरने के लिए मठाधीशों, इमामों, पादरियों और साधुओं के साथ सांठ-गांठ की जाती है। मतदान के अवसरों पर मत मांगने वाले मतदान करने वालों के आचरण पर धार्मिक तत्व छाए रहते हैं। मार्च 1977 और फरवरी 1980 के लोकसभा चुनावों के दिनों में दिल्ली की जामा मस्जिद के शाही इमाम की भूमिका के आधार पर आसानी से यह समझा जा सकता है कि धार्मिक नेता राजनीतिक दलों से मुस्लिम सम्प्रदाय के वोटों का किस प्रकार सौदा करते हैं? राजनीतिक नेता की भांति शाही इमाम ने चुनाव सभाओं में भाषण दिए और मुस्लिम सम्प्रदाय के मतदाताओं को किसी विशेष राजनीतिक दल के पक्ष में मतदान करने के लिए प्रेरित किया। किसी संवाददाता ने लिखा है, “सवाल उठता है कि समाजवाद और गणतन्त्र की बात करने वाले अगर इमाम के नाम से वोट पाना चाहेंगे तो हो सकता है कि बलराज मधोक जैसे लोग शंकराचार्य के नाम पर वोट मांगने लगें। फिर क्या इस देश को इमाम और शंकराचार्य के बीच चुनाव करना पड़ेगा।” 1989 के लोकसभा चुनावों में धार्मिक नेताओं और धार्मिक प्रश्नों की भूमिका रही और मई 91 आयोजित दसवीं लोकसभा के चुनाव में साम्प्रदायिक प्रश्न छाए हुए रहे। ग्यारहवीं लोकसभा के चुनावों में साम्प्रदायिक प्रश्नों का कुछ प्रभाव रहा है, लेकिन यह प्रभाव दसवीं लोकसभा चुनावों की में निश्चित रूप से कम था। बारहवीं लोकसभा के चुनाव तथा तेरहवीं लोकसभा के तुलना चुनाव साम्प्रदायिक प्रश्नों से लगभग मुक्त रहे।
(3) राजनीति में धार्मिक दबाव गुट- धार्मिक संगठन भारतीय राजनीति में। सशक्त दबाव समूहों की भूमिका अदा करने लगे हैं। ये धार्मिक गुट शासन की नीतियों को प्रभावित करते हैं और कभी-कभी अपने पक्ष में अनुकूल निर्णय भी करवाते हैं। उदाहरणार्थ, हिन्दुओं की आपत्ति और आलोचना के बावजूद ‘हिन्दू कोड बिल पास कर दिया गया, किन्तु दूसरे सम्प्रदायों के सम्बन्ध में ऐसा कोई साहसपूर्ण कदम नहीं उठाया जा सका। स्वतन्त्रता के बाद अनेक मुस्लिम संगठनों जैसे जमीयत-उल-उलेमा-ए-हिन्द, जमायते शरिया जमायते इस्लामी, आदि ने कम से कम तीन बातों के लिए सरकारी नीतियों को प्रभावित कर ‘दबाव गुटों’ की भूमिका अदा की है। ये तीन बातें हैं— उर्दू को संवैधानिक संरक्षण दिया जाए, अलीगढ़ विश्वविद्यालय का अल्पसंख्यक स्वरूप बनाए रखा जाए और मुस्लिम पर्सनल लॉ के बारे में कोई तब्दीली न की जाए। 1986 में मुस्लिम वर्ग के साम्प्रदायिक दबाव ने ‘मुस्लिम महिला संरक्षण कानून’ पारित करवाया, जिससे शाहबानो विवाद’ में सर्वोच्च न्यायालय का प्रगतिशील निर्णय शून्य हो गया।
(4) धर्म के आधार पर पृथक् राज्यों की मांग- कई बार परोक्ष रूप से धर्म के आधार पर पृथक् राज्यों की मांग भी की जाती रही है। अकाली दल द्वरा पंजाबी सूबे की माग ऊपरी तौर से भा, ई आधार की मांग नजर आती थी, किन्तु यथार्थ में यह धर्म के आधार पर ही पृथक् राज्य की मांग थी। 2 नवम्बर, 1949 को मास्टरक तारासिंह ने पूर्वी पंजाब में ‘सिख प्रान्त’ की मांग करते हुए कहा कि पूर्वी पंजाब के हिन्दू ‘संकीर्ण हृदय वले सम्प्रदायवदी’ हो गए हैं और ‘सिखों को उनसे उचित व्यवहार की आशा नहीं रह गई है।’ सन्त फतेहसिंह के अनुयायी ‘होमलैण्ड’ की मांग करने लगे। उनका कहना था कि ‘उत्तर भारत में एक समाजवादी लोकतन्त्रीय सिख होमलैण्ड’ की स्थापना ही सिख राजनीति का वास्तविक एवं एकमात्र लक्ष्य है। पुराने पंजाब राज्य का विभाजन वस्तुतः धर्म के आधार पर ही हुआ था और 1981-91 के वर्षों में तो अकाली दर के एक वर्ग तथा अन्य उग्रवादी संगठनों ने भारत से अलग खालसा राज ‘खालिस्तान’ के नारे को अपना लिया, लेकिन खालिस्तान के नारे को कभी भी व्यापक समर्थन प्राप्त नहीं हुआ तथा अब इसे पूर्णतया अस्वीकार कर दिया गया है।
(5) मन्त्रिमण्डल के निर्माण में धार्मिक आधार पर प्रतिनिधित्व– केन्द्र और राज्यों में मन्त्रिमण्डल बनाते समय सदैव इस बात को ध्यान में रखा जाता है कि प्रमुख सम्प्रदायों और धार्मिक विश्वासों वाले व्यक्तियों को उसमें प्रतिनिधित्व मिल जाए। केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल में अल्पसंख्यकों; जैसे मुसलमानों, सिखों, ईसाइयों को सदैव प्रतिनिधित्व दिया जाता है।
(6) धर्म और राष्ट्रीय एकता- धर्म और साम्प्रदायिकता राष्ट्रीय एकता के लिए घातक माने जाते हैं। धार्मिक मतभेदों के परिणामस्वरूप ही हमारे देश का विभाजन हुआ और उसी के कारण आज भी विघटनकारी तत्व सक्रिय हैं।
(7) राज्यों की राजनीति में धर्म की प्रभावक भूमिका– धर्म और धार्मिक समुदायों का भारतीय राजनीति में कितना प्रभाव है, केरल और पंजाब राज्यों की राजनीति इसके लिए सन्दर्भ प्रस्तुत करती है।
केरल की राजनीति का ऊपरी आवरण चाहे वामपन्थी रंग से रंगा हुआ नजर आए, किन्तु उसका अन्तरंग धार्मिक और साम्प्रदायिक गुटों के गठजोड़ से बनता है। राज्य राजनीति में से दो प्रकार के दबाव समूह पाए जाते हैं साम्प्रदायिक और व्यावसायिक साम्प्रदायिक दबाव समूहों में नय्यर सर्विस सोसाइटी, श्री नारायण धर्म परिपालन युगम और अनेक ईसाई संगठन प्रमुख हैं। जमींदार, धनिक वर्ग, व्यापारी, आदि इन्हीं संगठनों से जुड़े हुए हैं। अतः ये साम्प्रदायिक व धार्मिक गुट शासन की निर्णय प्रक्रिया को प्रभावित करते हैं। प्रगतिशील समझे जाने वाले साम्यवादी दल भी केरल में धार्मिक दबाव गुटों से अपना तालमेल बिठाकर चुनावी राजनीति का खेल खेलते हैं।
धर्म और राजनीति की अन्तः को समझने के लिए पंजाब राज्य की राजनीति विशिष्ट महत्त्व रखती है। पंजाब की राजनीति अकाली दलों की आन्तरिक राजनीति तथा सशक्त और समृद्ध शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबन्धक समिति के निर्वाचनों के इर्द-गिर्द घूमती रही है। अधिक दूर न जाकर पिछले दो-तीन वर्षों की राजनीतिक घटनाओं का विश्लेषण करें तो धर्म की राजनीतिक भूमिका का अनुमान लगाया जा सकता है।
रजनी कोठारी लिखते हैं, “शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबन्धक समिति के चुनाव प्रत्यक्ष और के परोक्ष रूप से अकाली दल की राजनीति को प्रभावित करते हैं और अकाली दल पंजाब की राजनीति को।” स्वर्ण मंदिर के सामने स्थित अकाल तख्त की स्थापना रूप गोविन्दसिंह ने एक राजनीतिक शक्ति के रूप में की थी। पंजाब की राजनीति में अकाल तख्त का स्वरूप एवं भूमिका एक समानान्तर सरकार की भांति है जिस पर समकालीन सरकार के आदेश लागू नहीं होते। अनेक बार धार्मिक विवादों के साथ-साथ राजनीतिक विवादों के बारे में भी फैसले अकाल तख्त करता है। समय-समय पर और विभिन्न क्षेत्रों में मन्दिर और मस्जिद भी राजनीतिक भूमिका के केन्द्र बन जाते हैं।
अभी 1998-2006 ई. के वर्षों में साम्प्रदायिकता की समस्या एक नये रूप में सामने आई है। समस्या का नया रूप है: हिन्दू धार्मिक समुदाय और ईसाई धार्मिक समुदाय के बीच धर्मान्तरण और पुनधर्मान्तरण को लेकर विवाद। यह विवाद विशेष रूप से गुजरात, उड़ीसा और मध्य प्रदेश आदि राज्यों अर्थात् जनजाति बहुल राज्यों और क्षेत्रों में देखा गया है। इस विवाद और समस्या का हल प्रारंभिक स्तर पर ही हो जाये, तभी सम्बद्ध पक्षों द्वारा इस दिशा में प्रयत्न किये जाने चाहिए। इस सत्य को हृदयंगम करने की आवश्यकता है कि उदारता, सहिष्णुता और मानवीयता धर्म, धार्मिक जीवन और धार्मिक आस्था के अनिवार्य अंग हैं।
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