भारत में सिख धर्म
1991 की जनगणना के अनुसार भारत में सिख धर्म के अनुयायियों की संख्या देश की कुल जनसंख्या का 1.99 प्रतिशत है। यहां सिख धर्म के उदय के पीछे एक लम्बा इतिहास रहा है। जिस समय इस धर्म का उदय हुआ, उस समय देश नाना प्रकार की सामाजिक विषमताओं, रूढ़ियों, पाखण्डों व कुरीतियों में लिप्त था। निम्न जातियों सामूहिक रूप से अलग रखा जाने लगा ताकि उच्च वर्ग के लोगों की इन पर दृष्टि भी नहीं पड़े। इस समय ब्राह्मणों का प्रभाव भी कम नहीं था। वैदिक धर्म तो प्रायः ब्राह्मण धर्म बनकर रह गया। ब्राह्मणों ने धार्मिक क्षेत्रों के अतिरिक्त राजनीतिक क्षेत्र में भी अपना अधिकार जमाना प्रारम्भ कर दिया। धीरे-धीरे इस स्थिति का अनुचित लाभ उठाते हुए ब्राह्मणों ने तरह-तरह के यज्ञ, आडम्बरपूर्ण खर्चों व कर्मकाण्डों को प्रोत्साहित किया। इन सबका एक स्वाभाविक परिणाम यह भी हुआ कि समाज में जादू-टोना, झाड़-फूंक, मन्त्र जन्त्र, आदि क्रियाओं का बोलबाला हो गया।
इन समपूर्ण परिस्थितियों का यह परिणाम हुआ कि अत्याचार बर्दाश्त करते-करते निम्न वर्ग थक-सा गया और साज के उच्च वर्ग ने भी वर्षों से चली आ रही इस आडम्बरपूर्ण व्यवस्था का डटकर विरोध करना प्रारम्भ कर दिया। ऐसी स्थिति में कई समाज सुधार आन्दोलनों ने जन्म लिया उसमें से एक आन्दोलन सिख आन्दोलन भी था जिसके संस्थापक गुरु नानक देव (1469-1538 ई.) थे। आपने यह कहा था, “क्या हिन्दू और क्या मुसलमान सभी उस एक ही परम-पिता परमात्मा की सन्तान हैं। जो भी भेदभाव खड़े कर दिये गये हैं वे मनुष्यों के अपने स्वार्थों की उपज है। वास्तव में न कोई हिन्दू है, न मुसलमान सब एक हैं, अभिन्न हैं।” यह कथन हमें बताता है कि भारतयी इतिहास की, उस नाजुक घड़ी में गुरु नानक ने कैसी योग्यता, बुद्धिमत्ता तथा सत्यनिष्ठा के साथ मनुष्य मात्र की एकता और समानता का सन्देश देश के कोने कोने में फैलाया।
यदि हम सिख धर्म का गहन अध्ययन व मनन करें तो पायेंगे कि यह प्रारम्भ से शुद्ध व व्यावहारिक धर्म है। इस धर्म में सबसे अधिक जोर प्रायः चरित्र पर दिया गया है ताकि एक व्यक्ति अपने कर्तव्यों का पालन समाज में सही ढंग से कर सके। सिख धर्म के अनुसार एक आदर्श व महान व्यक्ति वही है जिसमें ब्राह्मणों के समान आध्यात्मिकता, क्षत्रियों के समान आत्मरक्षा की भावना, वैश्यों के समान व्यवहार कुशलता तथा शूद्रों के समान लक सेवा एक साथ विद्यमान हो। इसलिए तो सिखों के गुरुओं ने अपने-अपने जीवन में सभी तरह के कार्य सम्पन्न किये।
सिख धर्म से सम्बन्धित जो गुरु हुए हैं उनकी सबसे बड़ी विशेषता यह रही है कि गुरु नानक की गद्दी पर बैठने वाले किसी भी गुरु ने स्वयं को नानक भिन्न नहीं माना, वे सदा स्वयं को नानक ही समझते रहे, यहां तक कि उनके द्वारा रचित रचनाओं में भी वे • खुद को नानक ही बतलाते। इसी कारण तो नव-गुरु अपने आदि-गुरु के प्रतिरूप ही समझे जाते हैं।
सिख धर्म की प्रमुख विशेषताएं (Characteristics of Sikhism)
सिख धर्म के वास्तविक आदर्शों को आसानी से समझने के लिए यह आवश्यक है कि हम इस धर्म की प्रमुख विशेषताओं के बारे में जानकारी प्राप्त करें।
(1) सिख आन्दोलन कर्मकाण्डों का विरोधी- सिख धर्म के प्रवर्तक गुरु नामक ने हिन्दुओं में व्याप्त कर्मकाण्डों का डटकर विरोध किया और रूढ़ियों तथा अन्धविश्वासों पर घातक चोट की। नानक देव और अन्य सिख गुरुओं ने ‘ब्रह्म’ अथवा मोक्ष प्राप्ति के लिए कर्तव्य को सर्वोच्च प्राथमिकता दी। अपनी उदासी के दौरान जब नानक देव गया गये, तब वहां पण्डितों को पिण्डदान व दीपदान करते देख तीखी प्रतिक्रियाएं व्यक्त कीं।
(2) एक ही ईश्वर में आस्था- सिख धर्म के प्रवर्तकों के अनुसार सम्पूर्ण संसार का एक ही ईश्वर है और वही सर्वत्र व्याप्त है। प्रायः सिख धर्म का विश्वास मूर्ति पूजा में नहीं है। यह धर्म ईश्वर को सर्वव्यापक व शर्वशक्तिमान मानता है।
(3) समानता की नीति पर जोर- इस धर्म का दृढ़ विश्वास है कि कोई भी व्यक्ति जन्म के कारण ऊंचा अथवा नीचा नहीं है। परमात्मा ने सभी को समान बनाया है, यदि कोई व्यक्ति समाज में छोटा या बड़ा है तो वह अपने कार्यों से है। गुरु नानक मानव मात्र से प्रेम करते थे चाहे उसका वर्ण कुछ भी क्यों न हो।
(4) वैयक्तिक अहंकार व कर्मों के प्रदर्शन को महत्त्व नहीं— सिक्ख धर्म में वैयक्तिक अहंकार व कमों के प्रदर्शन पर बल नहीं देकर ईश्वर प्राप्ति के लिए अन्य साधनाओं पर अधिक जोर दिया गया है। गुरु नानक देव ने कहा है, “जब तक मन को मानकर उसे ठीक न कर लिया जाय, तब तक कोई कार्य सिद्ध नहीं हो सकता। इसको अपने वश में कर लेना तभी सम्भव है, जब इसे निर्गुण राम के गुणों की की उलझन में डाल दिया जाय।”
(5) आदर्श व व्यवहार के सामंजस्य पर अधिक जोर- सिख धर्म में सिख गुरुओं ने व्यक्ति के आदर्शोंों व व्यवहारों के मध्य सामंजस्य स्थापित करने पर अधिक बल दिया है और उसे आवश्यक भी समझा गया है। इसीलिए तो नानक से लेकर गुरु गोविन्द सिंह के समय तक सिख गुरुओं ने जिन सिद्धान्तों व उपदेशों की रचना की, उन्हें व्यवहार रूप में बदलने का भी पूरा प्रयत्न कया।
(6) व्यावहारिकता का अर्थ- आज जितना अधिक प्रगतिशील व व्यावहारिक धर्म सिख धर्म है, उतना अन्य कोई धर्म नहीं है। इस धर्म को गुरु अर्जुन देव के अन्तिम समय से लेकर गुरु गोविन्दसिंह के समय तक मुसलमानों के कटुतापूर्ण व्यवहार का सामना करना पड़ा। मुसलमान शासक अपने सैनिकों, आदि की सहायता से, उनके खाने-पीने की चीजों को छूकर अपवित्र कर देते और उनको धर्म से विचलित करने का भी प्रयत्न करते थे। इस स्थिति का सामना करने के लिए गुरु गोविन्दसिंह ने अपने नेतृत्व में खालसा सम्प्रदाय का गठन किया और प्रत्येक सिख अनुयायी के लिए पांच चीजें11 केश, कंघा, कृपाण, कच्छा व कड़ा अनिवार्य कर दिया।
(7) गुरु के प्रति गहन निष्ठा- सिख धर्म में सत्यालोक या ईश्वर प्राप्ति के लिए सच्चे गुरु के प्रति गहरी आस्था प्रकट की गयी है। नानक का कथन है, “गुरू के मिलने पर ही अपने सांसारिक जीवन के अन्त तथा आध्यात्मिक जीवन के प्रारम्भ का हमें अनुभव होता है, गर्व दूर हो जाता है, गगनपुर अर्थात् मुक्तावस्था की प्राप्ति होती है और हरि की शरण में स्थान मिलता है।”
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