राजनीति विज्ञान / Political Science

शीत युद्ध में अमेरिका और सोवियत संघ की भूमिका की विवेचना कीजिए।

शीत युद्ध में अमेरिका और सोवियत संघ की भूमिका
शीत युद्ध में अमेरिका और सोवियत संघ की भूमिका

शीत युद्ध में अमेरिका और सोवियत संघ की भूमिका 

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद शक्तिशाली यूरोपीय राष्ट्रों की कमजोर स्थिति और अन्य कारणों ने दो नये राष्ट्रों अमेरिका और सोवियत संघ को दो महाशक्तियों के रूप में उभरने का मौका दिया। बदली हुई परिस्थितियों एवं शक्ति समीकरणों में अमेरिका एक शक्तिशाली राष्ट्र बन गया और इसके अनुरूप उसने अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में एक नवीन भूमिका निभानी प्रारम्भ की। अमेरिका ने न केवल यूरोप का नेतृत्व अपने हाथों में लिया बल्कि पूरे विश्व की महत्त्वपूर्ण राजनीतिक एवं आर्थिक घटनाओं में सक्रिय भूमिका निभाने लगा। इस प्रकार सोवियत रूस भी अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में विश्व शक्ति के रूप में उभर कर सामने आया महायुद्ध में अपार क्षति उठाने के बावजूद रूस ने स्वयं को महाशक्ति के रूप में स्थापित किया। इसने जर्मनी के पराजय मुख्य भूमिका निभायी तथा पूर्वी यूरोप साम्यवादी व्यवस्था स्थापित करने से अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में इसकी शक्ति को और बढ़ा दिया। सोवियत रूस विश्व साम्यवादी प्रगति का जनक और प्रेरक बनकर साम्यवादी जगत के केन्द्रीय चर्च (Central Church) की भूमिका निभाने लगा तथा अमेरिका का प्रमुख प्रतिद्वन्द्वी बनकर उभरा।

अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के बदले हुए शक्ति-समीकरणों में अमरीका और सोवियत रूस ने नवीन भूमिका निभाना प्रारम्भ किया।

संयुक्त राज्य अमरीका की महाशक्ति के रूप में भूमिका

द्वितीय विश्व युद्ध के पूर्व अमरीका एक सम्पन्न राष्ट्र तो था, परन्तु उसे महाशाक्ति का दर्जा प्राप्त नहीं था और उसकी विदेश नीति की प्रमुख विशेषता पृथकतावादी नीति (Policy of Isolation) थी। इस नीति का सूत्रपात राष्ट्रपति जैफरसन ने 1801 में किया था जिसके अनुसार अमरीका अन्तर्राष्ट्रीय एवं विशेषकर यूरोपीय झगड़ों से अलग रहेगा। प्रथम विश्व युद्ध तक अमरीका विश्व राजनीति से पृथक रहा। परन्तु बाद में मित्र राष्ट्रों के पक्ष में प्रथम विश्व युद्ध में हिस्सा लिया। युद्ध समाप्ति के बाद पुनः आंशिक पृथकतावादी नीति अपनायी और राष्ट्र संघ का सदस्य नहीं बना। 1937 में राष्ट्रपति रूजवेल्ट ने संकेत दिया कि अब अमरीका अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में सक्रिय भूमिका निभायेगा। जब दिसम्बर 1941 को जापान ने अमरीका पर आक्रमण किया तो अमरीका द्वितीय महायुद्ध में कूद पड़ा। महायुद्ध में अमरीका ने अपनी महान सैनिक शक्ति का प्रदर्शन किया जिसमें न केवल उसकी विजय हुई बल्कि वह महाशक्ति बन गया।

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद एक महाशक्ति के रूप में अमरीका ने एकदम नयी भूमिका ग्रहण की। वह अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में खुलकर भाग लेने लगा। साम्यवादी प्रभाव के कारण विश्व में दो प्रमुख गुटों का निर्माण हुआ जिसमें पूँजीवादी गैर-साम्यवादी गुट का नेतृत्व संयुक्त राज्य अमरीका के हाथ में आया। इस समय तक यूरोप की साम्राज्यवादी शक्तियों का विघटन प्रारम्भ हो गया और एशिया, अफ्रीका एवं लैटिन अमरीका के देश स्वतंत्र हो रहे थे। अतः अमरीका के लिए अपने प्रभाव क्षेत्र के विस्तार का यह सुनहरा अवसर था। साथ ही युद्ध की तकनीकी में भी परिवर्तन आ गया था, हवाई शक्ति तथा परमाणु शक्ति के विकास से विश्व राजनीति का स्वरूप परिवर्तित हो गया था। इस परिस्थिति में किसी भी देश की सुरक्षा भी संकट में पड़ सकती थी।

अतः स्वयं की रक्षा के लिए तथा अन्य गैर-साम्यवादी प्रजातांत्रिक देशों की लिये विश्व राजनीति में अमरीका का सक्रिय रूप में भाग लेना आवश्यक हो गया। सुरक्षा के अतः संयुक्त राज्य अमरीका ने अपने विशाल एवं अतिरिक्त आर्थिक संसाधनों द्वारा विदेशी सहायता प्रदान कर अपना प्रभाव एशिया के देशों एवं अन्य देशों पर जमाना प्रारम्भ

किया। इसके अन्तर्गत सैनिक एवं व्यापारिक सन्धियों तथा विदेशों में सैनिक अड्डों की स्थापना

आदि प्रमुख साधन अपनाये गये। यूरोपीय राजनीति में अमरीका पर्याप्त रुचि लेता रहा। द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात् यूरोप पर सम्भावित सोवियत आक्रमण के विस्तार से रक्षा के लिए उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन (North Atlantic Treaty Organisation-NATO) की स्थापना की गयी जिसमें संयुक्त राज्य अमरीका और कनाडा के साथ यूरोप के तेरह देश सम्मिलित हुये। इसी के साथ अमरीका ने अटलांटिक क्षेत्र में सैनिक अड्डों का निर्माण मोरक्को, ग्रीन लैण्ड और कैरेबियन द्वीपों पर किया। इसके अतिरिक्त अन्य देशों में जैसे- जापान, फिलीपाइन्स, पाकिस्तान, कोरिया, स्पेन आदि में सैनिक अड्डों की स्थापना की गयी। दक्षिणी पूर्वी एशिया के साथ संयुक्त राज्य अमरीका ने ‘दक्षिणी पूर्वी एशिया संघ’ (South East Asia Treaty Organisation-SEATO) सन्धि की गयी। दक्षिणी अमरीकी देशों के साथ रिओ (Rio Treaty) की गयी। पश्चिमी एशिया के देशों के साथ ‘सेण्टो’ (CENTO) सन्धि की गयी। इसके साथ अनेकानेक देशों के साथ आर्थिक, व्यापारिक और सैनिक समझौते किये गये।

संयुक्त राष्ट्र संघ में अमरीका ने सक्रिय भूमिका निभाना प्रारम्भ किया। वह सुरक्षा परिषद् में रूस विरोधी सदस्यों का नेता बन गया। कोरिया युद्ध में अमरीका ने सक्रिय भाग लिया। अमरीका की प्रबल सैनिक शक्ति के कारण ही संयुक्त राष्ट्र संघ कोरिया युद्ध में सेना भेज सका। उसके अलावा अमरीका ने संयुक्त राष्ट्र संघ की गैर-राजनीतिक एवं कल्याणकारी एजेन्सियों को व्यापक रूप से आर्थिक सहायता भी दी।

राष्ट्रपति ट्रूमैन ने अमरीकी विदेश नीति के नये उत्तरदायित्वों और नयी भूमिका की घोषणा करते हुए कहा कि जहाँ कहीं भी शान्ति को भंग करने वाला प्रत्यक्ष या परोक्ष आक्रमण कार्य होगा, वह अमरीका के लिए संकट माना जायेगा। इससे अमरीका ने अपनी भूमिका का प्रसार सम्पूर्ण विश्व में कर दिया। इसी प्रकार यूरोप का पुनः निर्माण करने के लिए मार्शल प्लान के तहत यूरोप को व्यापक आर्थिक सहायता दी।

इस नीति के परिणामस्वरूप, अमरीका की विदेश नीति का कार्यक्षेत्र विश्वव्यापी हो गया। एक महाशक्ति के रूप में अमरीकी भूमिका के मुख्य आयाम इस प्रकार हैं के (1) आर्थिक सहायता की कूटनीति या डॉलर राजनय (2) सैनिक गठबन्धन की कूटनीति, (3) अमरीका का जासूसी राजनय, (4) अन्तर्राष्ट्रीय मामलों में मध्यस्थता आदि।

सोवियत संघ की महाशक्ति के रूप में नयी भूमिका

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद सोवियत संघ ने एक ओर साम्यवादी क्रांति के प्रसार हेतु उग्र नीति अपनायी तथा दूसरी ओर पश्चिमी प्रभावों से स्वयं एवं पूर्वी यूरोप के साम्यवादी देशों को बचाने के लिये ‘लौह आवरण’ (Iron Curtain) की नीति का आश्रय लिया। इस नीति का कठोरता से पालन किया गया। यहाँ तक कि विदेशी और विशेषकर पश्चिमी पूँजीवादी देशों के लोगों और विचारों का प्रवेश सोवियत संघ में वर्जित था।

युद्धोत्तर काल में साम्यवादी रूस का प्रमुख नारा था, “हम ऐसे युग में रह रहे हैं। जिसकी सभी सड़कें साम्यवाद की ओर जाती हैं।” अतः अपनी नवीन भूमिका में सोवियत संघ ने सर्वप्रथम पूर्वी यूरोप के देशों में अपना प्रभाव जमाना प्रारम्भ किया। फलस्वरूप चेकोस्लोवाकिया, हंगरी, अल्बानिया, बल्गारिया, यूगोस्लाविया, पोलैण्ड और पूर्वी जर्मनी में साम्यवादी विचारधारा की सरकारों की स्थापना की। यह उस विचारधारा का प्रभाव क्षेत्र बनाया।

इन देशों को सोवियत संघ ने आर्थिक, सैनिक और तकनीकी सहायता प्रदान की जिसका उद्देश्य इन देशों की आर्थिक व्यवस्था में स्थायित्व लाना था। आर्थिक सहयोग को और भी घनिष्ठ बनाने के लिए ‘आर्थिक व्यवस्था में पारस्परिक सहायता के लिए कौंसिल’ (Council for Economic Mutual Asstance) तथा ‘यूरोपियन पुनर्निर्माण कार्यक्रम’ (European Re covery Programme) बनाया। आर्थिक सहायता पूर्वी यूरोप के देशों के अतिरिक्त क्यूबा, उत्तरी कोरिया आदि देशों को दी गयी जिसमें साम्यवादी प्रभाव था और जो पूँजीवादी या पश्चिमी गुट दबावों से पीड़ित थे।

सोवियत संघ ने सहायता कार्यक्रम के अन्तर्गत हंगरी, बल्गारिया, चेकोस्लोवाकिया, पूर्वी जर्मनी, पोलैण्ड आदि देशों के साथ अनेक समझौते आर्थिक एवं तकनीकी क्षेत्र में किये जो साम्यवादी प्रभुत्व को स्थायी करने के लिए थे। इस प्रकार राजनीतिक दृष्टि से सोवियत संघ, उत्तरी वियतनाम, उत्तरी कोरिया, क्यूबा की साम्यवादी पार्टी एवं मंगोलिया की साम्यवादी सरकारों का समर्थन किया। 1955 में साम्यवादी गुटों के देशों के साथ सुरक्षा संधि करके वारसा पैक्ट का निर्माण किया और ‘नाटो’ को ईंट का जवाब पत्थर से दिया।

संयुक्त राष्ट्र संघ के मंच पर सोवियत संघ ने अपने को निरन्तर अल्पमत में पाया। यद्यपि साम्यवादी चीन का प्रादुर्भाव होने से रूस को विश्व में एक प्रबल साम्यवादी मित्र मिल गया था, परन्तु पश्चिमी देशों के विरोध के कारण उसे 1970 के दशक तक संयुक्त राष्ट्र संघ में प्रवेश नहीं मिल ऐसी स्थिति में अपनी इच्छा के प्रतिकूल होने वाले निर्णयों को रोकने के लिए सोवियत संघ के सका। पास सुरक्षा परिषद् में ‘वीटो’ (Veto) के प्रयोग करने के अलावा दूसरा उपाय न था। रूस ने व्यापक रूप से अपने ‘निषेधाधिकार’ का प्रयोग किया ताकि संयुक्त राष्ट्र संघ पश्चिमी राष्ट्रों और विशेषकर अमरीका के अनुकूल कोई निर्णय न ले। सोवियत संघ ने सुरक्षा परिषद् में ‘वीटों’ का प्रयोग करके पश्चिम के अनेक अन्यायपूर्ण प्रस्तावों को धराशायी कर दिया।

उक्त विवेचना से स्पष्ट है कि सोवियत संघ अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में महत्त्वपूर्ण स्थान रखता था। यही नहीं, अपितु विश्व में शक्ति संतुलन बनाये रखने में इसकी सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका रही।

अतः द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात् सोवियत संघ एवं संयुक्त राज्य अमरीका दोनों ने विश्व राजनीति में अपनी नयी भूमिका ग्रहण की। इनकी नवीन भूमिकायें महाशक्ति की प्रकृति के अनुकूल थीं। इनमें से किसी एक महाशक्ति की भूमिका का विश्लेषण, दूसरी महाशक्ति की भूमिका की विवेचना के बिना अधूरी है। दोनों की भूमिकाओं के विभिन्न आयाम एक-दूसरे की प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष क्रियाओं एवं प्रतिक्रियाओं का परिणाम थे, जिसमें सम्पूर्ण अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति को प्रभावित किया ।

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