राजनीति विज्ञान / Political Science

शीत युद्ध के विकास के प्रमुख कारणों की विवेचना करो।

शीत युद्ध के विकास के प्रमुख कारण
शीत युद्ध के विकास के प्रमुख कारण

शीत युद्ध के विकास के प्रमुख कारण

शीत युद्ध का विकास निम्नलिखित तीन चरणों में हुआ है-

प्रथम चरण (1945-1953)

 युद्ध की समाप्ति के उपरान्त कुछ और घटनायें हुईं जिन्होंने शीत युद्ध को और अधिक तीव्रता प्रदान की। मुख्य घटनायें इस प्रकार हैं-

(i) युद्ध के अन्त में सोवियत रूस का समस्त पूर्वी यूरोप के देशों पर एकछत्र आधिपत्य था जिसको ग्रेट ब्रिटेन भय और आशंका की दृष्टि से देख रहा था। ग्रेट ब्रिटेन का प्रधानमंत्री चर्चिल कहता था कि, “ग्रेट ब्रिटेन और अमेरिकन सेनायें जर्मनी के अत्यधिक भाग पर अधिकार कर लें ताकि सोवियत रूस के अधिकार में से जर्मनी के प्रदेश निकल जायें।” किन्तु अमेरिकन सेनायें अमेरिका जाने के लिये लालायित थीं। वे युद्ध से ऊब चुकी थीं। अतः उसको अपनी नीति में सफलता प्राप्त नहीं हुई और सोवियत सेनाओं का बहुत अधिक भाग पर अधिकार हो गया। पश्चिमी राष्ट्रों में भय की भावना उत्पन्न हुई और वे सोवियत रूस के विरुद्ध एक दृढ़ संगठन की स्थाना की बात पर गहन विचार करने लगे।

(ii) दोनों पक्षों के बीच में खाईं को गहरी बनाने में इटली के साथ सन्धि करने के सम्बन्ध वाली घटना थी । इटली के साथ सन्धि के सिद्धान्तों का निर्णय करने के लिए लन्दन में विदेशी मंत्रियों का एक सम्मेलन आमन्त्रित किया गया। इस सम्मेलन में सोवियत रूप की स्थापना होनी चाहिए तथा उसने यूगोस्लाविया के एड्रियाटिक सागर पर प्रादेशिक विचारधारा का समर्थन किया। उसकी इन माँगों ने पश्चिमी राष्ट्रों को स्तब्ध कर दिया, क्योंकि इन माँगों के स्वीकार करने से सोवियत रूस के प्रभाव क्षेत्र का विस्तार पर्याप्त मात्रा में स्थापित हो जाता। इस प्रकार इन सम्मेलनों द्वारा समझौते के स्थान पर नई समस्याओं का उदय होना आरम्भ हो गया। अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं का समाधान करने के उद्देश्य से विदेश मंत्रियों के कई सम्मेलन हुए, किन्तु वे इन समस्याओं का समाधान नहीं कर पाये, स्थिति और भी भयंकर होती चली गई।

(iii) इस प्रसंग में तीसरी उल्लेखनीय घटना यह है कि सोवियत रूस ने युद्ध समाप्त होने पर भी ईरान की सीमाओं से अपनी सेना नहीं हटाई और वह इस प्रदेश को वहाँ के तेल के कारण अपने प्रभाव क्षेत्र में लाना चाहता था जबकि उस प्रदेश पर ग्रेट ब्रिटेन और अमेरिका भी अपना प्रभाव स्थापित करना चाहते थे। सोवियत रूस की ओर से सीमावर्ती प्रदेशों में विद्रोहियों को सहायता प्रदान की गई। इसके कारण भी दोनों पक्षों के बीच पर्याप्त मनमुटाव उत्पन्न हो गया।

(iv) सोवियत रूस ने यूनान में विद्रोहियों की और सहायता की, वह चाहता था कि वहाँ पर साम्यवादी सरकार की स्थापना की जाये। इसके साथ-साथ उसने टर्की पर भी दबाव डालना आरम्भ किया, जिससे बास्फोरस तथा दरें दानियाल जलडमरू मंध्य पर उसका प्रभुत्व स्थापित हो जाये। उसके इस कार्य से ग्रेट ब्रिटेन और अमेरिका दोनों बड़े चिन्तित हुए क्योंकि यदि ईरान, यूनान व टर्की में सोवियत संघ की नीति को सफलता मिल जाती तो साम्यवाद का प्रचार तथा प्रसार बहुत अधिक हो जाता और ये समस्त प्रदेश उसके अधिकार क्षेत्र में आ जाते, जिसके कारण उसकी शक्ति का बहुत विस्तार हो जाता।

इस विस्तार को रोकने के अभिप्राय से संयुक्त राज्य अमेरिका ने स्वतंत्र देशों को आर्थिक तथा सैनिक सहायता देने की नीति को अपनाया और उसने टूमैन सिद्धान्त (Truman Doctrine) और मार्शल योजना (Marshall Plan) का प्रतिपादन किया और इन देशों को सहायता प्रदान की। ग्रेट ब्रिटेन के प्रधानमंत्री चर्चिल ने अपने प्रसिद्ध फुल्टन भाषण में सोवियत संघ की नीति की खुले शब्दों में आलोचना की और बाद में संयुक्त राज्य अमेरिका ने उसको पुष्ट कर दिया जिसके कारण संयुक्त राष्ट्र संघ में तथा अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में दोनों पक्षों के बीच वाक-संघर्ष आरम्भ हो गया। मार्शल योजना (Marshall Plan) के जवाब में सोवियत संघ ने 9 साम्यवाद देशों का संगठन निर्मित किया जो कॉमिनफार्म (Comin Form) के नाम से प्रसिद्ध है। वेबीलक्स सन्धि और बर्लिन संकट ने संघर्ष को और भी अधिक उग्र रूप प्रदान किया। जर्मनी के साथ क्या व्यवहार किया जाये इसके सम्बन्ध में भी पर्याप्त मतभेद विद्यमान रहा जिसके कारण दो जर्मनी बन गये और यहाँ तक कि बर्लिन नगर का भी विभाजन हो गया।

(v) इसी समय एक और महत्त्वपूर्ण घटना हो गई, जिसने शीत युद्ध में और अधिक उग्रता प्रदान की। द्वितीय महायुद्ध की समाप्ति के उपरान्त चीनी साम्यवादी ने सोवियत संघ की सहायता द्वारा समस्त चीन पर अधिकार कर वहाँ साम्यवादी सरकार की स्थापना की और चांग कोई रोक को चीन का परित्याग कर फारमूसा में शरण लेनी पड़ी।

वहाँ पर अमेरिकन सेना की संरक्षता में है और फारमूसा की रक्षा उसी के द्वारा की जाती है। संयुक्त राष्ट्र संघ में इसी सरकार का प्रतिनिधि रहता था। वह सुरक्षा परिषद् का स्थाई सदस्य था। साम्यवादी चीन ने इसको स्वीकार नहीं किया और संयुक्त राज्य अमेरिका ने साम्यवादी चीन की सरकार को मान्यता प्रदान नहीं की क्योंकि ऐसा होने से सुरक्षा परिषद के दो स्थायी सदस्य साम्यवादी हो जाते। संयुक्त राज्य अमेरिका के विरोध के कारण साम्यवादी चीन को संघ का सदस्य नहीं बनाया गया और इसके कारण शीत युद्ध और भी अधिक तीव्र हो गया। 13 जनवरी, 1951 ई. से 1 अगस्त, 1953 ई. तक सोवियत संघ ने सुरक्षा परिषद का बहिष्कार किया और उसकी बैठकों में भाग नहीं लिया। इसी बीच कोरिया की समस्या उत्पन्न हुई। संयुक्त राज्य अमेरिका ने सोवियत रूस की अनुपस्थिति का लाभ उठाकर सुरक्षा परिषद द्वारा यह पास करा लिया कि कोरिया में संयुक्त राष्ट्र संघ की ओर से सैनिक कार्यवाही की जाये। इसी प्रकार शीत युद्ध का स्थान ग्रहण किया। यद्यपि 8 जून, 1953 ई. को युद्ध रोक दिया गया, किन्तु | शीत युद्ध में शिथिलता नहीं आई।

दूसरा चरण ( 1953-1963 )

(i) इसके उपरान्त भी अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक प्रश्नों पर दोनों में बराबर मतभेद रहा। संयुक्त राज्य अमेरिका की ओर से साम्यवादी प्रचार को रोकने के लिए विभिन्न प्रादेशिक समझौते और संगठन की नीति को अपनाया गया। उसने नाटो, बगदाद पैक्ट तथा सीटो का निर्माण किया जिसकी सोवियत रूस की ओर से बहुत अधिक आलोचना की गई।

(ii) इस प्रकार और भी बहुत सी समस्यायें तथा घटनायें हुई जहाँ इन दोनों पक्ष का आपस में पर्याप्त मतभेद था जैसे जापान की समस्या, मध्यपूर्व का तेल प्रश्न, स्वेज नहर का प्रश्न, इराक की क्रान्ति आदि। आइजनहावर सिद्धान्त के प्रतिपादित होने पर दोनों पक्षों में और भी अधिक मतभेद उत्पन्न हो गया।

(iii) हंगरी के प्रश्न पर दोनों में कटुता उत्पन्न हो गई। परन्तु सोवियत संघ के प्रधानमंत्री खुश्वेच की अमेरिकन यात्रा ने शीत युद्ध में कुछ कमी अवश्य ला दी किन्तु शीघ्र ही यू-विमान की घटना ने दोनों में फिर कटुता उत्पन्न कर दी जिसके कारण शिखर सम्मेलन (Summit Conference) असफल हो गया।

(iv) 1961 ई. के अप्रैल माह में क्यूबा की घटना ने दोनों में पुनः तनाव पैदा किया किन्तु खुश्चेव ने बड़ी योग्यता के साथ इस समस्या द्वारा उत्पन्न होने वाले संकट से विश्व को मुक्ति प्रदान की अन्यथा यह आशंका उत्पन्न की गई थी कि दोनों में कहीं युद्ध न आरम्भ हो जाये। कैनेडी की शीत युद्ध की समाप्ति के लिए भरमार चेष्टा के फलस्वरूप दोनों देशों के सम्बन्ध अच्छे होने लगे और पूर्व कटुता का अन्त होने लगा।

तीसरा चरण (1963-1990)

दुर्भाग्य से 22 नवम्बर, 1993 ई. को कैनेडी का वध कर दिया गया। उसके स्थान पर जानसन राष्ट्रपति हुए। उन्होंने यह आश्वासन दिया कि वे कैनेडी द्वारा प्रतिपादित नीति का पालन करेंगे। अतः आशा की गई कि भविष्य में दोनों देशों के सम्बन्ध ठीक ही रहेंगे और विश्व को तीसरे महायुद्ध का सामना नहीं करना पड़ेगा।

तीसरे चरण की कुछ क्रिया-प्रतिक्रियायें

(i) वियतनाम के सम्बन्ध में जो नीति अमेरिका द्वारा अपनाई जा रही थी, उसके कारण अमेरिका और रूस के सम्बन्ध कुछ खराब हो गये थे, किन्तु बाद में सुधार भी आया ।

(ii) कार्टर के शासनकाल में साल्ट प्रथम और द्वितीय समझौते हुए जिनके कारण प्रक्षेपास्त्रों की संख्या निश्चित की गई और आक्रामक शस्त्रों के बीच भी समझौता हुआ।

(iii) रूस और जर्मनी के मध्य 1970 में मास्को-बोन समझौता सम्पन्न हुआ फलस्वरूप शीत युद्ध में कुछ कमी की आशा बलवती हुई।

(iv) 1971 में अमेरिका, रूस, फ्राँस तथा इंग्लैण्ड के मध्य बर्लिन समझौता हुआ।फलस्वरूप जर्मनी और पश्चिमी जर्मनी के सम्बन्ध सामान्य हुए।

(v) 1971 में रूस तथा भारत के बीच एक मैत्री सन्धि हुई फलस्वरूप भारत-पाक संघर्ष में रूस ने भारत का समर्थन किया तथा विरोध स्वरूप अमेरिका ने पाकिस्तान का । परिणामस्वरूप दोनों महाशक्तियों में वैमनस्य और कटुता बढ़ने लगी।

(vi) 1972 में रूस ने बंगलादेश को मान्यता प्रदान कर दी जिससे रूस तथा पाकिस्तान के सम्बन्ध बिगड़ गये क्योंकि अमेरिका ने पाकिस्तान की बंगला नीति का समर्थन किया।

(vii) 1973 में उत्तर कोरिया तथा दक्षिण कोरिया के मध्य मतभेदों को समाप्त करने के लिए एक आयोग स्थापित किया गया।

(viii) 1975 में शीत युद्ध में कुछ कमी दिखने लगी थी क्योंकि 1973 से 1975 तक हेलसिंकी तथा जेनेवा सम्मेलनों के द्वारा यूरोपीय राज्यों के पारस्परिक मतभेदों को समाप्त करने का प्रयत्य किया गया था।

(ix) 1978-79 में अमेरिका ने नाटो सन्धि के देशों को शस्त्रास्त्रों से समृद्ध किया जो रूस के विरुद्ध एक प्रकार की पूर्ण तैयारी थी। फलस्वरूप पुनः शीत युद्ध आरम्भ हो गया।

(x) 1979 में रूस द्वारा बड़ी मात्रा में अफगानिस्तान में अपनी सेना भेजी गई, जिस कारण अमेरिका ने रूस के इस कार्य की निन्दा की और फलस्वरूप मतभेद और उजागर हुए।

(xi) 1983 में रूस ने दक्षिणी कोरिया का एक विमान मार गिराया था जिस कारण अमेरिका ने तीव्र प्रतिक्रिया व्यक्त की थी।

(xii) 1987 में रूस ने दक्षिण कोरिया द्वारा परमाणु परिसीमन सन्धि पर हस्ताक्षर करके शीत युद्ध को समाप्त करने का प्रयत्न प्रारम्भ किया गया।

1987 में परमाणु सन्धि पर हस्ताक्षर करने के उपरान्त जनवरी 1989 में अमेरिका तथा रूस ने समस्याओं का हल वार्ता द्वारा निकालने का प्रयास किया था। इसके उपरान्त 31 जुलाई, 1991 को दोनों महाशक्तियों के मध्य परमाणु शस्त्र परिसीमान सन्धि (START) पर हस्ताक्षर करने के बाद तथा सोवियत संघ के विघटन के उपरान्त शीत युद्ध में जैसे विराम लग गया है। इस समय विश्व में शान्ति स्थापना के विषय में रूस और अमेरिका दोनों ही कुछ अधिक गम्भीर दिखते हैं।

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