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अरस्तू के सम्पत्ति सम्बन्धी विचार | Aristotle’s property ideas in Hindi

अरस्तू के सम्पत्ति सम्बन्धी विचार
अरस्तू के सम्पत्ति सम्बन्धी विचार

अरस्तू के सम्पत्ति सम्बन्धी विचार

अरस्तू ने सम्पत्ति में आजीविका के रूप में माना है। उसके शब्दों में सम्पत्ति राज्य के अथक प्रयोग में लायें जाने वाले साधनों का सामूहिक नाम है। सम्पत्ति दो प्रकार की होती है— 1. निर्जीव, 2. सजीव।

निर्जीव सम्पत्ति में धन, घर, भूमि आदि हैं। सजाव सम्पत्ति में पशु दास आदि हैं।

1. सम्पत्ति मानव के लिए वरदान– सम्पत्ति परिवार का आवाश्यक एवं स्वाभाविक अंग है, व्यक्तिगत सम्पत्ति का होना मानव के लिए एक वरदान है। मनुष्य सम्पत्ति के द्वारा अपनी दैहिक आवश्यकताओं की पूर्ति करता है। मनुष्य को भूख शान्त करने के लिए भोजन करना चाहिए, रहने के लिए घर चाहिए। मौसम के अनुसार कपड़े चाहिए। अतः सम्पत्ति एक स्वाभाविक आवश्यकता है।

2. सम्पत्ति एक अभिशाप- अरस्तू के अनुसार जहाँ सम्पत्ति एक ओर वरदान है, वहाँ दूसरी ओर अपने उग्रवादी रूप में अभिशाप भी है। सम्पत्ति साधन है, साध्य नहीं कठिनाई तब आती है, जब व्यक्ति धन के संचय को ही साध्य मान बैठता है। सम्पत्ति की एक सीमा आवश्यक है। अधिक सम्पत्ति होना उतना ही बुरा है कि सम्पत्ति का न होना।

इस प्रकार अरस्तू ने सम्पत्ति के सम्बन्ध में अन्य क्षेत्रों की भाँति मध्य मार्ग का अनुसरण किया है। उसने एक ओर सम्पत्ति पर व्यक्तिगत स्वामित्व का समर्थन किया है तथा दूसरी ओर अत्यधिक सम्पत्ति संचय का भी विरोध किया है। सम्पत्ति साधन है, यह व्यक्ति की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए है। अतएव सम्पत्ति का उत्पादन उसी सीमित मात्रा तक किया जाना चाहिए जहाँ तक हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति सम्भव हो सके।

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सम्पत्ति का उद्देश्य

अरस्तू के अनुसार सम्पत्ति के हेतु सुखी एवं नैतिक जीवन है। सम्पत्ति के द्वारा ही मानव के विभिन्न गुणों का विकास होता है। अतिथि सत्कार, उदारता, मित्रता, दान आदि सम्पत्ति के होने पर ही सम्भव है। अत्यधिक धन होने से व्यक्ति में इसके विपरीत प्रभाव होते हैं।

अरस्तू द्वारा व्यक्तिगत सम्पत्ति का समर्थन-अरस्तू ने व्यक्तिगत सम्पत्ति का समर्थन कर उसे सुखी एवं नैतिक जीवन के लिए आवश्यक माना है। अरस्तू ने निम्न आधारों पर व्यक्तिगत सम्पत्ति का समर्थन किया है—

(1) व्यक्तिगत सम्पत्ति मानव प्रकृति का गुण है। धन संग्रह भी मानव की स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है।

(2) यह पारिवारिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए आवश्यक है।

(3) व्यक्तिगत सम्पत्ति के द्वारा ही मनुष्य का व्यक्तित्व उचित प्रकार से विकसित हो सकता है। इसके प्रभाव में व्यक्ति में अनेक गुणों का अभाव रह जाएगा। उसमें उदारता, दानशीलता, अतिथि सत्कार मित्रता, परिश्रम, तन्मयता आदि गुणों का विकास न होगा।

(4) धर्म से व्यक्ति को आत्म सन्तोष मिलता है। इससे आनन्द की अनुभूति होने के कारण यह आवश्यक है।

(5) धन प्रशासन में भी सहायक होता है। व्यक्तिगत सम्पत्ति की व्यवस्था राज्य कार्य के प्रशासन में भी सहायक होती है।

(6) व्यक्तिगत सम्पत्ति व्यक्तियों में नागरिक भावना उत्पन्न होती है। भिखारी समाज अथवा राज्य के नियमों की चिन्ता नहीं करता है।

(7) व्यक्ति उसी स्थिति में अधिक कार्य करता है, जबकि उसको भी कुछ लाभ हो। अतः आत्म लाभ ही कार्य को प्रेरणा देता है। अप्रत्यक्ष रूप से इससे समाज को भी लाभ होता है।

सम्पत्ति का उपार्जन

अरस्तू के अनुसार धन का उत्पादन (Production) दो प्रकार से होता है— 1. प्राकृतिक, 2. अप्राकृतिक

प्राकृतिक ढंग से मनुष्य प्रकृति की सहायता प्राप्त कर अपने परिश्रम द्वारा अग्रसर होता है। उदाहरण के लिए मनुष्य भूमि से अनाज उत्पन्न कर अथवा पशुओं को चराकर इस सम्पत्ति का उपार्जन करता है। सम्पत्ति का यह उत्पादन आजीवन चलता रहता है।

अप्राकृतिक उपाय में वह उस उपार्जन को गिनता है जिसमें प्रकृति का कोई हाथ नहीं होता। उसको लाभ के लालच में मनुष्य की सहायता से प्राप्त किया जता है। ब्याज की कमाई या व्यापार द्वारा सम्पत्ति इसी प्रकार की है। सूदखोरी धन पैदा करने का सबसे घृणित उपाय है। अरस्तू के शब्दों में, “धनोपार्जन का सबसे घृणित उपाय सूद लेना है और इसका घृणित्तम होना नितान्त युक्तिसंगत है क्योंकि इसमें मुद्रा का उपयोग करने वाली विनिमय की पद्धति से लाभ कमाने के स्थान पर स्वयं मुद्रा में ही लाभ प्राप्त किया जाता है।”

प्राकृतिक उपायों के द्वारा सम्पत्ति का ही संग्रह करना चाहिये।

जहाँ तक कि विनिमय का सम्बन्ध है, अरस्तू के अनुसार इसके दो रूप हैं- 1. नैतिक, 2. अनैतिक

सम्पत्ति का विनिमय न्याय सिद्धान्त को दृष्टिगत रखकर ही किया जाना चाहिए। न्याय सिद्धान्त से अभिप्राय यह है कि सम्पत्ति के विनिमय से अधिक-से-अधिक व्यक्तियों को लाभ प्राप्त हो। वस्तुओं के आदान-प्रदान का आधार समान मूल्य होना चाहिये। एक वस्तु का उतना ही मूल्य होना चाहिये, जितना कि एक व्यक्ति अपनी वस्तु का मूल्य दूसरे से प्राप्त करता है। अरस्तू के अनुसार, ‘राज्य की सत्ता शुभ जीवन के लिये है, विनिमय में सुविधा प्रदान करने तथा आर्थिक सम्पर्क में वृद्धि करने के लिये नहीं।”

घन का वितरण एवं उपभोग के बारे में उसने तीन बातें रखी हैं- (1) भूमि पर व्यक्तिगत अधिकार हो, परन्तु उसके उत्पादन का सामूहिक उपयोग हो। (2) सम्पत्ति पर समान अधिकार हो, पर उपभोग व्यक्तिगत हो। (3) भूमि पर सबका अधिकार हो तथा उसका उपभोग सब ही करें।

उसके अनुसार दूसरे प्रकार के सिद्धान्त को भी व्यक्ति द्वारा स्वीकार नहीं किया जा सकता। अतएव अरस्तू प्रथम तथा तृतीय की परीक्षा करता है। उसने तीसरे सिद्धान्त का खण्डन इस आधार पर किया कि जो वस्तु सभी के स्वामित्व में होती है वह किसी की नहीं होती। कारण यह है कि उसकी ओर सभी लापरवाही करते हैं। इस प्रकार अरस्तू प्रथम सिद्धान्त को सर्वोत्कृष्ट ठहराता है। उसका विचार है कि व्यक्तिगत स्वामित्व से सम्पत्ति के उत्पादन में वृद्धि होगी।

उपरोक्त सुझावों एवं व्यक्तिगत सम्पत्ति के आधारों को देखने पर लगता है कि यद्यपि यह प्लेटो के साम्यवाद की आलोचना करता है, परन्तु अपने गुरु के मूल आधार नैतिकता एवं सामूहिक रूप को मान्यता देता है। अतः इस प्रकार से वह व्यक्तित्व के विकास एवं समाज कल्याण दोनों पहलुओं को लेकर चलता है, वह व्यक्तिवादी भी है, समाजवादी भी वास्तव में वह दोनों के मध्य के मार्ग को अपनाता है।

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