वाणिज्य / Commerce

मुद्रा पूर्ति का अर्थ | मुद्रा आपूर्ति के संघटक | मुद्रा आपूर्ति को निर्धारित करने वाले कारक 

मुद्रा पूर्ति का अर्थ
मुद्रा पूर्ति का अर्थ

मुद्रा की पूर्ति का क्या अर्थ है?

मुद्रा की पूर्ति (Supply of Money) – मुद्रा की पूर्ति से तात्पर्य अर्थव्यवस्था में मुद्रा कुल मात्रा से है। मुद्रा की पूर्ति का महत्त्वपूर्ण प्रभाव उत्पत्ति, रोजगार तथा कीमतों पर पड़ता हैं । मुद्रा की पूर्ति पर केन्द्रीय बैंक का नियन्त्रण रहता है तथा केन्द्रीय बैंक मुद्रा की आपूर्ति के माध्यम से देश की अर्थव्यवस्था पर नियन्त्रण रख सकती है। मुद्रा का सीधा उपयोग विनिमय के माध्यम के रूप में होता है और वस्तुओ की कीमत मुद्रा की आपूर्ति पर बहुत कुछ निर्भर करती है । यदि केन्द्रीय बैंक मुद्रा की आपूर्ति से अधिक कर देगी तो देश में वस्तुओं की कीमत बढ़ जायेगी और यदि मुद्रा की आपूर्ति सीमित होगी तो वस्तुओं की कीमत कम हो जायेगी।

भारत में मुद्रा आपूर्ति की प्रवृत्तियां

योजनाकाल में कीमतों की वृद्धि के साथ-साथ मुद्रा की आपूर्ति भी निरन्तर बढ़ती रही, यद्यपि दोनों के बढ़ने की दर समान नहीं थी। मुद्रा आपूर्ति के विभिन्न संघटक भी विभिन्न दरों में बढ़े जिससे उनको प्रभावित करने वाले कारकों की सापेक्ष शक्ति में अन्तर का बोध होता है ।

मुद्रा आपूर्ति के संघटक (Components of Supply of Money) –

मुद्रा आपूर्ति के द्वितीयक कार्यकारी दल की सिफारिशों के आधार पर भारतीय रिजर्व बैंक ने मुद्रा आपूर्ति का आंकलन निम्नलिखित चार संघटकों के आधार पर करना प्रारम्भ किया। इसका पहला महत्त्वपूर्ण घटक है लेनदेन की मुद्रा जिसे M1 के रूप में व्यक्त किया जाता है। M1 में निम्नलिखित शामिल है- 

(1) वे सिक्के जो बैंकों के पास नहीं है।

(2) बैंक से बाहर चलन में पत्र मुद्रा।

(3) बैंक मुद्रा अर्थात् बैंकों की वह जमा राशि जिस पर चेक लिखे जाते हैं जैसे बचत खाते एवं चालू खाते।

विस्तृत मुद्रा की अवधारणा M2 में डाकखानों की बचत बैंक जमा आते है।

M3 सकल मौद्रिक साधान है और इसमें निम्नलिखित शामिल हैं जनता के पास सिक्के, बैंकों से माँग जमा, डाकखानों में जमा तथा बैंकों की सावधि जमायें है।

M4 = M3 + डाकखाने की सम्पूर्ण जमायें। मुद्रा आपूर्ति या मौद्रिक तरलता के इन चार मापों में M3 मुद्रा के अन्य रूपों की तुलना में सबसे अधिक तरल रूप का प्रतिनिधित्व करता है। मुद्रा का यह भाग विनिमय के माध्यम के रूप में कार्य करता है। यही भाग वस्तुओं की खरीद और बिक्री के बदले लेनदेन में प्रयोग किया जाता है। मुद्रा का यह भाग विनिमय के माध्यम के रूप में जनता द्वारा स्वीकार किया जाता है।

M2 M1 से कम तरल है तथा M3 M1 तथा M2 तथा की अपेक्षा और कम तरल है इसका कारण है कि इसमें सावधि जमायें सम्मिलित है। इसी प्रकार M4 जिसमें डाकखानों की सम्पूर्ण जमायें शामिल होती है। M1 M2 तथा M3 से कम तरल है। ज्यों-ज्यों हम मुद्रा की अगली श्रेणियों की ओर बढ़ते है इसका तात्पर्य होता है कि हम मुद्रा के “विनिमय के माध्यम” के रूप में “मुद्रा के संचय” के रूप की ओर बढ़ते हैं।

विभिन्न संघटकों का महत्त्व (Importance)-

मुद्रा के सभी संघटक एक समान महत्त्वपूर्ण नहीं है। इनके सापेक्ष महत्त्व में अन्तर होता है। यह अन्तर समय-समय पर घटता रहता हैं। 2001-02 में M₁ की पूर्ति 422843 करोड़ रु. थी। तथा M3 की कुल मात्रा 1498355 करोड़ रूपये थी। M3 का सबसे बड़ा घटक बैंकों में मियादी जमा था जो कि 1075512 करोड़ रूपये थी। वर्ष 2009-10 में M1 की कुल पूर्ति 1535298 करोड़ रुपये तथा M3 की कुल पूर्ति 1033121 करोड़ रुपये थी।

GDP के प्रतिशत के रूप में M1 व M3 (M1 and M3 As Percentage of GDP)

जैसा कि सारणी के अंकों से स्पष्ट होता है विगत वर्षों में M1 की अपेक्षा M3 में अपेक्षाकृत वृद्धि हुई है।

GDP के प्रतिशत के रूप में M1 व M3

वर्ष M1 M3
2004-05 18.5 65.5
2005-06 19.3 66.1
2006-07 20.0 68.9
2007-08 20.1 72.8
2008-09 20.4 77.8
2009-10 21.2 83.1

मुद्रा आपूर्ति को निर्धारित करने वाले कारक (Factors determining supply of Money)

सामान्यत: सरकारी तथा निजी दोनों ही क्षेत्र मुद्रा आपूर्ति को निर्धारित करने वाले कारकों को जन्म देते है। ये कारक निम्नलिखित हैं-

(1) घाटा वित्तीयन

सरकार द्वारा घाटा वित्तीयन से मुद्रा की आपूर्ति बढ़ती है। घाटा वित्तीयन सरकारी व्यय का वह भाग हैं जो सरकार सरकारी करों, सरकारी उद्यमों के लाभ तथा जनता के लिए गये ऋणों से प्राप्त राशि से अधिक खर्च करती है। जब सरकार घाटा वित्तीयन के लिए रिजर्व बैंक से ऋण एवं अग्रिम के रूप में या सरकारी प्रतिभूतियों व हुण्डियों के विक्रय से अतिरिक्त मुद्रा प्राप्त करती है तो अतिरिक्त मुद्रा का सृजन होता है। देश में घाटा वित्तीयन की मात्रा अधिक रही है और यह योजना काल में इसमें बढ़ोतरी हुई हैं। घाटा वित्तीयन के कारण देश में मुद्रा प्रसार की स्थिति उत्पन्न हुई है।

(2) बैंक ऋण

बैंक ऋण मुद्रा की आपूर्ति बढ़ाने वाला एक दूसरा प्रमुख कारण हैं। इसका सृजन बैंकों द्वारा उत्पादकों एवं व्यापरियों की जरूरतों को पूरा करने के लिए किया जाता है। भारत में योजनाओं के प्रभाव से उद्योग धन्धों में, व्यापार में, यातायात में और स्टाक के रख-रखाव और विक्रय आदि क्रियाओं में वृद्धि हुई हैं। सभी उत्पादक और व्यापारी अपनी इन वित्तीय आवश्यकताओं की पूर्ति स्वयं नहीं कर पाते उन्हें बैंकों से ऋण लेना पड़ता है। उनकी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए बैंक ऋण उपलब्ध कराती हैं। अत: इस प्रकार साख अतिरिक्त मुद्रा आपूर्ति का अंग बन जाता है।

(3) विदेशी विनिमय की आरक्षित निधि

जब देश में विदेशी मुद्रा का रिजर्व बढ़ता है तो मुद्रा की आपूर्ति भी बढ़ती है और जब यह घटता है तो मुद्रा की आपूर्ति घट जाती है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि जब लोगों के पास विदेशी मुद्रा अधिक होती है तो वे उसे घरेलू मुद्रा में परिवर्तित कर लेते हैं जिससे घरेलू मुद्रा की आपूर्ति बढ़ जाती है। इसके विपरीत जब विदेशी मुद्रा कम होती है तो लोग विदेशी भुगतानों के लिए विदेशी मुद्रा का क्रय करते हैं जिससे देश की आपूर्ति कम हो जाती है।

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