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व्यक्तित्व विकास का अर्थ | व्यक्तित्व विकास की अवस्थाएँ

व्यक्तित्व विकास से क्या आशय है?

व्यक्तित्व विकास- व्यक्तित्व के विकास में वंशानुक्रमगत एवं वातावरणगत सभी घटकों का प्रभाव पड़ता है। व्यक्तित्व किसी व्यक्ति का व्यवहार है। व्यक्तित्व एक कलाकृति के समान होना चाहिए। जिस प्रकार एक कलाकृति में किसी भी प्रकार की कमी होने से वह पूर्ण नहीं मानी जाती उसी प्रकार व्यक्तित्त्व का सर्वांगीण विकास भी अपेक्षित है।

व्यक्तित्व विकास का अर्थ

व्यक्तित्व विकास का अर्थ

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व्यक्तित्व विकास की अवस्थाएँ

व्यक्तित्व के विकास की अवस्थाएँ इस प्रकार हैं-

1. अभिगम एवं अभिवृद्धि 

अभिगम एवं अभिवृद्धि बालक के विकास की अन्योन्याश्रित अवस्था है, अभिवृद्धि न होने से अभिगम प्रभावित है। अधिगम में शिथिलता बालक की अभिवृद्धि को प्रभावित करती है, अधिगम से व्यवहार में परिवर्तन होता है। अनुभव उपयोग तथा अभ्यास से अधिगम को सफलता मिलती है।

आयु स्तर के अनुसार अभिवृद्धि न होने से बालक का व्यक्तित्व विकृत तथा दूषित होने लगता है। वह धीमी गति से सीखने वाला हो जाता है और उसके व्यक्तित्व में चेतना का अभाव पाया जाता है।

2. अधिगम एवं परिक्वता

बालक के व्यक्तित्व की यह अवस्था परिपक्वता पर निर्भर करती है। आयु वृद्धि के साथ-साथ शारीरिक परिपक्वता आती है और यह परिपक्वता उसकी अधिगम की प्रकृति को.. प्रभावित करती है।

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3. विकास की प्रक्रिया

विकास की अवस्थाओं के दौरान व्यक्तित्व का विकास उसकी प्रक्रियाओं पर निर्भर करता है। प्रत्येक प्राणी में विकास प्रक्रिया का निश्चित समय होता है। इन सभी आधारों पर इन विकास के तत्त्वों की विवेचना इस प्रकार करते हैं-

1. शारीरिक विकास की अवस्था- शरीर का संगठित एवं संतुलित अनुपात रचना तथा आकार को व्यक्तित्व की आरम्भिक अवस्था माना जाता है। नाटे व्यक्ति का मजाक बनाया जाता है, यही स्थिति लम्बे व्यक्ति की भी होती है। इस अवस्था में बालक-बालिकाओं के शरीर की विभिन्न विशेषताएँ प्रकट होने लगती है, इसका परिणाम यह होता है कि व्यक्ति का व्यक्तित्व उसके शरीरिक विकास के अनुसार विकसित होने लगता है। खब्बूयन भी शारीरिक विकास का एक अंग है। इसमें भी व्यक्तित्व प्रभावित होता है।

2. संवेगात्मक विकास की अवस्था – शरीर के विकास के साथ-साथ व्यक्ति में निहित अनेक – संवेगों की अभिव्यक्ति की प्रकृति भी व्यक्तित्व के विकास को प्रभावित करती है। व्यक्ति का क्रोध, भय, प्रेम, घृणा आदि उसके व्यवहार द्वारा व्यक्त होते हैं और यह अभिव्यक्ति ही उसके व्यवहार की संवेदात्मक अवस्था है, व्यक्तित्व के विकास में संवेगों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। भय, क्रोध, चिन्ता, दुश्मनी आदि वे अवस्थाएँ हैं जिनसे संवेग उत्पन्न होते हैं। रुचि तथा भय से भी संवेगों की उत्पत्ति होती है। रोना, हँसना, लड़ना, भड़कना, प्रचण्डता आदि संवेगों की वे अवस्थाएँ हैं जो व्यक्तित्व को स्वरूप प्रदान करती है ।

3. सामाजिक विकास की अवस्था–व्यक्तित्व के विकास की सामाजिक अवस्था का आरम्भ शिशु के द्वारा माता का चेहरा देखकर मुस्कराने से होता है, पाँच माह की आयु से वह दूसरों को देखकर मुस्कराता है, 18 माह की अवस्था में वह सामाजिक सम्बन्धों के जटिलरूप अर्थात् नातेदार की पहचान करने लगता है। बाल्यावस्था में यह मैत्री रूप धारण करती है, किशोरावस्था में वह एक पूर्ण सामाजिक व्यक्तित्व बन जाता है। सहयोग मैत्री बढ़ने लगती है कि अवसाद के क्षणों में वह अकेलापन भी महसूस करने लगता है। लड़ाई-झगड़ों के साथ-साथ मित्रभाव से भाव निभाने की भावना भी विकसित होने लगती है।

4. सांस्कृतिक विकास की अवस्था-बोरिंग, लैंगफील्ड एवं वील्ड के अनुसार जिस संस्कृति में व्यक्ति का लालन-पालन होता है, उसका उसके व्यक्तित्व के लक्षणों पर सबसे अधिक व्यापक प्रकार का प्रभाव पड़ता है। अतः संस्कृति, व्यक्तित्व को विकास के प्रत्येक स्तर पर प्रभावित करती है। मान्यताएँ, आदर्श रीति-रिवाज, रहन-सहन की विधियाँ, धर्म-कर्म आदि की शैलियाँ व्यक्ति के व्यक्तित्व की रचना करने में सहयोग देती है। एक वंश के दो बालकों का पालन यदि दो भिन्न संस्कृतियों में होता है तो उसका व्यक्तित्व संस्कृति के अनुसार भिन्न होगा।

5. मानसिक विकास की अवस्था-व्यक्ति का मानसिक विकास उसके व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति करता है। मानसिक विकास का आरम्भ ज्ञान से होता है, ज्ञान का आरम्भ पहचान तथा अभिव्यक्ति से होता है। भूख-प्यास के माध्यम से सांसारिक वस्तुओं का दृष्टिकोण विस्तृत होता है, काल-अनुभूति, आकर्षण, भविष्य निर्माण, ध्यान केन्द्रित करना, चिन्तन, तर्क, कल्पना का विकास होने से व्यक्तित्व का मानसिक स्वरूप उभरता है। पियाजे तथा लूनर ने व्यक्तित्व के ज्ञानात्मक विकास का विश्लेषण, संवेदन एवं गति, प्रत्यय, चिन्तन द्वारा किया है। बूनर ने विधि, प्रतिमा एवं संकेत के द्वारा मानसिक विकास होना बताया है।

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