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दीर्घकालीन वित्त का आशय | दीर्घकालीन वित्त की पूर्ति के साधन

दीर्घकालीन वित्त का आशय
दीर्घकालीन वित्त का आशय

दीर्घकालीन वित्त का आशय (Meaning of Long term finance)

दीर्घकालीन वित्त का आशय (Meaning of Long term finance) दीर्घकालीन वित्त से आशय औद्योगिक उपक्रम अथवा कम्पनी की ऐसी वित्तीय आवश्यकताओं से है जिनके लिए कम से कम 7 वर्ष से लेकर 10 वर्ष या अधिक अवधि के लिए वित्त का प्रबन्ध करता है ।

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दीर्घकालीन वित्त की पूर्ति के साधन (Sources of Long term Finance)

दीर्घकालीन वित्त की पूर्ति प्रायः तीन साधनों से की जाती है- (1) स्वामिगत पूँजी (2) ऋणगत पूँजी (3) दीर्घकालीन ऋण। दीर्घकालीन वित्त की पूर्ति के इन साधनों का संक्षिप्त विवेचन निम्नलिखित है-

(1) स्वामीगत पूँजी

स्वामिगत पूँजी के अन्तर्गत निम्नलिखित स्रोतों को सम्मिलित किया जाता है-

1. समता अंश-किसी निगम या कम्पनी के दीर्घकालीन पूँजी के प्रमुख साधन समता अंश ही होते है। समता अंश को क्रय करने वाले सदस्य ही किसी निगम या कम्पनी के स्वामी बन जाते हैं, क्योंकि ये अंशधारी ही किसी निगम या कम्पनी के सम्पूर्ण जोखिम को वहन करते हैं, इसलिए समता अंशों से प्राप्त पूँजी जोखिम पूँजी कहलाती है। किसी निगम या कम्पनी की वित्तीय संरचना में इनका महत्त्वपूर्ण स्थान होता है।

2. पूर्वाधिकारी अंश-पूर्वाधिकारी अंश भी किसी औद्योगिक निगम या कम्पनी की वित्त व्यवस्था में महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। पूर्वाधिकारी अंश वे आं है, जिन्हें कम्पनी के लाभ में से लाभांश प्राप्त करने का पूर्ण अधिकार प्राप्त होता हैं। तथा कम्पनी के समापन की दशा में समता अंशधारियों से पहले पूँजी वापस प्राप्त करने का अधिकार होता हैं।

3. प्रतिधारित लाभों का पुनर्विनियोजन-प्रतिधारित लाभों का पुनर्विनियोजन औद्योगिक निगम या कम्पनियों की वित्तीय व्यवस्था का महत्त्वपूर्ण साधन है। निगम या कम्पनी अधिक लाभ कमाने की दशा में प्राय: उसका एक निश्चित भाग लाभांश के रूप में अंशधारियों को न बाँटकर स्वयं अपने पास प्रतिधारित कर दिया जाता है तथा इस प्रकार से प्रतिधारित लाभ का उपयोग, अल्पकालीन, मध्यकालीन तथा दीर्घकालीन वित्तीय आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए किया जाता है।

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(2) ऋणगत पूँजी

ऋणगत पूँजी के अन्तर्गत निम्नलिखित स्रोतों को सम्मिलित किया जाता है-

1. ऋणपत्र- निगम या कम्पनी अपनी सार्वमुद्रा के अधीन ऋणपत्रों को निर्गमित करती है। ऋणपत्रों के माध्यम से निगम या कम्पनी के द्वारा जनता से मुख्यतः दीर्घकालीन ऋण लेकर ऋण पूँजी प्राप्त की जाती है। ऋणपत्रों पर निश्चित दर से ब्याज का वचन होता हैं, चाहे उन्हें अपने व्यवसाय से लाभ प्राप्त होता है या नहीं, ऋणपत्रधारियों को ब्याज के अतिरिक्त लाभ में से कोई हिस्सा प्राप्त नहीं होता। ऋणपत्रधारी किसी निगम या कम्पनी के स्वामी न होकर केवल लेनदार होते है। निगम या कम्पनी की समीक्षा की दशा में समता अंशधारियों से पहले ऋणपत्रधारियों का धन वापस कर दिया जाता है।

2. बन्धपत्र- बन्धपत्र ऋणपत्रों का एक ही रूप हैं जो उस प्रसम्विदे का प्रतिनिधित्व करता है जिसके द्वारा निगम या कम्पनी के द्वारा इसके धारक या स्वामी को एक निश्चित समय पर एक निश्चित धनराशि चुकाने और समय-समय पर निश्चित ब्याज का भुगतान करने के लिए वचन दिया जाता है। बन्धपत्रों की अवधि प्राय: 10 वर्ष या इससे अधिक होती है। ऋणपत्रों के समान बन्धपत्र भी निगम या कम्पनियों की ऋणपूँजी का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत है।

(3) दीर्घकालीन ऋण

दीर्घकालीन ऋण के प्रमुख स्रोत निम्नलिखित हैं-

1. सरकारी एवं अर्द्धसरकारी स्त्रोत से ऋण-जनहित के विकास में संलग्न उद्योगों जैसे-सड़क निर्माण उद्योग, विद्युत उद्योग, रेल उद्योग आदि उद्योगों को केन्द्रीय एवं राज्य सरकारों के द्वारा दीर्घकालीन ऋण प्रदान किये जाते हैं।

2. विशिष्ट वित्तीय संस्थाओं से ऋण- प्रमुख विशिष्ट वित्तीय संस्थाएँ निम्नलिखित हैं-

(1) भारतीय औद्योगिक वित्त निगम (2) भारतीय औद्योगिक साख एवं विनियोग निगम (3) भारतीय औद्योगिक विकास बैंक (4) राष्ट्रीय औद्योगिक विकास निगम (5) राष्ट्रीय लघु उद्योग निगम (6) राष्ट्रीय सहकारी विकास निगम (7) भारतीय जीवन बीमा निगम (8) भारतीय इकाई प्रन्यास (9) राजकीय औद्योगिक विकास निगम (10) राज्य वित्त निगम।

3. अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं से ऋण- अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाएं भी भारतीय औद्योगिक उपक्रमों, निगमों एवं कम्पनियों को दीर्घकालीन ऋण प्रदान करती हैं। दीर्घकालीन वित्त प्रदान करने वाली मुख्य अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाएँ इस प्रकार है

(1) विश्व बैंक (2) अन्तर्राष्ट्रीय विकास संघ (3) अन्तर्राष्ट्रीय वित्त निगम (4) एशियन विकास बैंक ।

4. विदेशी विनियोग – भारतीय औद्योगिक विकास में विदेशी विनियोग ने काफी योगदान दिया है। कुछ उद्योग जैसे-चाय, रबर, कॉफी, कोयला, ताँबा, अभ्रक, रेलवे एवं रासायनिक उद्योग आदि में विदेशी विनियोग के कारण ही उत्पत्ति हो पायी हैं।

5. जन-निपेक्ष- भारत में औद्योगिक वित्त के साधनों में जन-निक्षेप का भी उल्लेखनीय योगदान रहा है। जन निक्षेपों के अन्तर्गत जनता अपने धन को एक निश्चित ब्याज की दर पर एक निश्चित अवधि के लिए भारतीय उपक्रमों, निगमों एवं कम्पनियों में जमा कर देती है।

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