मानव जीवन में धर्म का महत्व
मानव जीवन में धर्म के महत्व निम्नलिखित हैं-
1. अनुशासनात्मक व समाजीकरण
धार्मिक संस्कार औपचारिक होने के साथ-साथ कुछ सीमा तक निषेधात्मक और प्रावरोधी भी होते हैं, इसलिये ये संस्कार आवश्यक रूप से संन्यास अथवा तपस्या अर्थात् यतित्ववाद का रूप भी रखते हैं। इसी भाँति धर्म सामाजिक जीवन में अनुशासन लाता है और व्यक्तियों को सामाजिक जीवन जीने की तैयारी करने में सहायता देता है। धार्मिक संस्कारों से जुड़े अनेक व्रत, निषेध, कठोर नियम आदि इसी उद्देश्यों की पूर्ति करते है।
2. सामाजिक नियन्त्रण
कानून और धर्म समाज में सामाजिक नियन्त्रण के दो सबसे अधिक शक्तिशाली साधन हैं। धर्म केवल अनुशासन ही पैदा नहीं करता वरन एक संगठित मठ होने के नाते वह अपने सदस्यों पर बाह्य नियन्त्रण भी लगाता है। विभिन्न समाजों में धर्माचार्यों द्वारा न्यायालयों की भाँति आरोपों को सुनकर और विवादों पर निर्णय देकर दण्ड देने की प्रथा रही है।
3. संशक्तिकारी
धर्म के संस्कारों, समारोहों और त्यौहारों के माध्यम से कोई समुदाय नियतकालिक स्वयं के ही अस्तित्व का पोषण करता है। ये वे साधन बन जाते हैं, जिनके द्वारा लोग एक स्थान पर एकत्रित होते हैं, एक ही क्रिया में सहभागी हो जाते हैं और उस सामूहिक क्रिया के बीच सामान्य संवेगों की अनुभूति करते हैं। इस प्रकार एक धर्म को मानने वाले व्यक्ति अपने को एक-दूसरे के साथ जुड़ा महसूस करते हैं। परिणामतः धर्म सामाजिक एकता और भातृत्व को उत्पन्न करने में महत्वपूर्ण कारण बन जाता है, धर्म का ही यही कार्य संसक्तिकारी कार्य बन जाता है।
4. पुनरुद्जीवन देने वाला
धर्म समाज के वर्तमान को उसके भूतकाल से जोड़ता है। इससे एक निरन्तरता बनी रहती है और समाज अपनी मर्यादाओं और परम्पराओं को स्थाई बनाये रखता है। यह स्थायित्व सजग और अटल है। दुर्खीम के शब्दों में ये संस्कार कुछ निश्चित विचारों एवं संवेगों को जगाने के लिये वर्तमान को भूतकाल जोड़ने के लिये अथवा व्यक्ति समूह से जोड़े के लिये कार्य करते हैं।”
5. उल्लासोत्पादक
धर्म का एक बड़ा काम यह भी है कि वह समाज के जीवन में उल्लास भरने का कार्य करता है। वाइन के अनुसार धार्मिक क्रियाएं व्यक्तियों के मन में कल्याण की अनुभूति जगाती है।’ धार्मिक त्यौहार अथवा आयोजन लोगों के मन में उल्लास पैदा करते हैं और पुनः सामूहिक जीवन सुगमतापूर्वक सामाजिक आदर्शों के अनुरूप चलने लगता है। वास्तव में धर्म का विशेष अवसरों पर उल्लास और दिलासा देने का कार्य और वह भी सामूहिक क्रिया के रूप में, सामाजिक दृष्टि से बहुत मूल्यवान है।
6. सौन्दर्य अनुभूति
धर्म के संस्कारों के साथ नृत्य कला, चित्रकला, संगीतकला, मूर्तिकला एवं स्थापत्य कला सदा से जुड़ी रही है। सच तो यह है कि बहुत समय तक धर्म ने ही | इन्हें जिन्दा रखकर प्रोत्साहन दिया है। यही कारण है कि सौन्दर्यानुभूति की अभिव्यक्ति में | प्राचीनकाल का धार्मिक स्वरूप मिलता है। ‘पवित्र’ का तत्व जुड़ जाने से वस्तुओं एवं व्यवहारों में | स्वभावतः शुचिता, सौन्दर्य और शृंगार की भावनायें पैदा होती है।
7. मनोरंजनात्मक
धार्मिक क्रियाओं में सामूहिक रूप से कुछ विशेष मुद्रायें, अंग संचालन व अभिनय तथा लीलायें समाज के सदस्यों के लिये मनोरंजन का कार्य करती हैं। ऐसी | क्रियाओं से उत्तेजनापूर्ण वातावरण बनता है और ऐसे उत्तेजनापूर्ण भावावेश के क्षण ही इन सामूहिक धार्मिक क्रियाओं को अन्य लौकिक या सांसारिक क्रियाओं से भिन्न बना देते हैं अर्थात् उनमें अलौकिकता का तत्व भर देते हैं तथा उन्हें स्मरणीय बना देते हैं। ये क्रियायें व्यक्ति को लौकिक जीवन से मुक्ति दिलाती हैं। उसकी निरसता में नई उमंग भर देती है।
8. चिन्तन
धर्म अपने सदस्यों की चीजों की प्रकृति के सम्बन्ध में और मानव के सम्बन्ध में एक निश्चित अर्थ प्रदान करता है। विशेषतः उन सभी घटनाओं को तो धर्म ही स्पष्ट करता है जिन पर आधुनिक विज्ञान सन्तोषप्रद प्रकाश नहीं डालता। यह दूसरी बात है कि धर्म द्वारा प्रदान किया जाने वाला स्पष्टीकरण मूर्त प्रमाणों द्वारा सिद्ध न किया जा सके, परन्तु यह धर्म की स्वाभाविक जिज्ञासा को सन्तुष्ट करने में सफल होता है और उसमें विश्वास करने वाले व्यक्तियों के लिये वही स्पष्टीकरण सत्य होता है। विज्ञान, धर्म द्वारा दिये गये वास्तविकता के स्पष्टीकरण को झूठला भी तो नहीं सकते, इसलिये धर्म के ये स्पष्टीकरण वास्तविकता के रूप में अपने अनुयायियो के मध्य विद्यमान रहते हैं।
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