धर्म का अर्थ एवं परिभाषा (Meaning and Definition of Dharma)
धर्म शब्द का जन्म “धृ” धातु से हुआ है जिसका अर्थ है- धारण करना, पालन करना, से आलम्बन देना। सम्पूर्ण संसार में जीवन को धारण करने वाला तत्व जिसमें सार कुछ संयमित सुव्यवस्थित एवं सुसंचालित रहे और जिसके बिना लोक स्थिति असम्भव हो, वह धर्म कहलाता है। ऋग्वेद में धर्म शब्द का प्रयोग संज्ञा अथवा विश्लेषण के रूप में हुआ है, जिसका अर्थ है प्राण तत्व का पालन-पोषण करने वाला सम्योजक एवं ऊँचा उठाने वाला उनायक है। अर्थवेद में धर्म शब्द का प्रयोग धार्मिक क्रिया संस्कार करने से अर्जित गुण के रूप में हुआ है। ब्राह्मण में धर्म का अर्थ है – धार्मिक कर्मों का सर्वाग स्वरूप।
“धर्म वह मानदण्ड है जो विश्व को धारणा करता है। इस प्रकार धर्म का अभिप्राय उस सिद्धान्त से जिसमें समस्त प्राणियों की रक्षा होती है। वे समस्त नियम, धर्म के अंग हैं जो प्रत्येक के लिए कल्याणकारी हैं। हिन्दू विचारों के अनुसार-धर्म अलौकिक शक्ति के प्रति एक विश्वास है।” – डा. राधाकृष्णन
धर्म के प्रमुख स्रोत (Main Sources of Dharma)
धर्म के निम्नलिखित चार प्रमुख स्रोत होते हैं –
(i) वेद (ii) स्मृति (iii) धर्मात्माओं का आचरण (iv) व्यक्ति का अन्तःकरण । वेदों में हिन्दू धर्म के समस्त विश्वास एवं निश्चय सन्निहित हैं। इस सम्बन्ध में एक प्रमुख विद्वान ने लिखा है कि
“स्मृति का शब्दार्थ उस वस्तु की ओर संकेत करता है जो वेदों के अध्ययन में निष्णात ऋषियों की स्मृति रह गयी थी। स्मृति का कोई भी नियम जिसके लिए कोई वैदिक सूत्र ढूँढ़ा जा सके वेद की ही भाँति प्रमाणिक बन जाता है”- डॉ. राधाकृष्णन
धर्म के प्रमुख लक्षण (Main Features of Dharma)
धर्म के प्रमुख लक्षण निम्नलिखित हैं-
1. धृति- धृति का तात्पर्य है धैर्य। मनुष्य प्रत्येक कार्य में सफलता चाहता हैं, क्योंकि असफल होने से वह निराश होता है और वह अपने कर्तव्यों से मुँह मोड़ लेता है। अतः जीवन में सफलता प्रदान करने के लिए धैर्य के साथ-साथ सुख एवं दुख पर दृढ़ रहना चाहिए।
2. क्षमा- क्षमा का तात्पर्य है किसी अन्य द्वारा की गई गलती को शान्त स्वभाव से ग्रहण करना और किसी भी प्रकार का क्रोध न करना। इस सम्बन्ध में रहीमदास जी का दोहा उल्लिखित है.
“क्षमा वड़न को चाहिए छोटन को उत्पात।
का रहीम हरि को घट्यो जो भृगु मारी लात।।”
3. अस्तेय- अस्तेय का अर्थ है दूसरों की धन सम्पत्ति के प्रति सर्वथा निःस्पृह रहना। छल-बल, लूटपाट एवं अन्याय से दूसरों की धन सम्पत्ति पर कब्जा कर लेने की प्रवृत्ति सामाजिक व्यवस्था के लिए अत्यन्त घातक है।
4. दम – इन्द्रियों में मन सबसे अस्थिर व शक्तिशाली है, इनके स्वेच्छाचार प्रवृत्ति को सद्गुणों के द्वारा अन्त करना चाहिए। अतः इस आन्तरिक इन्द्रिय को वश में करना ही दम है।
5. इन्द्रिय निग्रह – इन्द्रियाँ सहज रूप से मनुष्य को विषय के रस में डुबो देती है और मनुष्य क्षणिक सुख को वास्तविक सुख समझकर अपने उद्देश्य से भटक जाता है। इन्द्रियों के विषयाकृष्ट हो जाने पर धर्मानुष्ठान के त्याग से मनुष्य का आधा पतन हो जाता है।
6. शौच- धर्म के आचरण के लिए आन्तरिक शौच (सेवा, दया, प्रेम, करुणा एवं त्याग आदि) एवं बाह्य शौच (शरीर, घर-आँगन एवं परिधान आदि की पवित्रता आदि) शौच के अंग हैं।
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