समाजशास्‍त्र / Sociology

सांस्कृतिक विकास की परिभाषा तथा संरचनात्मक प्रकार्यात्मक दृष्टिकोण

सांस्कृतिक विकास की परिभाषा तथा संरचनात्मक प्रकार्यात्मक दृष्टिकोण
सांस्कृतिक विकास की परिभाषा तथा संरचनात्मक प्रकार्यात्मक दृष्टिकोण

सांस्कृतिक विकास की परिभाषा

विकास एक निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है, जिससे सरल समाज विकसित समाज के रूप में परिवर्तित होता है। विकास सामाजिक प्रासंगिकता, आर्थिक विकास, सांस्कृतिक विकास एवं सामाजिक विकास में सन्निहित है। जीवन के पूर्ण विकास के लिये सांस्कृतिक मूल्यों को स्वीकार करना पड़ता है इसलिये विकास की सामाजिकता में सांस्कृतिक विकास का मूल्यवान समाज योगदान है। विकासोन्मुख प्रक्रिया परिवर्तन को जन्म देती है। यह आर्थिक उत्पादन के उपकरणों के बदलने से परिवर्तित मानवीय सक्यों द्वारा क्रियान्वित होती है। विकास प्रक्रिया जीवन्त सामाजिक अवधारणा है। इस परिवर्तन में से नये सामाजिक संबधों, अभिनव सांस्कृतिक मूल्यों, परम्पराओं, विश्वासों, प्रथाओं का अभ्युदय होता है जिससे पुराना सामाजिक ढाँचा एक नई संरचना में प्रस्तुत होता है।

आर्थिक विकास की प्रक्रिया में भी संस्कृति का विशेष योगदान है। समाज के संदर्भ में सांस्कृतिक विकास मानव के उन्नतशील उदात्त जीवन का रूपायन है और संस्कृति उसके चिन्तन-मनन, संवेदन का रूप है। सभ्यता एवं संस्कृति के समन्वय से पूर्ण मानव का विकास होता है। जीवन के भौतिक पक्ष का उन्नयन सभ्यता का अंग है। संस्कृति आभ्यान्तरिक जीवन मूल्यों को व्यक्त करती है। जीवन के साधनों का जब मनुष्य विकास करता है तब उसे हम सभ्य कहते हैं। अतः संस्कृति आत्मा से जुड़कर आत्मिक विकास, उत्थान उत्कर्ष द्वारा आत्मदर्शन को प्रेरित करती है इसीलिये सांस्कृतिक विकास आत्मिक विकास की यात्रा है।

संरचनात्मक प्रकार्यात्मक दृष्टिकोण

सामाजिक संरचना और उस संरचना को बनाने वाली इकाइयों के प्रकार्यों के बीच कोई संबंध है या नहीं, इस संबंध में जो मतभेद पहले था आज वह धीरे-धीरे कम होता जा रहा है जिसके फलस्वरूप आधुनिक समाजशास्त्र में संरचनात्मक प्रकार्यात्मक दृष्टिकोण या विश्लेषण की प्रधानता बढ़ती जा रही है। पहले यह समझा जाता था कि सामाजिक संरचना एक प्रतिमान ढाँचे को प्रस्तुत करती है और इसलिये संरचना का कोई भी संबंध उस संरचना को बनाने वाली इकाइयों के प्रकार्य से हो ही नहीं सकता, सामाजिक संरचना तो एक बाहरी रूप या स्वरूप है इसलिये उसमें प्रकार्य को सम्मिलित करने का प्रश्न नहीं उठता है। इसके विपरीत स्पेन्सर, दुर्खीम, मर्टन, पारसन्स, लीवी आदि ने यह मत व्यक्त किया कि सामाजिक संरचना व सामाजिक प्रकार्य एक-दूसरे से न केवल संबंधित बल्कि एक दूसरे पर निर्भर भी हैं। इन विद्वानों के अनुसार सामाजिक संरचना संतुलन व स्थिरता की एक स्थिति को व्यक्त करती है और वह संतुलन व स्थिरता तब तक संभव नहीं है जब तक सामाजिक संरचना को बनाने वाली विभिन्न इकाइयाँ या अंग अपने-अपने स्थान पर रहते हुये अपने-अपने पूर्व निश्चित कार्यों को न करते रहे। इसी प्रकार संरचनात्मक आधार के बिना इकाइयों के लिये अपने अपने प्रकार्यों को पूरा करना कदापि संभव नहीं है। इस दृष्टिकोण की मूल धारणा दो संकल्पनाओं संरचना तथा प्रकार्य के समन्वय पर आधारित है। अतः इस पद्धति के वास्तविक अर्थ को समझने के लिये इन दोनों मूल संकल्पनाओं का अर्थ जानना आवश्यक है संरचना का – तात्पर्य है कि प्रत्येक समाज में ये समिति, संस्थायें आदि एक निश्चित ढंग से व्यवस्थित रहती हैं जिसके फलस्वरूप समाज का एक बाहरी रूप या प्रतिमान प्रकट होता है इसी को सामाजिक .संरचना कहते हैं।

प्रकार्य का तात्पर्य है कि समाज को बनाने वाली इकाइयों की सामाजिक संरचना के अन्तर्गत एक स्थिति तथा उस स्थिति से संबंधित एक भूमिका होती है अर्थात् प्रत्येक इकाई से यह आशा की जाती है कि वह समाज व्यवस्था व संगठन बनाये रखने के लिये कुछ निश्चित कार्यों को करेगी इन कार्यों को प्रकार्य कहते हैं। उपरोक्त विवेचना के आधार पर संरचना तथा प्रकार्य के अर्थ को एक साथ इस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है। संरचना से तात्पर्य विभिन्न अंगों तथा तत्वों की किसी प्रकार की क्रमिक व्यवस्था है जबकि प्रकार्य का अर्थ है विभिन्न निर्माणक इकाइयों की व्यवस्था द्वारा निर्धारित एवं व्यवस्था को बनाये रखने वाले वे क्रियाकलाप जो संरचनात्मक निरन्तरता को बनाए रखने में योगदान कर रहे हों। 

समाज के अध्ययनों में जब इस दृष्टिकोण का उपयोग किया जाता है तब समाज की संरचना व समाज के निर्माणक तत्वों के प्रकार्यो का उचित अध्ययन आवश्यक रूप में किया जाता है। इसमें अध्ययन का मुख्य केन्द्र बिन्दु तो समाज ही रहता है फिर भी यह दृष्टिकोण समाज की विभिन्न संस्थाओं के प्रकार्यात्मक सहसंबंधों पर अधिक बल देता है, व्यक्ति या समूह जैसे परिवार आदि पर अधिक बल नहीं देता। मुख्य प्रश्न जो यह दृष्टिकोण उठाता है वह है- प्रत्येक नई पीढ़ी में समाज की सदस्यता बिल्कुल पलट जाने पर भी किस तरह समय के गुजरने के साथ सामाजिक जीवन बना रहता है और आगे बढ़ता जाता है, मुख्य उत्तर जो यह दृष्टिकोण देता है वह “सामाजिक जीवन बना रहता है क्योंकि समाज साधनों (संरचना) को प्राप्त करता है जिनके द्वारा वे (समाज) उन आवश्यकताओं (प्रकार्यो) की पूर्ति करते हैं जो कि या तो संगठित सामाजिक जीवन की पूर्व शर्त है अथवा परिणाम।

  1. संस्कृति का अर्थ- भौतिक संस्कृति एवं अभौतिक संस्कृति
  2. संस्कृति की विशेषताएँ (Characteristics of Culture in Hindi)

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