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नृतत्वशास्त्र के सिद्धांत | Principles of Ethnology in Hindi

नृतत्वशास्त्र के सिद्धांत
नृतत्वशास्त्र के सिद्धांत

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नृतत्वशास्त्र के सिद्धांत

नृतत्वशास्त्र के सिद्धांत- डार्विन ने 1871 में मनुष्य की उत्पत्ति पशु से या अधिक उपयुक्त शब्दों में कहें तो प्राइमेट (वानर) से प्रामाणिक रूप से सिद्ध की यूरोप, अफ्रीका, दक्षिणी पूर्वी और पूर्वी एशिया में मानव और आदिमानव के अनेक जीवाश्मों की अनुवर्ती खोजों ने विकास की कहानी को और अधिक सत्य सिद्ध किया। मनुष्य के उद्विकास की पाँच अवस्थायें निम्नलिखित हैं-

1. ड्राईपिथेसीनी अवस्था (Drypithecinae Stage)- वर्तमान वानर (ape) और मनुष्य के प्राचीन जीवाश्म अधिकतर यूरोप, उत्तर अफ्रीका और भारत में पंजाब की शिवालिक पहाड़ियों की तलहटी में पाये गये हैं।

2. आस्ट्रेलोपिथेसीनी अवस्था (Australopithecinaue Stage)- वर्तमान वानरों (Apes) से अभिन्न और कुछ अधिक विकसित जीवाश्म पश्चिमी और दक्षिणी अफ्रीका में प्राप्त हुये।

3. पिथेकैयोपिसीनी अवस्था (Pithecanthropicinae Stage)- जावा और पैकिंग की जातियों तथा उत्तर अफ्रीका के एटल्थ्रोपस लोगों के जीवाश्म अधिक विकसित स्तर के लगते है। ऐसा पता लगता है कि उस समय तक मनुष्य सीधे खड़े होने की शारीरिक क्षमता, प्रारंभिक वाक् शक्ति तथा हाथों के रूप में अगले पैरों का प्रयोग सीख चुका था।

4. नींडरथैलाइड अवस्था (Neanderthaloid Stage)- यूरोप, अफ्रीका और एशिया के अनेक स्थानों पर क्लैसिक नीडरथल, प्रोग्रेसिव नीडरथल, हीडेल वर्ग के रोडेशियाई और सोलोमानव आदि अनेक भिन्न-भिन्न जातियों के जीवाश्म प्राप्त हुये। वे सभी जीवाश्म एक ही मानव-वंश के हैं।

5. होमोसैपियन अवस्था (Homosapien Stage) – यूरोप, अफ्रीका और एशिया में ऐसे असंख्य जीवाश्म पाये गये हैं। जो मानव विकास के वर्तमान स्तर तक पहुँच चुके थे। उनका ढाँचा वर्तमान मानव जैसा ही है। इनमें सर्वाधिक प्राचीन जीवाश्म आज से 40 हजार वर्ष पुराना है।

“जीवाश्म बनने वाली अस्थियाँ चूँकि अधिक समय तक अक्षत रहती हैं बहुत लम्बे काल से नृतत्वशास्त्रियों ने जीवों की अन्य शरीर पद्धतियों की अपेक्षा मानव और उसकी निकटवर्ती जातियों के अस्थिशास्त्र का विशेष अध्ययन किया है। किन्तु जिसमें अस्थियों में माँसपेशियों का संपर्क ऐसा प्रभाव छोड़ता है, जिससे अस्थियों की गतिशीलता तथा उनकी अन्य क्रियापद्धतियों के संबंध में अधिक ज्ञान मिलता है। मानव का विकास हमारे प्राचीन पूर्वजों की कुछ परस्पर संबंध आदतों के कारण हुआ उदाहरण के लिये-

1. पैरों के बल चलना, सीधे खड़ा होना

2. हाथों का प्रयोग और उनसे औजार बनाना

3. सीधे देखना और इस प्रकार त्रिविमितीय दृष्टि का विकसित होना।

4. मस्तिष्क के तंतुओं का विस्तार और परस्पर संबंध बढ़ा, जो वाक् शक्ति के विकास की पूर्व दिशा है। इस क्षेत्र के अध्ययन हेतु तुलनात्मक शरीर रचना शास्त्र (anatomy) का ज्ञान आवश्यक है। इसलिये भौतिक नृतत्व शास्त्र में रुचि रखने वाले शरीरशास्त्रियों ने इसका बड़ा योग दिया।

मानव के सामाजिक संगठन, विशेषतया इसके जन्म और कार्यप्रणाली का अध्ययन सामाजिक नृतत्वशास्त्री करते हैं। विवाह वंशागति, उत्तराधिकार विधि- आर्थिक संगठन, धर्म आदि के प्राचीन रूपों की खोज के लिये अनुसंधानकारियों ने संसार की कबीलों और आदिम जातियों में अपनी विश्लेषणात्मक पद्धति का प्रयोग किया है। इस संदर्भ में चार विभिन्न स्थानों अफ्रीका, उत्तर और दक्षिण अमरीका, भारत और आस्ट्रेलिया आदि के कबीलों और मनुष्यों की ओर नृतत्वशास्त्रियों का ध्यान गया है। इन क्षेत्रों में हमे मानव व्यापार और संगठन का प्रायः सम्पूर्ण वर्णक्रम प्रदान किया। सामाजिक नृतत्वशास्त्र की उन्नति में भिन्न-भिन्न देशों ने भिन्न-भिन्न तरीकों से योगदान किया है। उदाहरण के लिये अंग्रेज नृतत्वशास्त्रियों ने डार्विन के जैवविकास सिद्धांत से प्रेरणा ग्रहण की इसलिये उसमें सामाजिक संगठन के विकास पर विशेष आग्रह पाया जाता था, जिससे अनेक रक्तसंबंधी तथा संरचनात्मक सिद्धांतों का जन्म हुआ। समाजशास्त्र में गतिशील समूह के अध्ययन के लिये स्थान विज्ञान (Topology) ने एक नयी दिशा दी है किंतु नृतत्वशास्त्रियों द्वारा प्रस्तुत व्यक्तित्व और संस्कृति के दिग्विन्यास संबंधी अध्ययन में स्थान विज्ञान, गणित और तर्कशास्त्र के प्रयोग की अभी प्रतीक्षा की जा रही है।

  1. अल्फ्रेड रेडक्लिफ- ब्राउन के प्रकार्यवाद की आलोचना
  2. पारसन्स के प्रकार्यवाद | Functionalism Parsons in Hindi
  3. मैलीनॉस्की के प्रकार्यवाद | Malinaski’s functionalism in Hindi

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