सामाजिक मानवशास्त्र की प्रकृति
सामाजिक मानवशास्त्र की प्रकृति – सामाजिक मानवशास्त्र की प्रकृति के सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद है। कुछ विद्वान इसे विज्ञान मानते हैं तो कुछ विद्वान इसे कला मानते हैं। इसकी प्रकृति को लेकर विद्वानों में द्वन्द्व चला करता है। प्रकृति को समझने से पूर्व विज्ञान के अर्थ को जानना आवश्यक है।
विज्ञान एक पद्धति है कोई विषय-सामग्री नहीं। यह इस बात पर ध्यान देती है कि कोई घटना वास्तव में कैसे घटित होती है क्या होना चाहिये’ का विज्ञान में कोई महत्व नहीं है। इस प्रकार स्पष्ट है कि विज्ञान का सम्बन्ध किसी विशेष विषय सामग्री से न होकर वैज्ञानिक तरीकों से प्राप्त किये गये सुसंगठित, सुव्यवस्थित क्रमबद्ध ज्ञान से है।
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लैंडिस कहते हैं कि “विज्ञान, विज्ञान ही है चाहे वह भौतिकशास्त्र हो या समाजशास्त्र विज्ञान, एकत्रित ज्ञान है जबकि कला समस्त उपलब्ध संसाधनों के आधार पर मनुष्य के मनोभावों का निरूपण है। कला सैद्धान्तिक जानकारी देती है, जबकि विज्ञान सैद्धान्तिक जानकारी को व्यावहारिक रूप में प्रस्तुत करता है। विज्ञान उन परीक्षणों पर आधारित होता है जो कि नियन्त्रित होते हैं तथा परिकल्पनाओं को सन्तुष्ट करते हैं। सामाजिक मानवशास्त्र के द्वारा आदिम समाज का अध्ययन किया जाता है। सामाजिक मानवशास्त्र में समाजों का उनकी सम्पूर्णता में अध्ययन किया जाता है। सामाजिक मानवशास्त्री आदिम लोगों की अर्थव्यवस्था का, उनके परिवार और नातेदारी संगठनों का, उनकी प्रौद्योगिकी तथा कलाओं का, सामाजिक व्यवस्थाओं के भागों के रूप में अध्ययन करता है। वे सरल और छोटे आदिम समाजों का अध्ययन कर समाजशास्त्री को आधुनिक जटिल सभ्य समाजों को समझने में सहायता पहुँचाता है। कलुखौन के अनुसार “मानवशास्त्र व्यक्ति के सामने ऐसा बड़ा दर्पण प्रस्तुत करता है जिसमें वह अपने को अपनी असंख्य (असीमित) विविधता में देख सकता है।
स्पष्ट है कि सामाजिक मानवशास्त्र के माध्यम से उपकल्पना बनाने में सहयोग प्राप्त होता है। उपकल्पनाएँ ही वैज्ञानिक पद्धति को निष्कर्ष प्रदान करती हैं। प्रत्येक सिद्धान्त का अन्तिम उद्देश्य होता है – वस्तुनिष्ठता प्राप्त करना । वास्तव में सामाजिक मानवशास्त्र की प्रकृति सहसम्बन्धात्मक एवं व्यावहारिक है।
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