सिन्धु घाटी की सभ्यता
सिन्धु घाटी की सभ्यता की खोज का श्रेय ‘रायबहादुर दयाराम साहनी’ को जाता है। उन्होंने ही पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग के महानिदेशक ‘सर जॉन मार्शल’ के निर्देश न में सन् 1921 में इस स्थान की खुदाई करवायी लगभग एक वर्ष बाद सन् 1922 में श्री राखल दास बनर्जी’ के नेतृत्व में पाकिस्तान के सिंध प्रान्त के ‘लरकाना’ जिले के मोहनजोदाड़ो में स्थित एक बौद्ध स्तूप की खुदाई के समय एक और स्थान का पता चला।
सिन्धु घाटी की सभ्यता की विशेषताएँ
1. नगर निर्माण योजना–
सिन्धु घाटी सभ्यता का स्वरूप नगरीय था। सिन्धु सभ्यता की नगर योजना की आधार सामग्री मोहनजोदड़ो, हड़प्पा, चन्हूदड़ों, कालीबंगा, लोथल, बणावली आदि से प्राप्त होती है।
सिन्धु सभ्यता नगरों में चौड़ी-चौड़ी सड़कें, पूर्व से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण दिशा की ओर थी। ये सड़कें एक दूसरे को प्रायः समकोण पर काटती थीं । इस प्रकार प्रत्येक नगर अनेक खण्डों (मुहल्लों) में बँट जाता था। एक सड़क 11 मीटर चौड़ी थी जो सम्भवतः राजमार्ग रही होगी। नगर की सभी सड़कें राजमार्ग से मिलती थीं । नगरों में जल निकास का भी समुचित प्रबन्ध था। सड़कों के किनारे नालियाँ थी, जो पक्की एवं ढकी होती थीं। इनमें मेनहोल भी बनाया जाता था।
(i) भवन निर्माण – भवनों को दो भागों में विभक्त कर सकते हैं-
(अ) साधारण भवन— इन भवनों का आकार आवश्यकतानुसार छोटा एवं बड़ा होता था। ये भवन एक से दो मंजिल तक के होते थे। ऊपर की मंजिल पर जाने के लिए ईटों एवं पत्थरों की सीढ़ियाँ होती थीं। भवन में खिड़कियाँ, रोशनदान, दरवाजे, रसोई घर, कुआँ, स्नानागृह और आँगन होता था। दरवाजे व छत लकड़ी के बने होते थे। दीवारें बहुत मोटी बनाई जाती थीं। फर्श ईंट, खड़िया एवं गारे से बनाया जाता था । भवनों में जल निकास की उचित व्यवस्था थी। घर के दरवाजे मुख्य सड़क पर न खुलकर घर के पीछे खुलते थे।
(ब) राजकीय एवं सार्वजनिक भवन— मोहनजोदड़ो में राजकीय एवं सार्वजनिक भवन के भग्नावशेष भी प्राप्त हुए हैं। एक विशाल भवन 71 मीटर लम्बा और इतना ही चौड़ा है इसमें एक विशाल कक्ष भी है। जिसकी छत 20 स्तम्भों पर टिकी हुई है। इसके फर्श पर अनेक चौकियाँ बनी हुई है। सम्भवतः इसका प्रयोग विचार विनिमय के लिए होता होगा।
(ii) विशाल स्नानागार- विशाल स्नानागार एक विशाल भवन में स्थित है। इसका जलाशय आयताकार है। यह 39 फीट चौड़ा एवं 8 फीट गहरा है। इसके प्रत्येक ओर जल तक पहुँचने के लिए ईटों की सीढ़ियाँ हैं । जलाशय की दीवार एवं फर्श पक्की ईटों से बना है। जलाशय में जल निकास की समुचित व्यवस्था की गई है। इसके चारों ओर बरामदे हैं तथा इनके पीछे कमरे बने हुए हैं।
(ii) अन्नागार— अन्नागार की लम्बाई एवं चौड़ाई क्रमशः 18 मीटर एवं 7 मीटर है। इसके अतिरिक्त मोहनजोदड़ो में सार्वजनिक भोजनालयों के अवशेष भी प्राप्त हुए है।
2. सामाजिक जीवन-
उत्खनन से प्राप्त सामग्री एवं स्रोतों से सिन्धु सभ्यताकालीन सामाजिक स्थिति—तत्कालीन खान-पान, वेशभूषा, आभूषण, प्रसाधन सामग्री आदि के विषय में महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त हुई है। जो निम्नलिखित इस प्रकार है-
(i) सामाजिक संगठन – सिन्धु सभ्यता का समाज मुख्यतः वर्गहीन समाज ही था। समाज मुख्यतः व्यापार प्रधान ही था । इसमें मुख्यवर्ग–व्यापारी, योद्धा, श्रमजीवी, विद्वान आदि थे। सम्भवतः इस सभ्यता के अन्तर्गत समाज ‘मातृप्रधान था।
(ii) कृषि फसल एवं आहार – सिन्धु सभ्यता के लोग मुख्यतः नौ प्रकार की फसल उगाते थे। मुख्य फसल एवं आहार-गेहूँ, जौ, चावल, मटर, दूध, सब्जियाँ, फल तथा भेड़, गाय, मछली, मुर्गो आदि जन्तुओं के माँस थे ।
(iii) वेशभूषा एव आभूषण – शरीर पर दो वस्त्र धारण किए जाते थे। प्रथम एक आधुनिक शाल के समान कपड़ा होता था जिसे कन्धे के ऊपर तथा दाहिनी भुजा के नीचे से निकालकर पहनते थे। जिससे दाहिना हाथ कार्य करने के लिए स्वतंत्र रहे। दूसरा वस्त्र शरीर पर नीचे पहना जाता था, जो आधुनिक धोती के समान होता था। स्त्रियों और पुरुषों के वस्त्रों में विशेष अन्तर नहीं था। साधारणतः सूती कपड़े पहने जाते थे परन्तु ऊनी वस्त्रों का भी प्रचलन था।
स्त्री-पुरुष दोनों ही अंगूठी, कड़े, कंगन, कण्ठाहार, कुण्डल आदि पहनते थे। स्त्रियाँ-चूड़ियाँ, कर्णफूल, हंसली, भुजबन्द, करधनी आदि भी पहनती थीं। ये आभूषण सोने, चाँदी, हाथी दाँत, हीरों आदि से बनाये जाते थे। निर्धन व्यक्ति ताँबे, मिट्टी, सीप आदि के आभूषण पहनते थे।
(iv) प्रसाधन सामग्री- स्त्रियों को प्रसाधन अत्यंत प्रिय था । वह लिपस्टिक का प्रयोग करती थीं। लिपस्टिक चन्हूदड़ों से प्राप्त हुई है।
(v) आमोद-प्रमोद के साधन– सिन्धु सभ्यता के निवासियों के आमोद-प्रमोद के प्रमुख साधन जुआ खेलना, शिकार खेलना, नाचना, गाना, मुर्गों की लड़ाई देखना आदि था।
(vi) औषधियाँ– सिन्धु सभ्यता निवासी विभिन्न औषधियों से परिचित थे। इस सभ्यता में खोपड़ी की शल्य चिकित्सा के उदाहरण कालीबंगा एवं लोथल से प्राप्त होते हैं।
(vii) गृहस्थी के उपकरण— इस सभ्यता के निवासी घड़े, कलश, थाली, गिलास, चम्मच, मिट्टी के कुल्हड़ का प्रयोग करते थे। कभी-कभी सोने, ताँबे एवं चाँदी के बर्तनों का भी प्रयोग करते थे।
3. आर्थिक जीवन –
उत्खनन से प्राप्त भग्नावशेषों से पता चलता है कि सिन्धु सभ्यता के निवासियों की आर्थिक स्थिति अत्यन्त सुदृढ़ थी।-
(i) कृषि – कृषि इनका मुख्य व्यवसाय था। गेहूँ, जौ, कपास, मटर, तिल, चावल एवं अनेक फल भी उगाये जाते थे।
(ii) पशु-पालन – सिन्धु सभ्यता के निवासी गाय, बैल, भेड़, बकरी, कुत्ता आदि पालते थे।
(ii) कपड़े बुनना – सिन्धु निवासी सम्भवतः विश्व के सूत कातने तथा कपड़े बुनने वाले प्रथम लोग थे।
(iv) उद्योग एवं अन्य व्यवसाय – सिन्धु निवासी शिल्पकला में अत्यन्त दक्ष थे। मिट्टी के असंख्य बर्तन खुदाई से प्राप्त हुए हैं जो अत्यन्त सुन्दर एवं आकर्षक हैं। धातुओं से सुन्दर आभूषण भी बनाए जाते थे। इसके अतिरिक्त सीप, शंख, हाथी दाँत आदि के भी आभूषण बनाए जाते थे।
(v) व्यापार – इस सभ्यता के निवासियों का विदेशों से भी व्यापारिक सम्बन्ध था। इस सभ्यता के प्रमुख बन्दरगाह-लोथल एवं सोत्काकोह थे। इनका विदेशों से जल एवं थल दोनों मार्गों से सम्पर्क था। थल पर बैलगाड़ियों तथा जल में जहाजों का प्रयोग किया जाता था।
4. धार्मिक जीवन –
सिन्धु निवासी निम्नलिखित देवी-देवताओं की आराधना करते थे-
(i) वृक्ष-पूजा – पौराणिक काल से पीपल, नीम, आँवला आदि वृक्षों की पूजा समाज में की जाती है तथा इससे सम्बन्धित अनेक त्योहारों को मान्यता भी दी गई है। सिंधु घाटी की सभ्यता में भी वृक्ष पूजा का चलन था तभी वहाँ से प्राप्त ठीकरों पर अनेक वृक्षों की आकृतियाँ अंकित हैं। इनसे पत्तों के आधार पर पीपल के वृक्ष की पहचान तो हो जाती है पर यह असम्भव नहीं कि इसी प्रकार अन्य वृक्षों की भी महत्ता इस समय रही हो । एक ठीकरे पर बनी आकृति में एक सींगवाले पशु के दो सिर बने हैं जिनके ऊपर पीपल की कोमल पत्तियाँ फूटती हुई दिखती हैं। दीर्घायु, स्वास्थ्य के लिए लाभकारी होने के कारण आज की तरह उस समय भी पीपल के वृक्ष के सम्भवतः पूज्य मान लिया गया होगा। सम्भवतः तब से अब तक उसकी धार्मिक महत्ता बनी रही।
ऋग्वेद में अश्वत्थ की महत्ता का उल्लेख भी पीपल का ही बोधक है। दूसरी मुहर पर देवता की मुद्रा नग्न मूर्ति बनी है। उनके दोनों ओर पीपल की दो शाखाएँ अंकित हैं। यहाँ की एक मुहर वन्दना की में झुकी एक मूर्ति है जिसके बाल लम्बे हैं। उसके पीछे मानव के चेहरे वाले वृष तथा बकरे की मिली-जुली आकृति अंकित है। सामने पीपल का पेड़ है लगता है कि ये पशु वृक्ष देवता के वाहन के रूप में अंकित किए गए हैं। शुंगकला में सांची तथा भरहुत में ऐसे वृक्ष देवियों की अनेक आकृतियाँ अंकित हैं। जिन्हें दोहद की अवस्था में अंकित यक्षिणी कहा जाता है। इन भिन्नताओं के आधार पर डॉ. मुखर्जी के अनुसार वहाँ पर दो प्रकार की वृक्ष-पूजा प्रचलित थी-एक वृक्ष की पूजा तथा दूसरे वृक्ष अधिदेवता की पूजा।
(ii) पशु-पूजा— वहाँ की मुहरों पर अनेक प्रकार के पशुओं का अंकन मिला है। विविधता और संख्या में पशु अंकन की अधिकता को देखकर ऐसा लगता है कि ये पशुओं को देवता का अंश मानते थे। यह विश्वास है कि पहले पशुओं के रूप में देवताओं को स्वीकार किया जाता था। बाद में इनका मानवीय रूप अंगीकार किया गया। इसी से प्रत्येक पुरातन सभ्यता में पशु-पूजा का चलन मिलता है। इसका प्रमाण है कि प्रायः प्रत्येक देवता के साथ एक वाहन का जुड़ा होना आज भी स्वीकार किया जाता है। दूसरे इस सभ्यता में हम देखते हैं मनुष्यों के रूप में निर्मित देवताओं के सिर पर सींग धारण करने की कल्पना यहाँ की गयी है। सींग को शक्ति का प्रतीक माना जाता था इसी से इसको मानव रूप धारी देव भी कहते थे। इसीलिए आज जिन्हें हम देवतावाहन मानते हैं जैसे—गैंडा, बैल, हाथी, भैंस, कुत्ता आदि इनके भी चित्रण यहाँ की मुहरों पर मिलते हैं।
बैल की पूजा विशेष रूप से यहाँ होती होगी क्योंकि इसके विविध प्रकारों का अंकन यहाँ की मुहरों पर बहुत मात्रा से दिखता है। लगता है शिव के साथ बैल का सम्बन्ध इसी सभ्यता से शुरू हुआ था क्योंकि यहाँ इन दोनों की साथ आकृतियाँ मुहरों पर बहुलता से अंकित मिलती हैं। कुछ पशु ऐसे भी बने हैं जो काल्पनिक प्रतीत होते हैं। आज भी उनका वास्तविक शिवरूप प्राप्त नहीं होता। इनमें हम ऐसे पशुओं को ले सकते हैं जिनकी रचना विभिन्न पशुओं के अंगों के योग से की गई हैं। अन्यथा ये मानव और पशु की मिली-जुली मूर्ति हो । एक ठीकरे पर मानव सिर से युक्त बकरे की आकृति है। एक ठीकरे पर ऐसा पशु है जिसका सिर गैंडे का, पीठ किसी दूसरे पशु की, पूँछ किसी अन्य पशु की है। कुछ पशुओं की ऐसी आकृतियाँ यहाँ बनी हैं जिनके सामने नाद बना है और वे उसमें से कुछ खाते हुए दिखते हैं। कितने पशुओं की खोपड़ी धूपदानी की तरह कटोरानुमा बनी है। इनमें सम्भवतः पूजा के समय धूप जलाया जाता होगा क्योंकि उनके किनारों पर धुएँ के चिह्न बने हैं। लगता है कि पशु-पूजन में धूप जलाने का भी प्रचलन था।
(iii) शिव की पूजा- मोहनजोदड़ो से मैके को एक मुहर प्राप्त हुई जिस पर अंकित देवता को मार्शल ने शिव का आदि रूप माना आज भी हमारे धर्म में शिव की सर्वाधिक महत्ता है।
(iv) मातृ देवी की पूजा— सैन्धव संस्कृति से सर्वाधिक संख्या में नारी मृण्य मूर्तियाँ मिलने से मातृ देवी की पूजा का पता चलता है। यहाँ के लोग मातृ देवी की पूजा पृथ्वी की उर्वरा शक्ति के रूप में करते थे (हड़प्पा से प्राप्त मुहर के आधार पर)।
(v) मूर्ति पूजा– हड़प्पा संस्कृति के समय से मूर्ति पूजा प्रारम्भ हो गई थी। हड़प्पा कुछ आकृतियाँ प्राप्त हुई है। इसी प्रकार कुछ दक्षिण की मूर्तियों में धुयें के निशान बने हुए हैं जिसके आधार पर यहाँ मूर्ति पूजा का अनुमान लगाया जाता है।
हड़प्पा काल के बाद उत्तर वैदिक युग में मूर्ति पूजा के प्रारम्भ का संकेत मिलता है हालांकि मूर्ति पूजा गुप्त काल से प्रचलित हुई जब पहली बार मन्दिरों का निर्माण प्रारम्भ हुआ।
(vi) जलपूजा– मोहनजोदड़ो से प्राप्त स्नानागार के आधार पर।
(vii) सूर्य पूजा— मोहनजोदड़ो से प्राप्त स्वास्तिक प्रतीकों के आधार पर। स्वास्तिक प्रतीक का सम्बन्ध सूर्य पूजा से लगाया जाता है।
(viii) नाग पूजा— मुहरों पर नागों के अंकन के आधार पर।
5. मृतक संस्कार –
सिन्धु निवासी धार्मिक विश्वासों के आधार पर तीन प्रकार से मृतकों का अन्तिम संस्कार करते थे।-
(i) पूर्ण समाधि— मृतक को जमीन में गाड़ दिया जाता था। वहाँ समाधि बनाई जाती थी। लोथल में दो कंकाल एक ही कब्र में दफनाए मिले हैं।
(ii) आंशिक समाधि— इसमें मृतक को पहले पशु-पक्षियों का आहार बनने के लिए खुले स्थान पर छोड़ा जाता था तथा बाद में उसकी अस्थियों को पात्र में रखकर भूमि में रखा जाता था।
(iii) दाह कर्म – इसमें शव को जलाकर उसकी राख तथा अस्थियों को कलश में रखकर भूमि में गाड़ दिया जाता था। मोहनजोदड़ो में ऐसे कलश प्राप्त हुए हैं।
6. कला –
कला एवं ललितकला की जानकारी हमें निम्नलिखित के द्वारा प्राप्त होती है-
(i) भवन निर्माण कला – विशाल अन्नागार, मकान, सुनियोजित नगर आदि उनकी कला को प्रमाणित करते हैं।
(ii) मूर्तिकला – सिन्धु निवासी मूर्तियाँ बनाने में कुशल थे। उस समय की धातु, पाषाण एवं मिट्टी की मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं जिनमें धार्मिक देवी-देवताओं, उपासिकाओं आदि की प्रमुख हैं।
(iii) धातु कला – सिन्धु निवासी सोने, चाँदी, ताँबे. आदि के आभूषणों का निर्माण करते थे। मोहनजोदड़ो से प्राप्त कांसे की नर्तकी की मूर्ति इसका मुख्य उदाहरण है।
(iv) चित्रकला – इस सभ्यता के लोगों को चित्रकला का भी ज्ञान था। जिसकी पुष्टि प्राप्त बर्तनों एवं मुहरों पर चित्रित चित्रों से होती है।
(v) संगीत एवं नृत्यकला – संगीत सम्बन्धी उपकरण ढोल, तबला आदि खुदाई से प्राप्त हुए हैं। नृत्य मुद्रा में स्त्री की धातु मूर्ति इस बात का परिचायक है कि वे नृत्य कला में रुचि रखते थे ।
(vi) ताम्रपत्र निर्माण कला – सिन्धु सभ्यता कालीन अनेक ताम्रपत्र प्राप्त हुए हैं जो वर्गाकार हैं।
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