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आर्थिक उदारीकरण का अर्थ, महत्त्व या लाभ, हानियाँ या सीमाएं, | भारतीय अर्थव्यवस्था पर उदारीकरण का प्रभाव

आर्थिक उदारीकरण का अर्थ
आर्थिक उदारीकरण का अर्थ

आर्थिक उदारीकरण का अर्थ

आर्थिक उदारीकरण का अर्थ-“आर्थिक उदारीकरण से आशय अर्थव्यवस्था की उस स्थिति से है, जिसके अन्तर्गत प्रतियोगिता को प्रोत्साहित करने की दृष्टि से नियमनों एवं नियन्त्रण को समाप्त कर दिया जाता है। दूसरे शब्दों में उदारीकरण अर्थव्यवस्था की एक ऐसी स्थिति होती है, जिसके अन्तर्गत व्यापारिक एवं औद्योगिक क्रियाओं के निष्पादन पर लगाये गये विभिन्न प्रतिबन्ध एवं नियन्त्रण समाप्त कर दिये जाते हैं या उन्हें शिथिल कर दिया जाता है। आर्थिक उदारीकरण में निम्नलिखित कदम उठाये जाते हैं-

(1) लाइसेंस, कोटा-परमिट प्रणाली की समाप्ति

(2) उद्योगों की स्थापना की अनुमति देने में सरलता एवं

(3) आयात-निर्यात नियन्त्रण में शिथिलता

(4) विदेशी पूँजी के विनियोग में रुकावटें दूर करना शीघ्रता

(5) निजी क्षेत्र को प्रोत्साहन एवं सार्वजनिक क्षेत्र का संकुचन

(6) आधुनिक तकनीकी को प्रोत्साहन

(7) अनावश्यक आर्थिक कानूनों की समाप्ति

(8) पूँजी निर्गमन नियन्त्रण की समाप्ति

(9) कर प्रणाली का सरलीकरण एवं कर की दरों में कमी

(10) राष्ट्रीयकरण की नीति की समाप्ति एवं सरकारी उपक्रमों में निजी क्षेत्र की सहभागिता बढ़ाना।

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भारतीय अर्थव्यवस्था पर उदारीकरण का प्रभाव (Effect of liberalization on Indian Economy)

भारतीय अर्थव्यवस्था में उदारवादी नीति का पदार्पण 1985 में ही हुआ था जब 31 उद्योग समूहों पर से लाइसेंस व्यवस्था को उठा लिया गया, लेकिन आंशिक उदारवाद की यह नीति पूर्ण विकसित 1991 में ही हुई। जुलाई 1991 में नई औद्योगिक नीति की घोषणा की गई। इस नीति में उदारीकरण को बढ़ावा दिया गया। इस नीति की प्रमुख बातें निम्नलिखित थां-

1. औद्योगिक लाइसेंस के क्षेत्र को कम करना। 2. प्रक्रिया, नियमों आदि को सरल बनाना। 3. एकाधिकार एवं प्रबन्धित व्यापार एक्ट (MRTPAct) में सुधार करना। 4. सार्वजनिक क्षेत्र के लिए रिजर्व क्षेत्र में कमी। 5. लोक उद्यमों की इक्विटी का विनिवेश। 6. घरेलू औद्योगिक इकाइयों में विदेशी इक्विटी सहयोग की सीमा में वृद्धि।

नीति के उपरोक्त बिन्दुओं का प्रभाव भारतीय अर्थव्यवस्था पर सुखद रहा। 1990 के दशक के आर्थिक सुधारों के परिणामस्वरूप विदेश निवेश के प्रवेश पर लगी बाधाओं को समाप्त कर दिया गया, व्यापार में खुलापन आ गया, विदेशी तकनीकी के प्रवेश द्वारा को खोल दिया गया तथा पूँजी बाजार के प्रवेश पर लगे प्रतिबन्धों को हटा लिया गया। इन सब उपायों से ऐसी आशा की गई कि औद्योगिक उत्पादन की दर लगातार ऊँची रहेगी।

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आरम्भिक वर्षों में औद्योगिक उत्पादन की विकास दर काफी बढ़ी। उत्पादन का सूचकांक 1992-93 में मात्र 2.3% बढ़ा था। 1994-95 में 9.1% तथा 1995-96 में 13.0% तक बढ़ा। इसके पश्चात् सूचकांक की वृद्धि दर घटने लगी। 1996-97 में 6.3% 1998-99 में 4.1%, 1999-2000 में कुछ बढ़कर 6.7% तथा 2000-01 में 5.0% । इस प्रकार 2001-02 में अप्रैल-दिसम्बर की अवधि में पिछले दस वर्षों की तुलना में सबसे नीची दर रही 2-3% है।

औद्योगिक उत्पादन की इस धीमी वृद्धि दर का एक कारण था विश्व अर्थव्यवस्था का धीमा विकास । आन्तरिक कारणों में तीन प्रमुख रहे हैं- श्रम कानून की कठोरता, लघु क्षेत्र के लिए रिजर्व उद्योग तथा व्याज की ऊँची दर। इसी प्रकार विनिर्माण, बिजली तथा खनन सभी क्षेत्रों में वृद्धि दर 1992-93 से 1995-96 तक बढ़ती गई परन्तु इसके बाद सभी क्षेत्रों में वृद्धि की दर धीमी पड़ गई। सरकार को उदारीकरण को सफल बनाने के लिए कुछ निम्नलिखित प्रयास करने चाहिए-

1. आधारभूत संरचना का विकास। 2. उत्पादकों का मूल्य तय करने में स्वतन्त्रता । 3. निजी क्षेत्र में और निवेश के अवसर देना। 4. निजी क्षेत्र में लगे नियन्त्रणों का कम करना या हटाना। 5. विश्वव्यापी प्रतियोगिता में सम्मिलित होना। 6. रोजगार के अवसरों में वृद्धि करना। 7. घरेलू उत्पादन में तकनीक को प्रोत्साहित करना। 8. हीनार्थ प्रबन्धन पर नियन्त्रण करना। 9. कृषि का आधुनिकीकरण करना। 10. सरकारी हस्तक्षेप को अत्यन्त कम करना। 11. माल व सेवाओं के आने जाने पर लगे प्रतिबन्धों को हटाना। 12. योजनाओं के माध्यम से आर्थिक सुधार करना।

निष्कर्ष स्वरूप यह कहा जा सकता है कि भारीतय अर्थव्यवस्था पर उदारीकरण का प्रभाव 1990 के दशक में तो उत्साहजनक रहा है परन्तु हाल ही में जनित वैश्विक मंदी के दौर में हतोत्साहित करने वाला रहा है। यह उदारीकरण की आंशिक असफलता को भी सिद्ध करता है। परन्तु भारतीय परिवेश में उदारीकरण लाभदायक रहा और सरकार को उदारीकरण के परम्परागत रूप में छोड़कर अपनी अवस्था के अनुरूप उपरोक्त बिन्दुओं का अनुसरण करके अपनाया जाना चाहिए।

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आर्थिक उदारीकरण के लाभ या महत्त्व (Importance)

1. उपभोक्ताओं को वस्तु सस्ती उपलब्ध होगी तथा अर्थव्यवस्था बाजारोन्मुख होगी-निजी क्षेत्र के प्रोत्साहन की नीति भारत की मिश्रित अर्थव्यवस्था को अधिक बाजार उन्मुख बनाने में सहायक सिद्ध होगी। अनेक उद्योगों पर से प्रत्यक्ष नियन्त्रण (लाइसेंस कोटा) हटा लिए जाने से निजी व सार्वजनिक क्षेत्र में आपसी प्रतिस्पर्द्धा की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन प्राप्त हुआ है, जिससे बाजार तन्त्र अधिक प्रभावपूर्ण बन गया है। निजी व सार्वजनिक क्षेत्र आपसी प्रतिस्पर्द्धात्मक तेवर तथा सार्वजनिक क्षेत्र पर उठ रहे सरकारी संरक्षण की नीति के कारण मूल्य तन्त्र की क्रियाशीलता के आधार पर दोनों क्षेत्रों द्वारा अधिक कुशलता से वस्तुओं व सेवाओं का उत्पादन किया जायेगा, जिससे उपभोक्ताओं की वस्तुएँ सस्ती उपलब्ध होने के साथ ही साथ अर्थव्यवस्था और अधिक बाजार उन्मुख हो जायेगी।

2. कृषि जन्य पदार्थों का निर्यात बढ़ाने का अवसर – विकसित देशों द्वारा कृषि पर दी जा रही सरकारी सहायता में कमी से विश्व की मण्डियों में कुछ किस्म के भारतीय खाद्यान्नों की माँग बढ़ेगी। इससे भारत को कृषि जन्य पदार्थों का निर्यात बढ़ाने का अवसर मिलेगा।

3. विदेशी पूँजी निवेश में वृद्धि – आर्थिक उदारवाद एवं निजीकरण की अवधारणा के बाद भारत में विदेशी पूँजी निवेश तीव्र गति से बढ़ा है। विदेशी निवेश में अमरीका तथा ब्रिटेन के साथ जर्मनी, स्विट्जरलैण्ड, हॉलैण्ड, जापान, फ्रांस और सिंगापुर की भागीदारी भी बढ़ी है।

4. विदेशी मुद्रा कोष में वृद्धि-आर्थिक सुधार प्रयत्नों के अपेक्षित परिणाम बेहतर निर्यात और बेहतर विदेशी निवेश ने भारतीय विदेशी मुद्रा के कोष को 18 बिलियन डॉलर तक पहुँचा दिया और स्वर्ण भण्डार को 4 बिलियन डॉलर तक पहुँचा दिया।

5. निजी क्षेत्र को बढ़ावा- आर्थिक उदारीकरण की नीति में निजी क्षेत्र के विनियमन और नियन्त्रण में ढील देने के लिए पुरानी नीति के अन्तर्गत निजी क्षेत्र के कार्य संचालन पर लगे अनेक प्रतिबन्ध हटा लिए गये हैं या ढीले कर दिये गये हैं, ताकि विनियोग, उत्पादन, निर्यात आदि क्षेत्र के सम्बन्ध में निजी क्षेत्र अपनी इच्छानुसार कार्य कर सकें। नयी आर्थिक नीति में वर्तमान आर्थिक सुधार करने के कारण निजी क्षेत्र को अधिक फैला दिया गया है। 6. भुगतान सन्तुलन में स्थिरता – भुगतान सन्तुलन की स्थिति, जो 1919 में करीब-करीब लड़खड़ाने के स्तर पर पहुँच गयी थी, वह अब धीरे-धीरे स्थिर हो गयी है।

7. घाटे के बजट पर नियन्त्रण- नयी आर्थिक नीति के फलस्वरूप बजटीय घाटे एवं मुद्रास्फीति की दर को नियन्त्रित रखने में सहायता मिलती है। भारत में सब्सिडी की वजह से बजटीय घाटा तो कम नहीं हुआ, लेकिन मुद्रास्फीति की दर 17% से घटकर 5-7% तक आ गयी है।

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आर्थिक उदारीकरण नीति की हानियाँ या सीमाएं –

1. मूलभूत समस्याओं का समाधान नहीं- निजीकरण तथा आर्थिक उदारवाद की नीति के बाद भारत में विदेशी निवेश तथा बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की भागीदारी बढ़ी है, लेकिन यह भागीदारी पूँजी-बहुल टेक्नोलॉजी के रूप में ही बढ़ी है तथा श्रम बहुल टेक्नालॉजी में नहीं। फलतः बेरोजगारी की समस्या निरन्तर विकराल रूप धारण करती जायेगी, इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं है। विश्व बैंक द्वारा जारी रिपोर्ट ‘विश्व की आर्थिक सम्भावना और विकासशील देश’ में कहा गया है कि यद्यपि बाजार में बहिर्मुखी अर्थव्यवस्था हेतु अथक प्रयास किये गये हैं, फिर भी इस दशक के अन्त तक भारत की आर्थिक स्थिति में भारी गिरावट आ सकती है, जिसका गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम पर गम्भीर प्रभाव पड़ सकता है। रिपोर्ट के अनुसार “यदि भारत में निर्यात वृद्धि नहीं होती या विदेशी निवेश में कमी होती है, तो आर्थिक वृद्धि पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। “

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2. निर्यात में अपेक्षित वृद्धि नहीं – निर्यात को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से हमने मुद्रा का अवमूल्यन कर दिया, किन्तु निर्यात में अपेक्षित वृद्धि नहीं हो सकी है। निर्यात का लक्ष्य हमने 14 प्रतिशत रखा था, किन्तु वह मात्र 6-7 प्रतिशत तक ही बढ़ पाया है और जुलाई 1991 से अब तक कुल मिलाकर मुद्रा का अवमूल्यन लगभग 48 प्रतिशत हो गया है।

3. गरीब और अधिक गरीब- नयी आर्थिक उदारीकरण की नीति के फलस्वरूप अमीरी और गरीबी की खाई और अधिक बढ़ने की सम्भावनाएँ हैं, क्योंकि एकाधिकारी गतिविधियों व पूँजीपतियों के लाभों में वृद्धि होगी और गरीब तबका महँगाई व बेरोजगारी के कारण और अधिक गरीब होगा, जो स्वतन्त्र भारत की जनता की आकांक्षाओं के विपरीत है।

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