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भारत की 1991 की औद्योगिक नीति- मुख्य तत्व, समीक्षा तथा महत्त्व

भारत की 1991 की औद्योगिक नीति
भारत की 1991 की औद्योगिक नीति

भारत की 1991 की औद्योगिक नीति (Industrial Policy)

भारत की 1991 की औद्योगिक नीति- भारत में उद्योगों कुशलता, विकास और तकनीकी स्तर को ऊँचा करने और विश्व बाजार में उन्हें प्रतियोगी बनाने की दृष्टि से 1991 में नई औद्योगिक नीति 1991 की घोषणा 24 जुलाई, 1991 को लोक सभा में तत्कालीन उद्योग राज्य मन्त्री पी. जे० थुंगन द्वारा की गयी। औद्योगिक नीति, 1991 में प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित रहे-

1. औद्योगिक अनुज्ञापन से मुक्ति – 1991 की नीति में 18 प्रमुख उद्योगों को छोड़कर अन्य सभी उद्योगों को अनुज्ञापन से मुक्त किया गया था, लेकिन बाद में चार अन्य उद्योगों को लाइसेन्स लेने की आवश्यकता से मुक्त कर दिया गया जिससे लाइसेन्सिंग की आवश्यकता से उद्योगों की संख्या 14 रह गयी। इसके बाद भी 1997 ई० में केन्द्र सरकार ने उदारीकरण की दशा में एक कदम और आगे बढ़ाते हुए 5 अन्य उद्योगों को तथा फिर बाद के तीन वर्षों में चार और उद्योगों को अनिवार्य अनुज्ञापन की परिधि से बाहर कर दिया है। इस प्रकार अब केवल 5 उद्योगों के लिए ही अनुज्ञापन लेना अनिवार्य रहा है।

वे उद्योग जिनके लिए अब लाइसेन्स लेना अनिवार्य है- (1) एल्कोहालिक पेयों का आसवन व इनसे शराब बनाना (2) तम्बाकू के सिगार व सिगरेट तथा विनियमित तम्बाकू के अन्य विकल्प (3) इलेक्ट्रॉनिक एयरोस्पेस व सुरक्षा उपकरण (4) औद्योगिक विस्फोटक-डिटोनेटिव फ्यूज, सेफ्टीफ्यूज, गन-पाउडर, नाइट्रोसेल्यूलोज तथा माचिस साहित औद्योगिक विस्फोटक सामग्री (5) खतरनाक रसायन।

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2. विदेशी पूँजी निवेश सीमा में परिवर्तन- दिसम्बर, 1996 ई० तक 48 उच्च प्राथमिकता वाले क्षेत्रों में विदेशी पूँजी निवेश की सीमा को 51 प्रतिशत तक किया गया है। इससे पूर्व 1991 ई० की नीति में यह सीमा केवल 34 उद्योगों के लिए निर्धारित की गयी थी।

खनन क्रियाओं से सम्बन्ध रखने वाले तीन उद्योगों में विदेशी पूँजी निवेश की सीमा को 74 प्रतिशत तक सरकार द्वारा अनुमति प्रदान कर दी गयी है। इन उद्योगों के अतिरिक्त गैर-सूचीगत कम्पनियों में विदेशी संस्थागत निवेशक एक कम्पनी की पूँजी में 10 प्रतिशत तक (पूर्व में 5 प्रतिशत) निवेश कर सकते हैं।

3. विदेशी तकनीक- विदेशी तकनीक को आवश्यकता के अनुरूप प्रोत्साहन प्रदान करने के लिए भारत सरकार ने विदेशी पूँजी निवेश के साथ विदेशी तकनीक प्राप्ति की अनिवार्यता को समाप्त कर दिया। भारतीय कम्पनियाँ अपनी तकनीक अपनी सहयोगी विदेशी कम्पनियों से अदला बदली करने के लिए स्वतन्त्र कर दी गयीं। इस स्वतन्त्रता से भारतीय कम्पनियाँ विश्व बाजार में प्रतियोगिता करने की स्थिति में आ गयीं।

4. सार्वजनिक क्षेत्र – सार्वजनिक क्षेत्र हमारे विकास का मुख्य केन्द्र है। सार्वजनिक क्षेत्रों की उन्नति पर ही हमारे देश का विकास निर्भर करता है। अतः सार्वजनिक क्षेत्र के विकास के लिए इस योजना में यह प्रावधान किया गया कि सार्वजनिक क्षेत्र की जिन इकाइयों का काम काज ठीक नहीं है उन्हें औद्योगिक एवं वित्त पुनर्निर्माण बोर्ड को सौंपा जाएगा। भविष्य में सार्वजनिक क्षेत्र के विकास को निम्न प्राथमिकता दी जाएगी-

(i) आवश्यक आधारभूत वस्तुयें या सेवायें।

(ii) खनिज व तेल संसाधनों का विकास।

(iii) वे क्षेत्र जो देश के दीर्घकालीन विकास के लिए आवश्यक हैं।

(iv) वे क्षेत्र जहाँ निजी क्षेत्र का विनियोग कम है।

(v) तथा उन वस्तुओं का निर्माण जो सामरिक महत्त्व की हैं।

सरकार सबसे पहले उन उद्योगों को मजबूत करेगी जो उच्च प्राथमिकता वाले हैं या जो अच्छा या उचित लाभ कमा रहे हैं या जो रिज़र्व में हैं। सार्वजनिक क्षेत्रों के लिए आरक्षित कुछ क्षेत्रों को निजी क्षेत्रों के लिए भी खोला जाएगा ताकि प्रतियोगिता की भावना उत्पन्न की जा सके। सार्वजनिक कम्पनी की कुछ अंशपूँजी छ भाग म्यूचुअल फण्डों, वित्तीय संस्थाओं तथा सीधे निवेशकों को बेचा जाएगा।

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5. सरकारी खनिज उद्योगों को निजी क्षेत्र के लिए खोलना- 26 मार्च, 1993 ई० से उन 13 खनिजों को जो पहले सरकारी क्षेत्र के लिए आरक्षित थे, निजी क्षेत्र के लिए खोल दिये गये हैं।

6. सरकारी क्षेत्र के लिए आरक्षित उद्योग- 1991 की नीति के द्वारा सरकारी क्षेत्र के लिए आरक्षित 17 उद्योगों की संख्या को घटाकर 3 किया गया तथा बाद में इसे भी सन् 2000 तक कम करके केवल 4 कर दिया गया है। जिन चार उद्योगों को सरकारी क्षेत्र के लिए आरक्षित रखा गया है, वे इस प्रकार हैं- (1) रक्षा उत्पादन (2) परमाणु ऊर्जा (3) रेलवे परिवहन तथा (4) परमाणु ऊर्जा आदेश, 1953 में विनिर्दिष्ट खनिज ।

7. उत्पाद एवं आयात शुल्कों में कमी- पूँजीगत वस्तुओं पर उत्पाद शुल्कों को युक्तियुक्त बनाया गया है और पूँजी सम्बन्धी लागतों कम करने तथा निवेश को प्रोत्साहित करने के लिए आयात शुल्कों में और भी कटौती की गयी है।

8. पूँजी लाभ पर कर में कमी- पूँजी बाजार में विदेशी निवेश के स्तरों में वृद्धि करने के लिए विदेशी संस्थागत निवेशकों के लिए अल्पकालिक पूँजी लाभों पर 30 प्रतिशत की रियायती कर की दर, आरम्भ की गयी है।

9. प्रतिबन्धात्मक व्यापार व्यवहार अधिनियम में संशोधन- इस नीति में यह घोषणा की गयी है कि बड़ी कम्पनियों और औद्योगिक घरानों पर एकाधिकारी एवं प्रतिबन्धात्मक व्यापार अधिनियम के अन्तर्गत पूँजी सीमा समाप्त कर दी जाएगी। इसके परिणामस्वरूप बड़े औद्योगिक घरानों और कम्पनियों को नये उपक्रम लगाने की छूट होगी। उन्हें अपने उत्पादन बढ़ाने, कम्पनियों के विलीनीकरण तथा उनके स्वामित्व लेने में सरकार की अनुमति की आवश्यकता नहीं होगी।

10. पंजीकरण योजनाओं की समाप्ति- औद्योगिक इकाइयों के पंजीकरण से सम्बन्धित योजनाओं को समाप्त कर दिया गया। अब उद्यमियों को अपनी परियोजनाओं के विस्तार तथा नई परियोजनाओं को चालू करने के सम्बन्ध में केवल एक सूचना ज्ञापन ही जमा करना होगा।

11. स्थानीयकरण – जिन उद्योगों के लिए लाइसेंस की अनिवार्यता नहीं है उन्हें छोड़कर दस लाख से कम आबादी वाले नगरों में किसी भी उद्योग के लिए अनुमति की जरूरत नहीं है। दस लाख से अधिक की जनसंख्या वाले नगरों के मामले में इलेक्ट्रानिक्स और किसी तरह के अन्य गैर प्रदूषणकारी उद्योगों को छोड़कर सभी इकाइयाँ नगर सीमा से 25 किलोमीटर के बाहर लगेगी। पिछड़े क्षेत्रों में उद्योग लगाने वाले उद्यमियों को सरकारी सहायता भी दी जाएगी।

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नयी औद्योगिक नीति (1991) के मुख्य तत्व/प्रावधान (Main elements or Provisions of Industrial Policy 1991)

1991 में उदारीकरण नीति के अन्तर्गत वर्तमान औद्योगिक नीति की घोषणा 24 जुलाई, 1991 को लोक सभा में उद्योग राज्य मन्त्री पी०जे० कुरियन तथा राज्य सभा में पी०के० थुंगन द्वारा की गयी, इस नीति के प्रमुख तत्व निम्नलिखित हैं-

1. लाइसेन्स व्यवस्था समाप्त– पाँच प्रमुख उद्योगों को छोड़कर अन्य सभी के लिए लाइसेन्स की व्यवस्था समाप्त कर दी गयी है चाहे उनमें कितनी ही पूँजी क्यों न लगायी जाय।

2. विदेशी विनियोग- फेरा कम्पनियों में विदेशी पूँजी अनुपात अब 40 प्रतिशत के स्थान पर 51 प्रतिशत तक हो सकेगा। अब भारत में विदेशी पूँजी निवेश की स्वीकृति प्राप्त करने में कोई अड़चन नहीं होगी। विदेशी निवेश वाली कम्पनियों द्वारा विदेश भेजा गया मुनाफा एक विशेष अवधि में निर्यात आमदनी से चुकाया जायेगा। देशी बिक्री पर 5 प्रतिशत रॉयल्टी होगी और निर्यात पर 8 प्रतिशत बिक्री के 8 प्रतिशत तक कुल भुगतान हो सकेगा और यह समझौते से वर्ष के भीतर या उत्पादन शुरू होने से 7 वर्ष के भीतर किया जा सकेगा। 10

3. एकाधिकारी एवं प्रतिबन्धात्मक व्यापार व्यवहार अधिनियम में संशोधन- इस नीति में यह घोषणा की गयी है कि बड़ी कम्पनियों और औद्योगिक घरानों पर एकाधिकारी एवं प्रतिबन्धात्मक व्यापार व्यवहार अधिनियम के अन्तर्गत पूँजी सीमा समाप्त कर दी जायेगी। इसके फलस्वरूप बड़े औद्योगिक घरानों और कम्पनियों को ये उपक्रम लगाने, किसी उद्योग की उत्पादन क्षमता बढ़ाने, कम्पनियों का विलीनीकरण करने, उनका स्वामित्व लेने अथवा कुछ परिस्थितियों में संचालकों की नियुक्ति करने के लिए केन्द्रीय सरकार की पूर्व स्वीकृति नहीं लेनी होगी तथा अनुचित औद्योगिक एवं व्यापारिक प्रवृत्तियों को नियन्त्रित करने पर अधिक महत्त्व देंगी।

4. विद्यमान पंजीकरण योजनाओं की समाप्ति- औद्योगिक इकाइयों के पंजीयन के सम्बन्ध में विद्यमान सभी योजनाएँ समाप्त कर दी गयी हैं। अब उद्यमियों को नयी परियोजनाओं तथा पर्याप्त विस्तार कार्यक्रमों के सम्बन्ध में सूचना ज्ञापन ही जमा करना होगा।

5. विदेशी तकनीक – उत्पादन व निर्यात में वृद्धि के लिए विदेशी पूँजी-निवेश और विदेशी तकनीकी सहयोग को प्रोत्साहन दिया जायेगा। विदेशी पूँजी निवेश के प्रस्ताव के साथ विदेशी तकनीकी प्राप्त करना अब आवश्यक नहीं हैं।

6. सार्वजनिक क्षेत्र – सार्वजनिक क्षेत्र की जिन इकाइयों का काम काज ठीक नहीं चल रहा है उन्हें औद्योगिक और वित्त पुनर्निर्माण बोर्ड को सौंपा जायेगा। भविष्य में सार्वजनिक क्षेत्र के विकास को इस प्रकार प्राथमिकता होगी-आवश्यक आधारभूत वस्तुएँ व सेवाएँ, खनिज व तेल संसाधनों का विकास, व क्षेत्र जो देश के दीर्घकालीन विकास के लिए आवश्यक हैं तथा जहाँ निजी क्षेत्र का विनियोग कम है तथा उन वस्तुओं का निर्माण जो सामरिक महत्त्व की हैं।

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भारत की औद्योगिक नीति की समीक्षा (Evolution of Industrial Policy of India) –

1. औद्योगिक विकास- औद्योगिक नीति के अन्तर्गत देश में औद्योगिक विकास हुआ है। नये बड़े व विविध प्रकार के उद्योग स्थापित हुए हैं, जिसके फलस्वरूप उत्पादन बढ़ा है। और भारत अब औद्योगिक वस्तुओं के आयात के स्थान पर निर्यात करने लगा है।

2. लघु एवं कुटीर उद्योगों का विकास – भारत की औद्योगिक नीति के फलस्वरूप .लघु एवं कुटीर उद्योगों को काफी विकास हुआ है और वर्तमान भारतीय अर्थव्यवस्था में उन्होंने अपना महत्त्वपूर्ण स्थान बना लिया है।

3. सार्वजनिक क्षेत्र का विकास – 1950 के बाद सार्वजनिक क्षेत्र का काफी विस्तार हुआ है। 1960-61 में भारत में केन्द्रीय सरकार के 48 उपक्रम थे जिनमें 953 करोड़ रुपया लगा हुआ था, जबकि 1999-2000 में 246 उपक्रम थे जिनमें 1,35,871 करोड़ रुपया विनियोजित था।

4. विदेशी उपक्रमों की स्थापना – भारत में अनेक उपक्रम विदेशियों की सहायता से स्थापित किये गये हैं। 1951 ई० में यहाँ केवल 81 विदेशी उपक्रम थे लेकिन आज उनकी संख्या  6 हजार के लगभग है। इससे देश के औद्योगिक विकास में सहायता मिली है।

कुछ विद्वानों का कहना है कि औद्योगिक नीति सफल नहीं है और वे इस सम्बन्ध में निम्न तर्क प्रस्तुत करते हैं

1. सार्वजनिक क्षेत्र की असफलता – भारत में सार्वजनिक क्षेत्र के अकेले केन्द्रीय सरकार के उपक्रम में 1,35,871 करोड़ रुपये की पूँजी विनियोजित है लेकिन वे सामान्य औसत लाभ तक देने में असमर्थ रहे हैं। उनमें प्रशासनिक अकुशलता, भ्रष्टाचार व बेईमानी का बोलबाला है और सरकारी सम्पत्ति व धन का दुरुपयोग हो रहा है।

2. बड़े घरानों को लाभ – इस नीति से बड़े घरानों को लाभ हो रहा है। उनका आर्थिक केन्द्रीकरण बढ़ रहा है। उनकी सम्पत्तियाँ बराबर बढ़ रही है। उनके उद्योगों का विकास हो रहा है, जबकि एकाधिकारी व केन्द्रीकरण की प्रवृत्ति के बढ़ने से जनता का शोषण बढ़ रहा है।

3. विदेशी पूँजी से हानि- औद्योगिक नीति में विदेशी पूँजी को आमन्त्रित करने की बात कही गयी है जिससे अनेक उपक्रम विदेशी सहयोग से स्थापित हो गये हैं, लेकिन यह उपक्रम देश के हित में कार्य नहीं कर रहे हैं। साथ ही करोड़ों रुपये प्रतिवर्ष विदेशों को लाभ के रूप में भेजने की अनुमति देनी पड़ती है जिसका प्रभाव विदेशी मुद्रा कोष पर पड़ता है।

4. क्षेत्रीय असमानता में कोई खास परिवर्तन न होगा- औद्योगिक नीति के फलस्वरूप कुछ उद्योग ऐसे स्थानों पर भी स्थापित किये गये हैं जहाँ पहले से कोई उद्योग नहीं थे, लेकिन इससे क्षेत्रीय असमानताओं में कोई महत्त्वपूर्ण परिवर्तन नहीं आया है।

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भारत में औद्योगिक नीति का महत्त्व (Importance)

(1) देश की अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ बनाना

(2) देश के औद्योगिक विकास को सुनियोजित करना

(3) राष्ट्र को मार्गदर्शन व निर्देशन देती है।

(4) सरकार को निश्चित कार्यक्रम बनाने में मदद करती है।

(5) जनसाधारण को अपनी निश्चित जीविका साधन बनाने में सहायता करती है।

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