शैक्षिक प्रशासन के आधारभूत सिद्धान्त निम्नलिखित हैं-
(1) व्यक्ति की महत्ता का सिद्धान्त- शिक्षा ‘फाईल केन्द्रित’ न होकर व्यक्ति केन्द्रित होनी चाहिए, जिसके लिए यह आवश्यक है कि शिक्षा द्वारा व्यक्तियों के शारीरिक, मानसिक, भावात्मक, आध्यात्मिक और सौन्दर्यात्मक गुणों का विकास किया जाये। बालक की प्राकृतिक शक्तियों, क्षमताओं, योग्यताओं तथा रुचियों आदि का ज्ञान प्राप्त कर विद्यालयों के पाठ्यक्रमों, समय सारणी, शिक्षण विधियों, शैक्षिक सामग्री, साज-सज्जा, फर्नीचर आदि का प्रबनध करने से व्यक्ति का सर्वांगीण विकास सम्भव है। इसके अतिरिक्त शैक्षिक प्रशासकों की क्षमताओं तथा रुचियों आदि का विकास करने से उनकी भी कार्यकुशलता का विकास होगा।
(2) शिक्षा दर्शन पर आधारित- शिक्षा प्रशासन उचित शिक्षा दर्शन पर आधारित होना चाहिए। दर्शन शिक्षा प्रशासन का पथ-प्रदर्शक है तथा उद्देश्यों का निर्धारण करता है जिसके आधार पर विद्यालय का मार्ग-दर्शन होता है जिससे वह उचित वातावरण उपस्थित कर अपने लक्ष्यों को प्राप्त कर सके।
(3) सामाजिक तथा राष्ट्रीय हित का सिद्धान्त- मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। वह सामाजिक बंधनों के जाल में फंसा रहता है। बालक अपने सामाजिक वातावरण के मध्य में रहकर अपना सर्वांगीण विकास करता है। इसलिए प्रशासक का यह महान् कर्तव्य हो जाता है कि वह विद्यालयों का संगठन राष्ट्रीय तथा सामाजिक वातावरण के उद्देश्यों, आदर्शों, क्रियाओं, भागों तथा उनकी आवश्यकतों को ध्यान में रखकर करे जिससे समाज और राष्ट्र की उन्नति सम्भव हो सके। उसके दैनिक कार्यक्रमों को भी उन्हीं के अनुसार नियोजित करे।
(4) प्रजातांत्रिक व्यवस्था के अनुरूप का सिद्धान्त- शिक्षा का सारा कार्यक्रम तथा योजनाएँ देश के ढाँचे के आधार पर आधारित होती हैं। हमारा समाज जनतांत्रिक है। अतः शैक्षिक प्रशासक को समाज के राजनीतिक ढाँचे के अनुरूप ही अपने उद्देश्यों, कार्यक्रमों, योजनाओं तथा नीतियों को अपनाना चाहिए, तभी योजनाएं सफल होंगी तथा देश और समाज को लाभ पहुँचेगा और लोगों की आस्था भी उनमें रहेगी। अन्यथा वे सब कोरी कल्पना के समान नष्ट-भ्रष्ट हो जायेंगी। इसलिए समानता और स्वतंत्रता के मूल सिद्धान्तों का पालन करें जिससे छात्र, अध्यापक तथा प्रशासक अपना कार्य भली प्रकार निभा सकें और समाज के विकास से सम्बन्धित सभी व्यक्तियों के ऊपर उत्तरदायित्व हो जिससे वे अपने को सम्मानित समझें और कार्य में रुचि ले अन्यथा समाज की प्रगति नहीं हो पायेगी।
(5) परिवर्तनशील आवश्यकताओं के अनुकूलन का सिद्धान्त- परिवर्तन प्रकृति का नियम है। इसलिए शैक्षिक प्रशासन को समय के परिवर्तन के साथ शैक्षिक कार्यक्रमों, उद्देश्यों, नीतियों तथा योजनाओं आदि को समय के साथ परिवर्तित करता चले। उसमें रुढ़िवादिता न हो अन्यथा न केवल शिक्षा वरन् सम्पूर्ण देश और समाज पिछड़ा रह जायेगा और दूसरे समाज तथा देश की उन्नति करते जायेंगे।
(6) क्षमताओं के अनुसार कार्य विभाजन का सिद्धान्त- प्रजातांत्रिक समाज में सबसे कठिन कार्य क्षमता के अनुसार कार्य विभाजन करना है। यदि इस कार्य को भली प्रकार न किया गया तो वह समाज शिक्षा जगत् में कभी प्रगति नहीं कर सकेगा। अतः शैक्षिक प्रशासक का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य हो जाता है कि शिक्षा से सम्बन्धित जैसे—प्रधानाचार्य, शिक्षक तथा प्रबन्धक आदि की क्षमता के अनुसार कार्य विभाजन करे जिससे वे लोग अपने-अपने कर्तव्यों को पूर्ण रूप से निभायें और यह तभी सम्भव होगा जबकि कार्य उनकी रुचियों, रुझान, योग्यता, क्षमताओं तथा उनके सम्मान के साथ मान-मर्यादा बनाये रखने वाले हों जिससे किसी प्रकार की बाधा उपस्थित न हो पाये।
(7) प्रयासों के समन्वय का सिद्धान्त- विद्यालय का प्रबन्ध इस प्रकार का होना चाहिए कि जितने व्यक्ति विद्यालयों से सम्बन्धित जैसे-प्रबन्धक, प्रधानाचार्य, अध्यापक, कार्यकारिणी के सदस्य, लिपिक तथा छात्र आदि सभी एकजुट होकर समन्वित रूप से विद्यालय के लाभ के लिए प्रयत्न करें जिससे स्कूल का सर्वांगीण विकास हो सके। अलग-अलग ढंग से काम करने से किसी को भी सफलता न मिलेगी और विद्यालय का अहित होगा और उसका उत्तरदायी कोई न होगा, क्योंकि सब प्रयत्न भिन्न-भिन्न होंगे और स्कूल अपने उद्देश्यों की प्राप्ति कभी प्राप्त न कर पायेगा, क्योंकि “United we Stand, divided we fall.”
(8) विद्यालयों के उद्देश्यों, नीतियों और कार्यक्रमों में एकरूपता का सिद्धान्त- विद्यालय का प्रशासन इस प्रकार किया जाये कि उसे नीतियों तथा कार्यक्रमों में किसी प्रकार की रुकावट तथा बाधा न उत्पन्न होने पाये। अतः विद्यालय के प्रबन्धक या अधिकारी वर्ग को चाहिए कि वे अपने विद्यालय के लिए जो उद्देश्य तथा आदर्श निश्चित करें उसके प्राप्ति के लिए वे लोग उसी के अनुरूप अपनी क्रियाओं, कार्यों तथा नीतियों का पालन करें जिससे विद्यालय की उन्नति हो अन्यथा विद्यालय अपने लक्ष्यों तथा आदर्शों की प्राप्ति न कर पायेगा।
(9) बालक प्रधान शैक्षिक प्रशासन का सिद्धान्त- मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों के अनुसार सारा शैक्षिक ढाँचा बालक प्रधान होता जा रहा है जिसका अर्थ यह हुआ है कि आधुनिक शिक्षा ‘फाइल केन्द्रित’ न होकर बाल-केन्द्रित हो गयी है, क्योंकि मनोविज्ञान की सहायता से अब बालक के मानसिक तथा प्राकृतिक शक्तियों का पूरा ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं जैसे—उसकी मूल प्रवृत्तियाँ, बुद्धि-लब्धि क्षमताओं, रुचियों, योग्यता, स्मृति, कल्पना शक्ति आदि की जानकारी प्राप्त कर सकते हैं और तब विद्यालयों को पाठ्यक्रम, पाठन-विधि, समय विभाग चक्र, पाठ्य- पुस्तकें, शैक्षिक-उपकरण, फर्नीचर आदि उसी के अनुसार बनायी जायें जिससे बालक का सर्वांगीण विकास हो, जो कि आज की शिक्षा का मुख्य उद्देश्य है।
(10) कार्यक्रमों तथा नीतियों के निर्धारण में रचनात्मक तथा आशावादी दृष्टिकोण- विद्यालय के अधिकारी वर्ग जैसे—प्रबन्धक तथा प्रधानाचार्य को अपने कार्यक्रमों, नीतियों तथा योजनाओं में रचनात्मक और आशावादी सिद्धान्त रखना चाहिए जिससे उनके छात्रों में भी वैसा ही विचार उत्पन्न हो जिससे समाज और देश का लाभ हो।
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