अध्यापक की व्यावसायिक अभिवृद्धि से क्या तात्पर्य है? एक अध्यापक की कार्यक्षमता कैसे बढ़ायी जा सकती है। व्याख्या कीजिए। अथवा एक आदर्श अध्यापक के व्यावसायिक गुणों का वर्णन कीजिए।
अध्यापक की व्यावसायिक अभिवृद्धि का अर्थ- विद्यालय में नवनियुक्त या पहले से कार्यरत अध्यापकों की अध्यापम कुशलता में वृद्धि के लिए विभिन्न साधनों के द्वारा स्वयं उनके तथा विद्यालयों के लाभ की दृष्टि से जो प्रयास विद्यालय, शिक्षा-विभाग या शासन द्वारा किया जाता है उसे अध्यापक की व्यावसायिक अभिवृद्धि की संज्ञा दी जाती है।
कोठरी शिक्षा आयोग का पहला वाक्य कि- “भारत के भाग्य का निर्माण- विद्यालयों में होता है” जितना सही है उसके साथ यह भी सही है कि इस निर्माण का उत्तरदायित्व शिक्षक का होता है अतः यह विचारणीय है कि शिक्षा का केन्द्र-बिन्दु शिक्षक का व्यवसाय कैसे उन्नत हो। इस व्यवसाय को विशिष्ट व्यवसाय का दर्जा प्राप्त नहीं हुआ है। कोई भी व्यक्ति शिक्षक बन सकता है। प्रान्त के शिक्षा विभाग भी इस धारणा के हैं। आज का विद्यार्थी जागरूक और जिज्ञासु है, जो सामान्य शिक्षक से सन्तुष्ट नहीं होता है। इससे असन्तोष और अनुशासनहीनता फैलती है। शिक्षक की अभिवृत्ति और कार्यों का सीधा असर उसके विद्यार्थियों पर पड़ता है।
समाज में शिक्षक का क्या स्थान है? लोग इसे व्यवसाय क्यों समझते हैं? प्रतिभाशाली व्यक्ति इस ओर क्यों नहीं आकर्षित होते? स्वयं अध्यापक की रूचि अपने व्यवसाय में क्यों नहीं हैं? शिक्षक की अपने कार्य में निष्ठा कैसे उत्पन्न की जा सकती है? ये कुछ विचारणीय प्रश्न हैं जो अध्यापक की व्यावसायिक अभिवृद्धि से जुड़े हैं। अध्यापक की अध्यापन कुशलता ही उसके सम्पूर्ण अध्यापकीय जीवन का आधार है। किसी अध्यापक की सफलता या असफलता इस बात पर निर्भर है कि उसमें अध्यापन कुशलता किस रूप में विद्यमान है। यदि अध्यापन-कुशलता की दृष्टि से कोई अध्यापक समृद्ध है तो निश्चित रूप से उसके अध्यापन का लाभ विद्यार्थियों को समुचित रूप से प्राप्त होगा। इसके विपरीत अध्यापन-कुशलता से रहित अध्यापक अपने साथ ही छात्रों, अध्यापकों और विद्यालय से साथ ही अभिभावकों को भी दुष्प्रभावित करता है।
अध्यापक के व्यावसायिक अभिवृद्धि के उपाय- अध्यापक की व्यावसायिक अभिवृद्धि का कार्य उस समय प्रारम्भ होता है जब अर्हता प्राप्त व्यक्ति की नियुक्ति विद्यालय में होती है। अध्यापक की व्यावसायिक अभिवृद्धि के उपायों को दो भागों में बॉटा जा सकता है-
(1) व्यक्तिगत स्तर पर व्यावसायिक अभिवृद्धि के उपाय।
(2) सामूहिक स्तर पर व्यावसायिक अभिवृद्धि के उपाय।
आदर्श अध्यापक के व्यावसायिक गुण
एक आदर्श अध्यापक के व्यावसायिक गुण निम्न प्रकार हैं-
(1) विषय का पूर्ण ज्ञाता- व्यावसायिक गुण के अन्तर्गत एक अध्यापक को अपने विषय का पूर्ण ज्ञाता होना सबसे प्रमुख गुण है जिसके ऊपर उसका मान-सम्मान निर्भर करता है। यदि जिस विषय का वह शिक्षक है, उसमें उसका ज्ञान कच्चा या अधूरा है तो उसे कक्षा में। बड़ी लज्जा का सामना करना पड़ता है और छात्र उनका सम्मान नहीं करते’ बल्कि व्यंग्यपूर्ण भाषा का प्रयोग भी करते हैं।
(2) व्यवसाय के प्रति निष्ठा- एक अध्यापक को आपने व्यवसाय के प्रति निष्ठावान सुख ही होना चाहिए अन्यथा न तो वह छात्रों को ज्ञान ही दे पायेगा और न अपने जीवन में प्राप्त कर सकेगा। जब उसने व्यवसाय को ग्रहण कर लिया है तो उसे अपनी मजबूरी या व्यापार के रूप में न लेकर उसमें रूचि लेकर छात्रों का विकास करने में लगा रहे तभी वह अपना एवं अपने समाज का कल्याण कर सकेगा अन्यथा उसे जीवन में कुछ न मिलेगा।
(3) मनोविज्ञान का ज्ञान- एक अध्यापक को अपने व्यवसाय में निपुण होने के लिए मनोविज्ञान का ज्ञान होना अत्यन्त आवश्यक है, क्योंकि मनोविज्ञान की सहायता से वह अपने छात्रों के विषय में पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर सकता है। उसे ही छात्रों को शिक्षित करना है। उसको बुद्धि, मस्तिष्क, स्मृति, तर्क, सिखाना तथा मूल प्रवृत्तियों के विषय में पूर्ण जानकारी प्राप्त होनी चाहिए। मनोविज्ञान एक अध्यापक को पाठन-विधि, पाठ्यक्रम बनाने के नियम, अनुशासन बनाये रखने के नियम आदि का ज्ञान कराता है।
(4) व्यावसायिक प्रशिक्षण- एक अध्यापक को अपने व्यवसाय में प्रशिक्षण प्राप्त करना आवश्यक होता है, क्योंकि उसे अपने विषय की जानकारी के साथ-साथ यह जानना आवश्यक है। कि वह अपने ज्ञान को छात्रों को किस प्रकार प्रदान करे कि छात्र उस ज्ञान को भली प्रकार समझ सकें। अध्यापन एक कला है और यह कला प्रशिक्षण से ही प्राप्त हो सकती है।
(5) कक्षा-नियन्त्रण शक्ति- अध्यापकों को यह कला जाननी चाहिए कि कला को नियन्त्रित कैसे रखें, क्योंकि यदि अध्यापक बहुत ज्ञानी है किन्तु कक्षा नियन्त्रण की शक्ति नहीं है | तो वह उस कक्षा में भली प्रकार ज्ञान नहीं दे सकता है और छात्र उसकी बातों को सुनते भी नहीं | हैं। एक प्रकार की अनुशासनहीनता का राज्य बना रहता है। ऐसे वातावरण में वह क्या शिक्षा दे सकेगा? उसके लिए अध्यापक कक्षा में इस प्रकार का वातावरण उपस्थित करे कि अध्यापक छात्रों को जो भी पढ़ाता है, उसको बालक ध्यापनूर्वक सुनें और प्रसन्नतापूर्वक पालन करें।
(6) शिक्षण-विधियों का ज्ञान- अध्यापकों को प्रशिक्षण केवल इसलिए दिया जाता है कि उसे शिक्षण विधियों का इतनी अच्छी तरह ज्ञान हो जाये कि वह छात्रों को इस प्रकार शिक्षा दे कि साधारण से साधारण बालक भी उसके दिये हुए ज्ञान को समझ ले। इसलिए छात्र कुछ अध्यापकों के पढ़ाते समय बड़ी चैतन्यता तथा ध्यानपूर्वक होकर ज्ञान प्राप्त करते हैं और कुछ छात्र अध्यापक के घंटे में कक्षा में जाते तक नहीं हैं। शिक्षण-विधियों को जानने वाला अध्यापक अपने विद्यालय में बड़ा लोकप्रिय अध्यापक बन जाता है और उसकी प्रतिष्ठा भी खूब बढ़ जाती है। इसलिए अध्यापकों को चाहिए कि वे शिक्षण विधियों और सिद्धान्तों से भली- भाँति परिचित हों और उनका कक्षा में सावधानीपूर्वक प्रयोग करें।
(7) वेशभूषा- अध्यापक का प्रभाव उसकी आकृति तथा वेशभूषा के द्वारा अधिक प्रभावशाली होता है। प्रायः देखा जाता है कि कुछ अध्यापक अपनी वेशभूषा के विषय में बिल्कुल लापरवाह रहते हैं। वह प्रायः गन्दे कपड़े, दाढ़ी बढ़ाये हुए, जूते बिना पालिश किये हुए एवं बेमेल कपड़े पहनकर विद्यालय में चले आते हैं जिसका प्रभाव विद्यार्थियों पर बहुत बुरा अथवा पड़ता है। उनमें न ही कोई फुर्ती रहती है और न छात्र ही उनको श्रद्धा की दृष्टि से देखते हैं। उनको मान-सम्मान बहुत कम मिल पाता है। अतः अध्यापकों को साफ-सुथरे कपड़े जो देखने में अच्छे लगें, सदैव पहनने चाहिए ताकि विद्यार्थी उनको आदर और सम्मान की दृष्टि से देखें।
(8) मौलिकता और प्रयोगात्मक दृष्टिकोण- एक अध्यापक को सदा मौलिक और परीक्षाणात्मक दृष्टिकोण रखना चाहिए। उसे पुराने पाठ्यक्रमों तथा पाठ्य-पुस्तकों की पिटी- पिटायी विधियों से सन्तुष्ट नहीं रहना चाहिए। वरन् अपने मौलिक दृष्टिकोण को जानना और अधिकारियों के सामने प्रस्तुत करना चाहिए। अध्यापकों को अपने तरीके से छात्रों को कैसे और कब पढ़ायें आदि मौलिक विधियों का प्रयोग स्वतन्त्रातापूर्वक करना चाहिए। यह उसके व्यावसायिक गुणों को और जागरूक करती है।
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