लैंगिक विभेद के कारण एवं उसके उपचार
लैंगिक विभेद के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं-
(1) लैंगिक भेद को दर्शाती पाठ्यपुस्तकें- पाठ्यपुस्तकीय ज्ञान को विद्यालयों में अधिकारिक ज्ञान के रूप में देखा जाता है। इनमें जो ज्ञान/सूचना/भाषा चित्र आदि प्रयुक्त किये गये हैं। वह लैंगिक भेद को दर्शाते हैं।
(2) पाठ्यपुस्तकों में पुरुष नेताओं को ही दर्शाना- राज्य शासन पर आधारित पाठों में पाठ्यपुस्तकों में समझ विकसित करने के लिए जिस व्यक्तित्व को बहुत दमदार रूप में दिखाया जाता है जो शासन के गैर-जिम्मेदाराना व्यवहार के वरीिध पर ऊँची आवाज की माँग करता है वह एक पुरुष नेता होता है, क्या यहाँ पर जेण्डर भेद नजर नहीं आता? क्या राजनीतिक सम्मेलनों, सरकार विरोधी प्रदर्शनों या नेता के रूप में महिला को दिखाकर छात्र-छात्राओं की अलग तस्वीर नहीं दिखाई जा सकती थी? यह प्रश्न चिन्तनीय है।
(3) पुरुषवादी विचाराधारा की अधिकता- अधिकांशतः स्कूलों की पाठ्यपुस्तकों का विश्लेषण करने पर यह ज्ञात होता है कि औपचारिक विद्यालय पाठ्यक्रम में पुरुषवादी विचारधारा अधिक पाई जाती है व महिला पक्ष की उपेक्षा की गई है।
(4) लैंगिकता अनुसार विषयों का विभाजन- अधिकांशत; यह देखा गया है कि विद्यालयों में लड़कियों को 11 वीं कक्षा में अतिरिक्त विषय के में सौन्दर्य कला, सिलाई-कड़ाई, पेंटिंग व पाक कला में एक विषय को चुनना हाता है जो कि लड़कों को बेसिक कम्प्यूटर, टाइपिंग, पेंटिंग में से एक का चयन करना होता है। कुछ विद्यालयों में गृह विज्ञान बालिकाओं के लिए अनिवार्य है। जबकि बालक उसके बदले शारीरिक शिक्षा का चयन कर सकते हैं। विषयों के चयन व अवसर को लेकर इस प्रकार का दोहरापन से यह सवाल उठता है कि क्यूँ बालिकाओं को ही ऐसे विषयों में प्रशिक्षण देने पर बल दिया जा रहा है जो जेण्डर विभक्त समाज में उनकी भूमिका का निर्धारण करते हैं। यहाँ यह कहना गलत न होगा कि विषयों का विभाजन मात्र ज्ञान के वितरण का मसला नहीं है बल्कि ये भविष्य में भूमिका के निर्धारण का भी मामला है।
लिंग विभेद कम करने के उपाय/उपचार
(1) विद्यालय का छात्रों एवं छात्राओं को घरेलू भविष्य के साथ जोड़ने का कार्य- मुखोपाध्याय अपने अध्ययन में यह उजागर करते हैं कि “अधिकतर लड़कियों के विद्यालयों में विज्ञान शाखा की कमी – उन्हें सहशिक्षा वाले विद्यालयों में प्रवेश लेने के लिए बल डालती है। साथ ही जिन विद्यालयों में विज्ञान शाखा है कि वहाँ की लैब, शोध के उपकरण, आदि लड़कों के विद्यालयों में उपस्थित सुविधाओं की तुलना में नाकाफी व कामचलाऊ हैं।” लिंग विभेद को कम करने के लिए यह आवश्यक है कि लड़के और लड़कियों या छात्र और छात्राओं के विद्यालयों में इस विभेद को कम किया जाय।
(2) पाठ्यपुस्तकों द्वारा सामाजिक लिंग तैयार करना- पाठ्यपुस्तकों में बहुत ही बढ़िया तरीके से. यह बताया जाता है कि जिस प्रकार एक बालक (लड़का या लड़की) में सामाजिक लिंग तैयार किया जाता है। कहानी के जरिये घर के काम का महत्व बताया जाता है परन्तु किसी भी वाक्य या चित्र के माध्यम से छात्र-छात्राओं को यह नहीं बताया जाता कि घरेलू कार्य क्यों महिलाओं के लिए ही माने जाते हैं जबकि एक पुरुष भी उन सभी कामों को उतनी ही निपुणता से कर सकता है। अतः पाठ्यक्रम तैयार करते समय इस बात पर अवश्य ध्यान देना चाहिए कि छात्र एवं छात्राओं दोनों के कार्यों का एक समतुल्य विषय-वस्तु ही दर्शायी जाये।
(3) लैंगिक भेद के सन्दर्भ में कोई चर्चा नहीं करना- जातिगत भेद व धर्म आधारित भेद को पाठ्यपुस्तकों के माध्यम से बताया जाता है, परन्तु लैंगिक भेद के सन्दर्भ में इस प्रकार की कोई चर्चा नहीं की गई। जबकि लैंगिक भेद एक ऐसा प्रश्न है जिससे सम्बन्धित कई अनुभव छात्र-छात्राओं को पता हो सकते हैं।
(4) पाठ्यपुस्तकों में समाजिक लिंग आधारित वास्तविकता की अभिव्यक्ति- विशेष तौर पर पाठ्यपुस्तकीय ज्ञान (जिसे विद्यालयों में अधिकारिक ज्ञान’ के रूप में प्रस्तुत किया जाता है) का विश्लेषण इस सन्दर्भ में करना आवश्यक हो जाता है कि किस तरह से पाठ्यपुस्तकें सामाजिक लिंग आधारित वास्तविकता को अभिव्यक्त करती है? व वे कौन-सी विशेषताएँ हैं जो पुस्तकों में अभिव्यक्त होती है तथा नारीत्व व पुरुषत्व आधारित व्यवहार को मजबूत करती है
(5) महिलाओं को निर्धारित भूमिका में ढालने के उद्देश्य की पूर्ति- भारतीय शिक्षा की अवधारणा की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर चर्चा करते हुए करुणा जानना कहती हैं कि हालांकि महिलाओं की शिक्षा ने 19वीं सदी के पूर्व में भी समाज सुधारकों को अपनी ओर आकर्षित किया, लेकिन 19वीं सदी के अन्त में आवाजें तेज हो गई। इस समय शिक्षित लोग विवाह के लिए शिक्षित लड़कियों को तरजीह दे लगे। अन्य तथ्यों के साथ इस तथ्य ने भी लड़कियों की शिक्षा पर बल दिया और अभिभावकों को अपनी बेटियों को स्कूल भेजने को प्रेरित किया अंततः पूना स्थिति सेवा सदन जैसे स्वयं सेवी संगठनों द्वारा संचालित विद्यालय लड़कियों को भाषा की शिक्षा देने के अलावा संगीत, गृह-विज्ञान, प्राथमिक उपचार, नर्सिंग और मिडवाइफरी आदि में भी शिक्षा देने लगे। यहाँ मुख्य विचार यह था कि क्योंकि एक लड़की को पत्नी और माँ बनना है अंततः स्कूली शिक्षा ऐसी हो जा उन्हें अपनी भूमिका प्रभावी ढंग से अदा करने के लिए प्रशिक्षित करें।
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