कृष्ण काव्य धारा की विशेषतायें/प्रवृत्तियाँ
कृष्ण काव्य की विशेषताएँ– कृष्ण काव्य की विशेषताएँ निम्नानुसार हैं-
1. कृष्ण लीला-
कृष्ण भक्त कवियों ने कृष्ण की लोक रंजनकारी लीलाओं का वर्णन किया है। बाल गोपाल की सख्य भाव की लीलाएँ, माधुर्यभाव की लीलाएँ, वात्सल्यपूर्ण लीलाएँ अद्भुत हैं। सूरदास के काव्य में कृष्ण की लीलाओं का विस्तृत वर्णन उपलब्ध है।
2. भक्ति भावना-
कृष्ण भक्ति काव्य में भक्ति के विविध प्रकारों के अन्तर्गत भक्ति के पाँच विशिष्ट भाव माने गये हैं श्रृंगार, सख्य, दास्य, वात्सल्य और शांत। सूरदास के सूरसागर में सभी प्रकार की भक्ति मिलती है।
3. प्रकृति चित्रण-
कृष्ण काव्य के कवियों ने मानव रूप और मानव चरित्र के चित्रण में प्रकृति का समस्त सौन्दर्य और माधुर्य समाप्त कर दिया है। कृष्ण भक्ति साहित्य भावात्मक है। अतः बाह्य प्रकृति का चित्रण इसमें या तो भाव की पृष्ठभूमि में हुआ है या उद्दीपन विभाव के लिए।
4. प्रेम की अलौकिकता-
यह काव्य प्रेम को भक्ति का मूल आधार मानता है। इस प्रेम का आधार कृष्ण और राधा की लीलाएँ हैं।
5. स्वाभाविकता-
कृष्ण भक्ति कवि स्वभाव से ही ग्राम्य सरलता पोषक है तथा उन्हें नागर ऐश्वर्य एवं राजसी वैभव से विरक्ति है। इसलिये ग्राम्य जीवन की स्वाभाविक सरलता का सहज-चित्रण इसमें मिलता है।
6. वात्सल्य और श्रृंगार रस की प्रधानता
कृष्ण काव्य में वात्सल्य और श्रृंगार-रस की प्रधानता है। श्रृंगार के दोनों ही पक्षों का जैसा वर्णन कृष्ण-काव्य में हुआ है, ऐसा अन्यत्र दुर्लभ है।
7. भावना की प्रधानता-
कृष्ण काव्य में घटनाओं की विचित्रता की अपेक्षा भावात्मकता पर विशेष बल दिया गया है।
8. वाग्विदग्धता-
कृष्ण भक्ति काव्य धारा में जहां भावात्मकता, सरसता है, वहाँ गोपियों के माध्यम से इसका परिचय मिलता है।
9. शैली-
कृष्ण भक्ति काव्य में मुख्य रूप से गीतिशैली का व्यवहार किया गया है। इन कवियों के साहित्य में गीति शैली के सभी तत्त्व-भावात्मकता, संगीतात्मकता, वैयक्तिकता, संक्षिप्तता तथा भाष्य की कोमलता आदि पूर्ण रूप में मिलते हैं। राधा-कृष्ण की प्रेम कहानी के वर्णन में यद्यपि इन कवियों के लिए वैयक्तिकता, अभिव्यंजना के लिए कोई विशेष क्षेत्र नहीं था फिर भी इन्होंने गोपियों की अनुभूतियों के माध्यम से वैयक्तिकता, अभिव्यंजना के लिए कोई विशेष क्षेत्र नहीं था फिर भी इन्होंने गोपियों की अनुभूतियों के माध्यम से वैयिक्तकता का कलात्मक रूप से समावेश कर लिया है। कृष्ण भक्त कवियों में नेक अभिव्यंजना शैलियों के दर्शन होते हैं। अकेले सूरसागर में भावव्यंजना की अनेक शैलियां मिल जाती हैं।
10. छन्द-
भावात्मक काव्य होने के नाते अधिकतर इस साहित्य में गीति-पदों का प्रयोग हुआ है। कलात्मक प्रसंगों में चौपाई, चौबोला, सार तथा सरसी छंदों का प्रयोग किया है। नन्ददास ने रूप-मंजरी तथा रासमंजरी आदि ग्रंथों में दोहा और चौपाई दोनों का प्रयोग किया है। दोहा-रोला और रोला-दोहा का मिश्रित रूप भी इस काव्य में प्रयुक्त हुआ है। इसके अतिरिक्त कृष्ण भक्ति काव्य में कवित्त, सवैया, छप्पय, कुण्डलियाँ, गीतिका, हरिगीतिका, अरिल्ल तथा कुछ और छंदों का भी प्रयोग मिलता है।
11. भाषा-
इस काव्य में ब्रजराज की जन्म-भूमि ब्रज की लोक-प्रचलित भाषा प्रयुक्त हुई और वह इतनी लोकप्रिय हुई कि समस्त उत्तरी भारत में साहित्य भाषा के रूप में स्वीकृत हुई। उसने बंगाल की भाषा को भी प्रभावित किया। परवर्ती रीतिकाल में ब्रजभाषा का निरंतर प्रयोग हुआ और यहाँ तक कि आधुनिक युग के भारतेन्दु काल के कवियों का इस भाषा के प्रति अगाध मोह बना रहा परन्तु एक बात इस सम्बन्ध में स्वीकार करनी होगी कि भाषा के परिमार्जन रूप-निर्धारण, स्थिरीकरण और व्याकरण-व्यवस्था की ओर न तो कृष्ण भक्त कवियों ने ध्यान दिया और न ही रीतिकालीन कवियों ने। ब्रजभाषा के अच्छे से अच्छे कवियों में शब्दों की तोड़- मरोड़, लिंग-सम्बन्धी गड़बड़, अर्थभेद, अप्रयुक्त एवं ग्राम्य प्रयोग आदि मिल जाते हैं, भले ही नन्ददास आदि एक दो कवि इसके अपवाद हों। अस्तु! इस भाषा की आश्चर्यजनक व्यापकता को देखथे हुए यह स्वीकार करना ही पड़ेगा कि ‘बिना किसी आन्दोलन के साहित्यकार किसी भाषा की प्रतिष्ठा में किस प्रकार अभिवृद्धि कर सकते हैं।’
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