सगुण भक्ति काव्य धारा की विशेषताएं | सगुण भक्ति काव्य धारा की प्रमुख प्रवृत्तियाँ
सगुण भक्ति काव्य धारा की विशेषताएं/प्रवृत्तियाँ – हिन्दी साहित्य के भक्तिकाल में भक्ति की दो धाराएं प्रवाहित हुईं- निर्गुण तथा सगुण। निर्गुण सन्तों में भक्ति की अपेक्षा ज्ञान की प्रधानता है। जबकि सूफी कवियों में प्रेम का अत्यधिक महत्त्व है, पर दोनों के यहां ईश्वर निर्गुण है। मध्यकालीन सगुण संप्रदाय वैष्णव धर्म से पोषण प्राप्त करता है। इस संप्रदाय की दोनों शाखाओं रामभक्ति धारा और कृष्णभक्ति धारा में ईश्वर सगुण है।इन्होंने ज्ञान, कर्म और भक्ति में से भक्ति में से भक्ति को ही अपने उपजीव्य के रूप में ग्रहण किया। हिन्दी के वैष्णव भक्त कवियों ने ज्ञान की अवहेलना तो नहीं की पर उसे भक्ति जैसा समर्थ भी नहीं बताया। ज्ञान तारक तो है पर वह कष्ट साध्य और कृपाण की धार के समान है। इन भक्ति कवियों से पूर्व सिद्ध अपनी दुःख साध्य गुह्य साधना-पद्धतियों से जनसामान्य को बुरी तरह से विस्मित कर चुके थे। नाथपन्थी अपनी योग प्रणाली द्वारा लोक को चमत्कृत करने में अपने-आपको कृतकृत्य मान रहे थे और इधर निर्गुणीय सन्तों की वाणी कर्मकांड का घोर तिरस्करण करती हुई परंम्परा के प्रति अनास्था को जन्म दे रही थी। इन सगुण भक्त कवियों ने एक नवीन भाव-क्रांति को जन्म दिया। रामानरुज, रामानन्द, वल्लभ और चैतन्य आदि इस भाव क्रांति के नेता बने।
सगुण संप्रदाय की पृष्ठभूमि में वैष्णव धर्म और शक्ति का समृद्ध साहित्य है। इस साहित्य के प्रमुख ग्रंथ हैं भगवद्गीता, विष्णु और भागवत पुराण, पांचरात्र संहितायें, नारद-भक्ति- सूत्र और शांडिल्य-भक्ति-सूत्र। इनके अतिरिक्त दक्षिण के आलवार भक्तों की रचनाएं भी वैष्णवों की अमूल्य निधि हैं। दक्षिण के आचार्यों- नाथमुनि, यमुनाचार्य, रामानुज, निम्बार्क, मध्वाचार्य तथा बल्लभाचार्य ने इस सगुण भक्ति धारा को निजी अनुभूतियों एवं शास्त्रीय दार्शनिकता से संवलित किया। इन आचार्यों ने सगुण भक्ति के उस रूप की प्रतिष्ठा की जिसमें मानव हृदय विश्राम भी पाता है और कलात्मक सौन्दर्य से मुग्ध और तृप्त भी होता है। सगुण काव्य की कतिपय सामान्य विशेषताओं का उल्लेख निम्नवत् है-
(1) ईश्वर का सगुण रूप-
मध्यकालीन सगुण भक्त कवियों का उपास्य सगुण है। वैष्णव आचार्यों का कथन है कि सगुण
के गुण अप्राकृतिक हैं। लौकिक गुण परिवर्तनशील, अस्थिर और कारण कार्यजन्य होते हैं, किन्तु प्रभु के दिव्य गुण ह्रास-विकास रहित हैं। भगवान का यह स्वरूप हृदय और बुद्धि की पहुंच से परे है। यह सगुण भगवान स्रष्टा, पालक और संहारक है। अन्त में विष्णु के रूप में इन रूपों का समाहार हो जाता है। वे ही सर्ग, स्थिति और संहार के अधिष्ठाता हैं। इन भक्तो का ध्यान भगवान के पालक रूप पर केन्द्रित है क्योंकि पालन के साथ धर्म-भावना सम्बद्ध है। इन्हें उपासना-क्षेत्र में ईश्वर का सगुण रूप मान्य है अन्यथा इनके यहां भी निर्गुण ईश्वर की ही स्वीकृति है। इनके लिए भगवान चल भी है और अचल भी, मूर्त भी है और अमूर्त भी, वामन भी है और विराट भी, सगुण भी है और निर्गुण भी। वस्तुतः होना असंभव नहीं। सगुणवादियों के अनुसार मनुष्य वस्तुतः ब्रह्म है, नर और नारायण एक है, अवतारी तथा अवतार सर्वथा अभिन्न है। “नरो नारायणश्चैव तत्वमेकम् द्विधा कृतम्’- नर नारायण वस्तुतः एक तत्त्व है, उनका द्वैधीकरण व्यावहारिक बुद्धि का भ्रम मात्र है।
(2) अवतार भावना-
अवतारवाद मध्यकालीन सगुण उपासना का एक प्रमुख अंग है। सगुण भक्त कवियों का विश्वास है कि वह असीम सीमा को स्वीकार करके अपनी इच्छा से लीला के लिए अवतरित होते हैं। वैसे तो सारा संसार उस भगवान का अवतार है किन्तु इन वैष्णवों की अवतार- भावना के मूल में गीता का विभूति एवं ऐशवर्य योग काम कर रहा है। ज्ञान, कर्म, वीर्य, ऐश्वर्य, प्रेम भगवान की विभूतियाँ हैं। जो मनुष्य किसी क्षेत्र में कौशल दिखाते हैं वे भगवान की विभूति को साकार करते हैं। अतः गुणातीत और सगुण, असीम और ससीम में कोई विरोध नहीं है।
(3) लीला रहस्य-
सगुण काव्य में लीलावाद का अत्यंत महत्त्व है। चाहे तो तुलसी के मर्यादा पुरुषोत्तम हों और चाहे सूर के ब्रजराज कृष्ण हों दोनों लीलाकारी हैं। उनके अवतार को उद्देश्य लीला है और लीला का उद्देश्य कुछ नहीं, लीला लीला होती है। तुलसी के लोकरक्षक राम रावण का संहार लीनार्थ करते हैं। तुलसी के लिए समस्त रामचरित लीलामय है। भले ही आज का आलोचक तुलसी के रामचरित मानस में वस्तु-संग्रंथन तथा मनोविज्ञान की दृष्टि से अनेक दोष निकाले जैसे- राम को पहले से पता है कि सीता का अपहरण होने वाला है और इस सम्बन्ध में वे सीता को पहले ही सूचित भी कर देते हैं। इस प्रकार राम के रुदन और विरह-व्यथा, सीता की बेबसी तथा विलाप अपनी मर्मस्पर्शिता खो देते हैं, पर इस सम्बन्ध में तुलसी के दृष्टिकोण को भूल नहीं जाना चाहिए। वे किसी भी ऐसी घटना या प्रसंग का समावेश नहीं करना चाहते जहां राम की अनीशता ध्वनित हो। राम के लिए कुछ भी प्राप्तवय व अनुसन्धेय नहीं है। तुलसी ऐसे प्रसंगों में राम की लीला कहकर उन्हें आलोच्य नहीं रहने देते। कृष्ण तो हैं ही लीला-रमण और आनन्दसन्दोह। एक ओर जहा वे लीला करते समस्त गोपीजनों को, जिन्होंने लोक की सारी मर्यादाओं का अतिक्रमण कर दिया है, आकर्षित करते हैं वहीं दूसरी ओर अधासुर एवं बकासुर राक्षसों का लीला ही लीला मं बध कर देते हैं। ईश्वर सर्वत्र आप्तकाम है। उसने किसी इच्छा से संसार की सृष्टि नहीं की बल्कि यह तो. लीला का परिणाम है। सच तो यह है कि सगुण भक्ति लीला में सच्चिदानन्द के आनन्द का जंगत स्वरूप देखता है। लीला और आनन्द ध्वनि और प्रतिध्वनि के समान परस्पर सम्पृक्त हैं। हां, इसी सम्बन्ध में यह स्मरण रखना होगा कि लीला में किसी प्रकार की वर्जनशीलता या लोकविद्वेष भावना नहीं है। तथ्यर तो यह है कि जीवन और दर्शन की चरम सफलता लीलावाद में निहित है।
(4) रूपोपासना-
सगुण साधना में रूपोपासना का विशिष्ट स्थान है। शंकर ने नाम और रूप को मायाजन्य माना है। शतपथ ब्राह्मण में ब्रह्म को अनाम और कहा गया है, परन्तु सगुण साधना में भगवान के नाम और रूप आनन्द के अक्षय कोश हैं। नाम और रूप से ही वैधी भक्ति का आरंभ होता है। सगुण भक्त को भगवान के नाम और रूप इतना विमुग्ध कर लेते हैं कि लौकिक छवि उसके पथ में बाधक नहीं बन सकती। आरंभ में सगुणोपासक नाम रूप-युक्त अर्चावतार अथवा मूर्ति के समक्ष आकर उपासना करता है परन्तु निरंतर भावना, चिन्तन एवं गुण-कीर्तन से वह अपने आराध्य में ऐसा सन्निविष्ट हो जाता है कि उसे किसी भौतिक उपकरण की आवश्यकता ही नहीं रहती। रूप ही श्रृंगार रस को जगाता है। बृजेश कृष्ण रस-राज श्रृंगार के अधिष्ठाता देवता हैं। यही कारण है कि कृष्ण भक्ति शाखा में कृष्णाश्रित श्रृंगार का सांगोपांग वर्णन है। पुष्टिमार्ग कवि के लिए लौकिक श्रृंगार के सभी उपकरण मोहन के मादन-भाव के सामने फीके हैं। उनके कृष्ण भूमा सौन्दर्य की अतुल राशि हैं। यद्यपि तुलसी के राम में शील, शक्ति, सौन्दर्य का समन्वय है और तुलसी का काव्य समविभक्तांग है फिर भी उनके राम अपनी अप्रतिम छवि से त्रिभुवन को लजाने वाले हैं। हिन्दी के मध्यकालीन, भक्ति साहित्य में भक्ति के गृहीत स्वरूपों- दास, सख्य, वात्सल्य और दाम्पत्य में रूप और रस का एक विलक्षण महत्त्व है।
(5) गुरु की महत्ता-
सगुण भक्तों के यहां भी निर्गुण सन्तों और सूफियों के समान गुरु का अत्यंत महत्त्व है। इस साहित्य में गुरु ब्रह्म का प्रतिनिधि और अंश है। सगुण साहित्यकारों ने संसार की सब वस्तुओं से गुरु को उच्चतम माना है और उसकी महत्ता की भूरि-भूरि श्लाघा की है। सूर और तुलसी का साहित्य इस कथ्य का सुन्दर निदर्शन है। नन्ददास ने बल्लभ को ब्रह्म के रूप में ग्रहण किया है। इनका विश्वास है कि गुरु के बिना ज्ञान असंभव है और ज्ञानाभाव में मोक्ष प्राप्त नह ईं हो सकता। ज्ञान से भक्ति और भक्ति से उसका सायुज्य प्राप्त होता है।
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