सामाजिक तथ्यों की अध्ययन पद्धतियों का उल्लेख कीजिए।
सामाजिक अनुसंधान की प्रकृति वैज्ञानिक है और सामाजिक प्रघटनाओं के अध्ययन में वैज्ञानिक पद्धति का प्रयोग किया जाता है। ये वैज्ञानिक पद्धतियाँ तर्क पर भी आधारित हो सकती हैं और प्रयोग पर भी। सामाजिक तथ्यों की खोज के लिए प्राचीन साहित्य से भी सहायता ली जाती है और प्रत्यक्ष क्षेत्र-निरीक्षण से भी। किसी भी सामाजिक प्रघटना के रहस्य का उद्घाटन उसके ऐतिहासिक निर्वचन से भी हो सकता है और तुलनात्मक विश्लेषण से भी। इसी प्रकार जटिल तथा अमूर्त मानव-सम्बन्धों का ज्ञान उनके गुणात्मक विवेचन से भी सम्भव होता है तथा गणनात्मक सांख्यिकीय प्रकटीकरण से भी। वास्तव में किस समस्या के अध्ययन में कौन-सी प्रणाली सर्वोत्तम तथा सफलतम होगी, इसका पूर्वानुमान पूर्ण रूप से नहीं किया जा सकता, क्योंकि सामाजिक तथ्य गतिशील हैं और अध्ययन के दौरान नई प्रणालियों का प्रयोग आवश्यक हो जाता है। सामान्यतः सामाजिक तथ्यों की प्रकृति के आधार पर उन्हें अध्ययन करने की पद्धतियों को दो मुख्य श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है।
1. गुणात्मक पद्धतियाँ (Qualitative Methods) –
सामाजिक तथ्य अधिकांशतः अमूर्त तथा गुणात्मक होते हैं, अतः इनके अध्ययन के लिए प्राचीन समय से ही अधिकतर गुणात्मक प्रणालियों का प्रयोग होता रहा है। गुणात्मक विधियों के द्वारा सामाजिक तथ्यों का अध्ययन तर्कशास्त्रीय आधार पर किया जाता है। आगमन (Inductive) तथा निगमन (Deductive) पद्धतियों के आधार पर भिन्न-भिन्न प्रघटनाओं का अध्ययन करके निष्कर्ष निकाले जाते हैं। गुणात्मक पद्धतियाँ कुछ निश्चित सिद्धांतों पर आधारित होती हैं, जिनके आधार पर सामाजिक प्रघटनाओं का अध्ययन किया जाता है। इनमें आंकड़ों, गणनाओं, संख्याओं अथवा समको, विभिन्न मापों या गणितीय सूत्रों, चिन्हों या संकेतों, इत्यादि की आवश्यकता का अभाव हो सकता हैं। सच तो यह है कि इन्हें वास्तविकता या यथार्थता की दृष्टि से उतना अधिक विश्वसनीय नहीं समझा जाता, जितना कि परिमाणात्मक पद्धतियों को माना जाता है। गुणात्मक पद्धतियों के आधार पर किए गये अध्ययन को चाहे कितना ही वैज्ञानिक क्यों न बना दिया जाय, इसमें तथ्यों पूर्ण विश्लेषण की क्षमता कम होती है। गुणात्मक पद्धतियों के द्वारा अध्ययन करना संख्यात्मक पद्धतियों की अपेक्षा अधिक कठिन माना जाता है और इन्हें अपनाने तथा प्रयोग करने में अधिक सावधानी की आवश्यकता भी पड़ती है। सामाजिक अनुसंधान में गुणात्मक विधियाँ विशेष रूप से प्रयोग में लायी जाती है, क्योंकि अमूर्त गुणात्मक तथा जटिल सामाजिक प्रघटनाओं की गणना या माप कठिन होती है। उनको जाना जा सकता है, समझा जा सकता है, पर मापा नहीं जा सकता। अंधविश्वास, रूढ़िवादिता, धोखा, प्रेम, इत्यादि का अनुभव किया जा सकता है किन्तु उनकी मात्रा बताना या उनका चित्रण करना कठिन है। इसी कारण से सामाजिक अनुसंधान में गुणात्मक विधियों का अधिक महत्व है।
2. गणनात्मक पद्धतियाँ (Quantitative Methods) –
जहाँ सामाजिक तथ्यों के परिणाम तथा संख्या आदि का वर्णन संभव होता है, वहाँ सामाजिक अनुसंधान में गणनात्मक विधियों का उपयोग किया जाता है। इन विधियों के अनुसार तथ्यों की निश्चित माप दी जा सकती है। सामाजिक प्रघटनाओं की माप दो प्रकार से की जाती है-
(1) जो प्रघटनाएँ संख्या या आंकड़ों अथवा समंकों में स्पष्ट की जा सकती हैं, उनकी प्रत्यक्ष माप (Direct Measurement) की जाती है, जैसे ‘परिवार का आकार’, आय-व्यय, शिक्षा, इत्यादि।
(2) कुछ प्रघटनाएँ ऐसी होती हैं, जिनकी प्रत्यक्ष माप संभव नहीं होती तथा जिनका मापन केवल अप्रत्यक्ष रूप में ही हो सकता है। अतः उनके लिए कुछ पैमाने निर्धारित किये जाते हैं, जिन्हें ‘समाजमितीय पैमाने’ (Sociometric Scales) कहते है। ‘रहन सहन का स्तर, अभिरुचियाँ तथा दृष्टिकोण’ आदि की इन पैमानों द्वारा ‘अप्रत्यक्ष माप’ (Indirect measurement) से ली जाती है।
इन पद्धतियों के अपनाने से निष्कर्षों में निश्चितता तथा सूक्ष्मता तो आती है, साथ ही ये पद्धतियाँ सामाजिक अध्ययनों में वास्तविकता तथा प्रामाणिकता को भी प्रोत्साहित करती है और परिणामों की जाँच को भी सम्भव बनाती हैं। इन्हें प्रयोग करने के लिए विशेष तकनीकी जानकारी की आवश्यकता पड़ती है, अतः केवल कुशल तथा अनुभवी अध्ययनकर्ता ही इनका उपयोग कर सकते हैं। इनमें वैधानिकता का दृष्टिकोण अधिक पाया जाता है। इन्हें अधिक विश्वसनीय माना जाता है। इसलिए आजकल प्रायः गुणात्मक की अपेक्षा परिमाणात्मक पद्धतियों को विभिन्न सामाजिक तथ्यों को ज्ञात करने तथा प्रघटनाओं का अध्ययन करने में अपनाया जाना एक सामान्य तरीका बन गया है।
फिलिप्स के अनुसार, “समाजशास्त्र में अनुसंधान के लिए अधिक प्रयोग किया जाने वाला तरीका ‘सर्वेक्षण’ है और गणनात्मक स्वरूप (Quantitative Design) तथा विश्लेषण प्रविधियों (Analysis Techniques) के अनेक तरीके विकसित हो गये हैं।” गुणानात्मक समाजशास्त्री कार्यशील इकाई की व्यवस्था को समझने के लिए सहभागी अवलोकन का तरीका प्रयोग कर सकता है। सर्वेक्षण-अनुसंधान करने वाला विश्लेषक विभिन्न प्रकार के चलों परिवत्यों (Variables) की सहायता से, परिमाणात्मक विश्लेषण प्रविधियों के द्वारा अपना कार्य करता है। यह वैषयिक अनुमापों (Objective Scales) की रचना भी करता है।
गणनात्मक अध्ययनों में उपरोक्त गुण और महत्व के होते हुए भी इनमें कुछ सीमाएँ भी पाई जाती हैं तथा इन्हें प्रत्येक स्थिति में प्रयोग नहीं किया जा सकता है। जटिल प्रघटनाओं के सन्दर्भ (Reference) को समझने में ये पद्धतियाँ असफल रहती हैं। ये तरीके विभिन्न जटिल स्थितियों के लिए वैषयिक प्रमाण प्रदान नहीं कर सकते हैं। प्रयोगात्मक मनोवैज्ञानिक या परिमाणात्मक सर्वेक्षक का कार्य-क्षेत्र सीमित हो जाता है तथा सैद्धांतीकरण और भविष्यवाणी को इन पद्धतियों के द्वारा अनावश्यक प्रोत्साहन मिल जाता है। कभी-कभी इस धारणा में भी संदेह उत्पन्न हो जाता है कि परिमाणात्मक सामाजिक विज्ञान ज्ञान के मार्ग में निश्चित रूप से वृद्धि करता है।
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