समाजशास्‍त्र / Sociology

संरचनात्मक-प्रकार्यात्मक परिप्रेक्ष्य की उपयोगिता तथा इसकी सीमाएं -sociology in Hindi

 संरचनात्मक-प्रकार्यात्मक परिप्रेक्ष्य की उपयोगिता तथा इसकी सीमाएं 

 संरचनात्मक-प्रकार्यात्मक परिप्रेक्ष्य की उपयोगिता

संरचनात्मक-प्रकार्यात्मक परिप्रेक्ष्य की उपयोगिता

 संरचनात्मक-प्रकार्यात्मक परिप्रेक्ष्य की उपयोगिता

आज समाजशास्त्रीय अध्ययनों में संरचनात्मक-प्रकार्यात्मक परिप्रेक्ष्य एक प्रमुख सिद्धान्त माना जाता है। यह परिप्रेक्ष्य इस आधारभूत मान्यता पर आधारित है कि समाज या सामाजिक संरचना का प्रत्येक अंग व इकाई सम्पूर्ण समाज या संरचना को बनाए रखने के लिए निश्चित योगदान प्रदान करती है। समग्रता को बनाए रखने में योगदान देने के कारण इकाइयाँ अपरिहार्य एवं अनिवार्य हैं। यह इस मान्यता पर भी आधारित है कि समय के विभिन्न अंगों की सामाजिक क्रियाएँ परस्पर सम्बन्धित हैं। यह परिप्रेक्ष्य प्रारम्भिक समाजशास्त्र एवं मानवशास्त्र में प्रयोग की जाने वाली उद्विकासवादी, ऐतिहासिक एवं तुलनात्मक पद्धतियों की सीमाओं को दूर करने के प्रयासों के परिणामस्वरूप विकसित किया गया है। संरचनात्मक-प्रकार्यात्मक परिप्रेक्ष्य सामाजशास्त्रीय एवं मानवशास्त्रीय अनुसन्धान में आज एक लोकप्रिय परिप्रेक्ष्य माना जाता है।

इसकी उपयोगिता इसके निम्नलिखित गुणों द्वारा स्पष्ट की जा सकती है-

(1) वास्तविक समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य (Real Sociological perspective)- किंग्स्ले डेविस (Kingsley Davis) ने केवल संरचनात्मक-प्रकार्यवाद को ही वास्तविक समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य माना है क्योंकि यह परिप्रेक्ष्य अन्य परिप्रेक्ष्यों की अपेक्षा सामाजिक घटनाओं के यथार्थ अध्ययन में कहीं अधिक उपयोगी है।

(2) सामाजिक एकता एवं संतुलन के अध्ययन में सहायक (Helpful in studying Social unity and equilibrium)- संरचनात्मक-प्रकार्यात्मक परिप्रेक्ष्य इस मान्यता पर आधारित है कि प्रत्येक इकाई की अपनी एक विशिष्ट भूमिका या कार्य होता है और सभी इकाइयाँ परस्पर सम्बन्धित हैं तथा समय को बनाए रखने में अपना योगदान देती हैं। इसलिए यह परिप्रेक्ष्य सामाजिक एकता एवं इकाई में पाए जाने वाले सन्तुलन के अध्ययन में अत्यधिक सहायक है।

(3) इकाइयों के परस्पर सम्बन्धों के अध्ययन में सहायक (Helpful in studying inter-relationships between different parts)- यह परिप्रेक्ष्य केवल सामाजिक इकाइयों के प्रकार्यों के अध्ययन में ही सहायक नहीं है अपितु विभिन्न सामाजिक इकाइयों के बीच पाए जाने वाले प्रकार्यात्मक सम्बन्धों का अध्ययन करने में भी सहायक है। क्योंकि किसी एक इकाई में परिवर्तन अन्य इकाइयों एवं संपूर्ण व्यवस्था को प्रभावित करता है, अतः यह कुछ सीमा तक परिवर्तनों के अध्ययनों में भी सहायक है।

(4) वैज्ञानिक अध्ययनों में सहायक (Helpful in scientific studies)- संरचनात्मक-प्रकार्यात्मक परिप्रेक्ष्य में क्योंकि काल्पनिक तथ्यों का सहारा न लेकर वास्तविकता का अध्ययन किया जाता है अतः इस पद्धति ने समाजशास्त्र को एक विज्ञान बनाने में सहायता दी है। इसके द्वारा किए गए अध्ययन ऐतिहासिक एवं तुलनात्मक दृष्टिकोणों द्वारा किए गए अध्ययनों की अपेक्षा अधिक वैज्ञानिक हैं। यह पद्धति वस्तुनिष्ठ कारकों को स्वीकार करके समाजशास्त्रीय विवेचना को अधिक वैज्ञानिक बनाने में सहायक है।

संरचनात्मक-प्रकार्यात्मक परिप्रेक्ष्य की प्रमुख सीमाएँ

संरचनात्मक-प्रकार्यात्मक परिप्रेक्ष्य समाजशास्त्रीय अध्ययनों में उपयोगी होते हुए भी पूर्ण रूप से दोषमुक्त नहीं है। इसकी प्रमुख सीमाएँ निम्नलिखित हैं-

(1) एकपक्षीय अध्ययन (One-sided studies)- संरचनात्मक प्रकार्यात्मक परिप्रेक्ष्य समाज के केवल एक पहलू अर्थात् विभिन्न अंगों में पाई जाने वाली एकता तथा संतुलन के अध्ययन पर बल देने के कारण एकपक्षीय है। यह सिद्धान्त सामाजिक संघर्ष के महत्व को कम करता है।

(2) तुलनात्मक अध्ययनों में अनुपयोगी (Unsuitable for comparative studies)-संरचनात्मक-प्रकार्यात्मक परिप्रेक्ष्य तुलनात्मक अध्ययनों में सहायक नहीं है क्योंकि इससे हम सामाजिक इकाई के परस्पर अंगों एवं उनके कार्यों का ही अध्ययन कर सकते हैं। प्रत्येक सामाजिक इकाई अन्य इकाइयों से विशिष्ट रूप से जुड़ी होती है जिसका पता हमें प्रकार्यवाद से नहीं चल पाता। तुलनात्मक प्रकार्यवाद अभी तक वाद-विवाद का विषय बना हुआ है।

(3) उपयोगितावादी व्याख्या (Teleological explanation)- अनेक विद्वानों ने यह मत व्यक्त किया है कि संरचनात्मक-प्रकार्यात्मक परिप्रेक्ष्य वास्तविक अर्थ में एक पद्धति न होकर केवल मात्र उपयोगितावादी व्याख्या ही है जो कि समाज में पाई जाने वाली प्रत्येक वस्तु एवं घटना को उपयोगी बताकर प्रस्तुत करती है।

(4) परिवर्तन के अध्ययन में अनुपयुक्त (Unsuitable for studying change)– संरचनात्मक-प्रकार्यात्मक परिप्रेक्ष्य सामाजिक परिवर्तन की व्याख्या करने में अधिक सहायक नहीं है क्योंकि इसमें सनतुलन को सामान्य घटना तथा परिवर्तन को असामान्य घटना माना जाता है। कुछ आलोचकों का तो यहाँ तक कहना है कि परिवर्तन का अध्ययन प्रकार्यवाद के अधिकार क्षेत्र से बाहर की बात है।

(5) उपकल्पनाओं का परीक्षण कठिन (Difficult to test Hypotheses)- संरचनात्मक-प्रकार्यात्मक परिप्रेक्ष्य उपकल्पनाओं के परीक्षण में अधिक सहायक नहीं है। अतः इसकी सामाजिक अनुसन्धान में उपयोगिता अत्यन्त सीमित है।

(6) रूढ़िवादी विचारधारा (Conservative ideology)- अनेक विद्वानों ने संरचनात्मक-प्रकार्यात्मक परिप्रेक्ष्य को एक रूढ़िवादी विचारधारा बताया है क्योंकि इसमें प्रत्येक अंग को समाज के अस्तित्व को बनाए रखने के लिए प्रकार्यात्मक एवं अपरिहार्य माना जाता है। प्रत्येक अंग एवं इकाई को प्रकार्यात्मक एवं अनिवार्य मानना उचित नहीं है।

कुछ भी हो प्रकार्यवाद आज भी समाजशास्त्र एवं मानवशास्त्र का एक महत्वपूर्ण परिप्रेक्ष्य माना जाता है। टी0 बी0 बॉटोमोर (T.B. Bottomore) का कहना है कि संरचनात्मक-प्रकार्यवाद की सबसे अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि एक सरल विचार को अत्यधिक महत्वपूर्ण और स्पष्ट कर दिया गया है कि हर विशिष्ट समाज में विभिन्न सामाजिक क्रियाएँ परस्पर सम्बन्धित हैं। परन्तु अभी भी यह खोज का विषय है कि प्रत्येक समाज की कौन-सी क्रियाएँ सम्बन्धित हैं और कैसे सम्बन्धित हैं।

संरचनात्मक-प्रकार्यात्मक परिप्रेक्ष्य का प्रयोग दुर्थीम (Durkheim), मर्टन (Merton) तथा पारसन्स (Parsons) इत्यादि विद्वानों ने किया है। दुर्थीम ने श्रम-विभाजन (Division of Labour) तथा धर्म (Religion) के अपने अध्ययनों में प्रकार्यात्मक पद्धति का वैज्ञानिक ढंग से प्रयोग किया है। इनके अनुसार श्रम-विभाजन का कार्य सभ्यता का निर्माण करना नहीं है अपितु समूहों तथा व्यक्तियों को एक सूत्र में बाँधकर समाज में एकता लाना है और समूह एवं व्यक्तियों में यह एकता श्रम-विभाजन के बिना नहीं आ सकती। इसी प्रकार उन्होंने धर्म को भी एक सामाजिक तत्थ्य माना।

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