संस्कृति की परिभाषा, प्रकार एवं विशेषताएंँ
अर्थ एवं परिभाषा- संस्कृति एक ऐसा पर्यावरण है जिसमें रहकर मनुष्य एक सामाजिक प्राणी बनता है। वास्तविकता यह है कि यदि मनुष्य से उसकी संस्कृति छीन ली जाय तो वह पशु बन जायेगा। प्रसिद्ध समाजशास्त्री हावेल ने “संस्कृति को एक अनोखी मानव घटना कहा है। यह संस्कृति ही है जो व्यक्ति को दूसरे व्यक्तियों से, एक समूह से दूसरे समूह को और एक समाज को अन्य समाजों से अलग करती है।”
कोबर ने लिखा है, “संस्कृति सदैव एक ऐसी विशेषता है जिसे अपनाया जा सके उपयोग किया जा सके, जिसमें विश्वास हो और जिस पर अनेक व्यक्तियों का अधिकार हो। अपने अस्तित्व के लिए यह अपने सम्पूर्ण समूह के जीवन पर निर्भर होती है।” इस दृष्टिकोण से संस्कृति के संचरण में सामाजिक सीखना तथा अनुकरण का विशेष स्थान है।
टायलर के अनुसार, “संस्कृति वह जटिल समग्रता है, जिसमें ज्ञान, विश्वास, कला, आचार, कानून, प्रथा तथा ऐसी ही अन्य क्षमताओं और आदतों का समावेश रहता है जिन्हें मानव समाज का सदस्य होने के नाते प्राप्त करता है।
पिडिंगटन के अनुसार, “संस्कृति उन भौतिक तथा बौद्धिक साधनों या उपकरणों का सम्पूर्ण योग है जिनके द्वारा मानव अपनी प्राणिशास्त्रीय तथा सामाजिक आवश्यकताओं की संतुष्टि और पर्यावरण से अनुकूलन करता है।”
राबर्ट बीरस्टीड के शब्दों में, “संस्कृति एक जटिल सम्पूर्णता है जिसमें वे सभी विशेषताएँ सम्मिलित हैं जिन पर हम विचार करते हैं, कार्य करते हैं और समाज का सदस्य होने के नाते उन्हें अपने पास रखते हैं।”
मैकाइवर एवं पेज के अनुसार, “हमारे रहने तथा सोचने के तरीकों में, रोज की अन्तक्रियाओं में, कला में, धर्म में, मनोरंजन तथा आमोद-प्रमोद में संस्कृति हमारी प्रकृति की अभिव्यक्ति ही है।”
मैलिनोव्स्की के अनुसार- “संस्कृति प्राप्त आवश्यकताओं को एक व्यवस्था और उद्देश्यात्मक क्रियाओं की संगठित व्यवस्था है।”
हॉबल के अनुसार, “संस्कृति सम्बन्धित सीखे हुए व्यवहार प्रतिमानों का सम्पूर्ण योग है, जो कि एक समाज के सदस्यों की विशेषताओं को बतलाता है और जो इसलिए प्राणिशास्त्रीय विरासत का परिणाम नहीं होता।”
बोगार्डस के अनुसार, “संस्कृति किसी समूह के कार्य करने व सोचने की समस्त विधियाँ हैं।”
लुण्डबर्ग के अनुसार, “संस्कृति को उस व्यवस्था के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जिसमें हम सामाजिक रूप से प्राप्त और आगामी पीढ़ियों को संचरित कर दिये जाने वाले निर्णयों, विश्वासों, आचरणों तथा व्यवहार के परम्परागत प्रतिमानों से उत्पन्न होने वाले प्रतीकात्मक और भौतिक तत्वों को सम्मिलित करते हैं।” संस्कृति के प्रकार ऑगबर्न तथा अन्य प्रमुख विद्वानों ने संस्कृति को दो भागों में विभाजित किया है-
(क) भौतिक संस्कृति- मनुष्यों ने अपनी आवश्यकताओं के कारण अनेक अविष्कारों को जन्म दिया है। ये आविष्कार हमारी संस्कृति के भौतिक तत्व माने जाते हैं। इस प्रकार भौतिक संस्कृति उन आविष्कारों का नाम है, जिनको मनुष्य ने अपनी आवश्यकताओं के कारण जन्म दिया है। यह भौतिक संस्कृति मानव-जीवन के बाह्य रूप से सम्बन्धित है। भौतिक संस्कृति को ही सभ्यता कहा जाता है। मोटर, रेलगाड़ी, हवाई जहाज, मेज-कुर्सी, बिजली का पंखा आदि सभी भौतिक तत्व भौतिक संस्कृति अथवा सभ्यता के ही प्रतीक हैं। संस्कृति के भौतिक पक्ष मैथ्यू आरनोल्ड, अल्फर वेबर तथा मैकाइवर और पेज ने सभ्यता कहा है।
(ख) अभौतिक संस्कृति- मानव जीवन को संगठित करने के लिए मनुष्य ने अनेक रीति-रिवाजों, प्रथाओं, रूढ़ियों आदि को जन्म दिया है। ये सभी तत्व मनुष्य की अभौतिक संस्कृति के रूप हैं। ये तत्व अमूर्त हैं। इसलिए संस्कृति मानव-जीवन के उन अमूर्त तत्वों का योग है, जो नियमों, उपनियमों, रूढ़ियों, रीति-रिवाजों आदि के रूप में मानव व्यवहार को नियंत्रित करते हैं। इस प्रकार संस्कृति जीवन के अमूर्त तत्वों को कहते हैं। वास्तव में संस्कृति के अन्तर्गत वे सभी चीजें सम्मिलित की जा सकती हैं जो व्यक्ति की आंतरिक व्यवस्था को प्रभावित करती हैं। दूसरे शब्दों में, संस्कृति में वे सभी पदार्थ सम्मिलित किए जा सकते हैं, जो मनुष्य के व्यवहारों को प्रभावित करतें हैं। टायलर ने लिखा है कि, “संस्कृति मिश्रित-पूर्ण व्यवस्था है, जिसमें समस्त ज्ञान, विश्वास, कला, नैतिकता के सिद्धान्त, विधि-विधान, प्रथाएँ एवं अन्य समस्त योग्यताएँ सम्मिलित हैं, जिन्हें व्यक्ति समाज का सदस्य होने के नाते प्राप्त करता है।”
संस्कृति के लक्षण/विशेषताएँ
(1) संस्कृति सीखी जाती है (Culture is learned) – लुण्डबर्ग के अनुसार, “संस्कृति व्यक्ति की जन्मजात प्रवृत्तियाँ अथवा जैविकीय विरासत से सम्बन्धित नहीं होती, बल्कि यह सामाजिक सीख व अनुभवों पर आधारित है।” इस प्रकार समाज में प्रत्येक अनुभव व प्रत्येक आविष्कार संस्कृति का अंग बन जाता है। यह हमेशा ध्यान रखना चाहिए कि हमारे सभी सीखे हुए व्यवहार संस्कृति नहीं होते। हम केवल उन्हीं व्यवहारों को संस्कृति का अंग मानते हैं जो एक बड़े समूह की विशेषता हो। किसी एक व्यक्ति या दो व्यक्तियों का व्यवहार संस्कृति का निर्माण नहीं करता।
(2) प्रत्येक समाज की अपनी एक विशिष्ट संस्कृति होती है (Culture is distinctive in every Society) – प्रत्येक समाज की अपनी एक विशिष्ट संस्कृति होती है। इसका प्रमुख कारण यह है कि प्रत्येक समाज की भौगोलिक तथा सामाजिक परिस्थितियाँ भी अलग होती हैं। इसके अतिरिक्त संस्कृति पूर्णतया आविष्कार का परिणाम होती है। आविष्कार करने की आवश्यकता मानव आवश्यकताओं के कारण होती है और प्रत्येक समाज में भिन्न-भिन्न होती हैं। इसलिए संस्कृति का रूप भी प्रत्येक समाज में अलग-अलग होता है।
(3) संस्कृति में सामाजिक गुण निहित होता है (Culture has Social Virtue) – संस्कृति एक सामाजिक घटना है क्योंकि इसका विकास मानवीय अन्त:क्रियाओं के माध्यम से होता है। संस्कृति इसलिए भी सामाजिक है कि इस पर किसी एक या दो व्यक्तियों का एकाधिकार नहीं होता बल्कि समूह का अधिकार होता है। संस्कृति में सभी सामाजिक गुणों का समावेश होता है। जैसे-प्रथा, परम्परा, धर्म, कानून, लोकाचार, जनरीति, कला, भाषा, आविष्कार आदि। इससे संस्कृति पूर्णतया एक सामाजिक तथ्य प्रतीत होती है।
(4) संस्कृति समूह का आदर्श होता है (Culture is Ideal of a group) – संस्कृति में व्यवहार के आदर्श रूप सम्मिलित होते हैं। व्यक्ति इन्हीं आदर्शों के अनुरूप व्यवहार करने का प्रयत्न करता है। संस्कृति व्यक्ति के व्यवहार का मापदण्ड हुआ करती है। उसके किसी भी व्यवहार का औचित्य सांस्कृतिक प्रतिमानों से आँका जाता है।
(5) संस्कृति में परिवर्तित होने का गुण है (Culture has a changing Quality) – संस्कृति में एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी के लिए हस्तांतरित होने की विशेषता पायी जाती है। संस्कृति में निरन्तर कुछ न कुछ परिवर्तन होता रहता है। ये परिवर्तन आन्तरिक एवं बाह्य दोनों प्रकार के कारणों से हो सकते हैं। संस्कृति के उद्देश्य मानव आवश्यकताओं की पूर्ति करना होता है। अत: इन आवश्यकताओं के तथा उनसे सम्बन्धित परिस्थितियों के बदलने के साथ-साथ संस्कृति में भी परिवर्तन होना स्वाभाविक है। इसके अतिरिक्त जब दो संस्कृतियाँ एक-दूसरे के सम्पर्क में आती हैं तो दोनों में ही कुछ न कुछ परिवर्तन होने लगता है।
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