सामाजिक व्यवस्था के संरचनात्मक
सामाजिक व्यवस्था के संरचनात्मक तत्त्वों में पारसन्स ने चार तत्त्वों का उल्लेख किया है- (1) नातेदारी व्यवस्था, (2) सामाजिक स्तरीकरण, (3) शक्ति-व्यवस्था; तथा (4) धर्म तथा मूल्य संगठन।
इन तत्त्वों की विवेचना निम्नलिखित ढंग से की जा सकती है।
1. सामाजिक व्यवस्था के प्रथम संरचनात्मक तत्त्व नातेदारी व्यवस्था का अपना एक महत्त्व है। “नातेदारी व्यवस्था में समाज द्वारा मान्यता प्राप्त वे सम्बन्ध आ सकते हैं जोकि अनुमानित और रक्त-सम्बन्धों पर आधारित हों।” वास्तव में नातेदारी व्यवस्था वह विशिष्ट तथा समाज द्वारा मान्यता प्राप्त सुव्यवस्थित सम्बन्ध-शृंखला है जोकि एक सामाजिक प्राणी को अन्य व्यक्तियों के साथ संयुक्त करती है। नातेदारी व्यवस्था के दो प्रमुख अंग हैं—विवाह-सम्बन्धी नातेदारी तथा रक्त-सम्बन्धी नातेदारी सामाजिक व्यवस्था के सन्दर्भ में इन दोनों ही प्रकार की नातेदारी व्यवस्था के कुछ विशिष्ट कार्य होते हैं-प्रथमताः, नातेदारी व्यवस्था व्यक्ति के पद तथा कार्य के निर्धारण में महत्त्वपूर्ण योगदान देती है। उदाहरणार्थ, विवाह-सम्बन्धी नातेदारी व्यस्था के अन्तर्गत विवाह के पश्चात् एक पुरूष केवल एक पति ही नहीं बनता, बल्कि बहनोई, दामाद, जीजा, फूफा, ननदोई, मौसा, साढू आदि का पद भी उसे प्राप्त हो जाता है और उन पदों से सम्बन्धित कार्यों को भी उसे करना पड़ता है या करने की आशा उससे की जाती है। इस अर्थ में नातेदारी व्यवस्था व्यक्ति के कार्यों तथा पदों को निश्चित रूप प्रदान करने तथा उन्हें नियमित करने में महत्त्वपूर्ण होती है। द्वितीयतः समाजीकरण की प्रक्रिया संसार के सभी समाजों में परिवार में ही प्रारम्भ होती है जोकि नातेदारी व्यवस्था की ही एक महत्त्वपूर्ण इकाई है। तृतीयतः नातेदारी व्यवस्था के अन्तर्गत कुछ निषिद्ध निकटाभिगमन या निकटाभिगमन नियम होते हैं जोकि स्त्री-पुरूषों, विशेषकर निकट के सम्बन्धियों के बीच यौन सम्बन्ध को नियमित व निषिद्ध करते हैं। यौन सम्बन्धों को नियमित करना या एक सीमित सीमा के अन्दर रखना सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखने के लिए आवश्यक है, क्योंकि यौन सम्बन्धों के अनियमित होने से सामाजिक संगठन व व्यवस्था को भी धक्का लगता है। इसका कारण यह है कि यौन सम्बन्धों पर नियन्त्रण न रहने से अनावश्यक ईर्ष्या व प्रतियोगिता बढ़ती है और वे आधारभूत बन्धन भी टूट जाते हैं जोकि सामाजिक व्यवस्था, संगठन व प्रगति के लिए आवश्यक हैं। अन्त में नातेदारी व्यवस्था विवाह आदि-सामाजिक व्यवहारों को नियमित करके एक ऐसी व्यवस्था को उन्नत करती है जोकि सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण योगदान देती है।
2. सामाजिक व्यवस्था का दूसरा संरचनात्मक तत्त्व या अंग सामाजिक स्तरीकरण है। मोटे तौर पर स्तरीकरण समाज की वह व्यवस्था है जिसके द्वारा समाज में अनेक विभिन्न आधारों पर कुछ व्यक्तियों या समहों को उच्च पद या स्थिति प्राप्त होती हे तो कुछका निम्न। इसी से यह स्पष्ट है कि सामाजिक व्यवस्था में इस स्तरीकरण का अपना महत्व है क्योंकि इसके द्वारा प्रथमत: वैयक्तिक कर्ताओं या सामूहिक कर्ताओं में पदों और उनसे सम्बन्धित कार्यों के आधार पर कांचा के पारस्परिक सम्बन्ध भी सुनिश्चित हो जाते हैं। ये दोनों ही अवस्थाएँ सामाजिक व्यवस्था अनुकूल हैं। इतना ही नहीं, सामाजिक स्तरीकरण की व्यवस्था की एक तीसरी विशेषता यह होनी है कि स्तरीकरण के सन्दर्भ में समाज कुछ अलग-अलग तरह के पुरस्कारों को निश्चित करता है जो अलग-अलग स्थिति या पद से सम्बन्धित व्यक्तियों या समूहों को दिए जा सकें। वे तीन प्रकार के होते हैं—
(अ) प्रथम प्रकार के अन्तर्गत वे वस्तुएँ हैं जो मनुष्यों के पोषण तथा आराम में सहायक हैं, इन्हें आर्थिक प्रेरणाएँ या पुरस्कार कहा जाता है।
(ब) दूसरे प्रकार के अन्तर्गत वे वस्तु हैं जिनका सम्बन्ध मनोरंजन से है, इन्हें आत्म-प्रेरणाएँ या सौन्दर्यात्मक प्रेरणाएँ या पुरस्कार कहा जाता है।
(स) तीसरे प्रकार के अन्तर्ग वे पुरस्कार आते हैं जिनसे आत्मसम्मान तथा अहम्’ का विकास होता है, इन्हें प्रतीकात्मक प्रेरणाएँ या पुरस्कार कहते है पारसन्स के अनुसार विभिन्न सामाजिक स्थितियों या पदों से सम्बन्धित पुरस्कार तथा उनका वितरण सामाजिक व्यवस्था का एक अंग है। किसी भी सामाजिक व्यवस्था के सुचारू रूप से कार्यशील होने के लिए उपरोक्त प्रकार के पुरस्कारों को विभिन्न स्थिति वाले व्यक्तियों व समूहों में असमान रूप से वितरित होना चाहिए।
3. सामाजिक व्यवस्था का तीसरा संरचनात्मक तत्त्व शक्ति-व्यवस्था है। सामाजिक व्यवस्था के अन्तर्गत आने वाले वैयक्तिक तथा सामूहिक कर्ताओं के व्यवहारों तथा अचरणों को नियमित तथा नियन्त्रित करने के लिए शक्ति-व्यवस्था की भी आवश्यकता होती है। इस शक्ति- व्यवस्था में शारीरिक शक्ति का भी समावेश होता है। सामाजिक व्यवस्था में एक कर्ता की शक्ति के सन्दर्भ में सापेक्षिक होती है, साथ ही शक्ति के आधार पर फूट उत्पन्न करने वाले संघर्षों का जन्म हो सकता है। परन्तु शक्ति-व्यवस्था के आधार पर सामाजिक व्यवस्था में विघटन उत्पन्न करने वाले तत्त्वों या प्रवृत्तियों को रोका जा सकता है।
4. सामाजिक व्यवस्था का चौथा और अन्तिम संरचनात्मक तत्त्व धर्म तथा मूल्य-संगठन है। धर्म समूह के मूल्यों और मान्यताओं की रक्षा करता है तथा समाज को वह नैतिक सूत्र प्रदान करता है जोकि समाज के विभिन्न कर्ताओं को परस्पर एक साथ बाँधता है। उसी प्रकार सामाजिक मूल्य व सामाजिक आदर्श हैं जो हमारे लिए कुछ अर्थ रखते हैं और जिन्हें हम जीवन के लिए महत्त्वपूर्ण मानते हैं। इन्हीं मूल्यों के आधार पर विभिन्न सामाजिक परिस्थितियों तथा विषयों का मूल्यांकन किया जाता है। इन्हीं मूल्यों के आधार पर कर्ताओं की मनोवृत्तियाँ पनपती हैं और वे मनोवृत्तियाँ कर्ता की उन क्रियाओं को प्रभावित करती हैं जिनके कारण सामाजिक व्यवस्था में क्रियाशीलता व स्थिरता उत्पन्न होती है। सामाजिक व्यवस्था में विघटन उत्पन्न करने वाले तत्त्वों का न पनपना इस बात पर निर्भर करता है कि विभिन्न कर्ताओं के मूल्यों में अधिक भिन्नता व उसके फलस्वरूप मूल्यों में अधिक संघर्ष की सम्भावनाएँ न हों।
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