समाजशास्‍त्र / Sociology

मर्टन के प्रकार्यवाद  एवं प्रत्यक्ष तथा परोक्ष प्रकार्य | Merton’s Functionalism

मर्टन के प्रकार्यवाद 

मर्टन के प्रकार्यवाद

मर्टन के प्रकार्यवाद  एवं प्रत्यक्ष तथा परोक्ष प्रकार्य 

मर्टन का प्रकार्यवाद का सिद्धान्त – आधुनिक समाजशास्त्रियों में आर0 के0 मर्टन का विद्वानों के विचारों का अध्ययन एवं उसका विश्लेषक प्रकया है। उसके गुण-दोषों पर प्रकाश भी है। प्रकार्य से हमारा अभिप्राय समाज के आपसी जुड़ाव में सामाजिक संस्थाओं अथवा सांस्कृतिक डाला। राबर्ट-मर्टन के सिद्धान्त को समझने से पूर्व यह भी जानना आवश्यक है कि प्रकार्य क्या कार्यकलापों की भूमिका से है। इसे इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि समाज इसलिए काम कर पाता है कि इसके बनाने वाले तत्व अर्थात सामाजिक संस्थायें और सांस्कृतिक रीति-रिवाज सामाजिक कायम रखने में अपना-अपना योगदान देते हैं। इसी योगदान को प्रकार्य की संज्ञा दी जाती है। इससे ही समाज में व्यवस्था एकता और जुड़ाव उत्पन्न होते हैं।

मर्टन के अनुसार ‘प्रकार्य’ शब्द 5 विभिन्न अर्थों में प्रयोग किया जाता है। फक्शन यानी प्रकार्य को अंग्रेजी के अर्थ में प्रयोग किया जाता है—’सार्वजनिक समारोह’। समाजशास्त्र से इस अर्थ का कोई सम्बन्ध नहीं है। इस शब्द को पेशे की तरह भी प्रयोग करते हैं। इससे भी समाजशास्त्र का कोई सम्बन्ध नहीं है। तीसरा ‘प्रकार्य’ का अर्थ किसी पद पर कार्यरत व्यक्ति को सौंपे गए काम से है। चौथे ‘फंक्शन’ शब्द का गणित में अर्थ एक तरह से लिया जाता है। मर्टन प्रकार्य के पाँचवें अर्थ को ही महत्वपूर्ण मानता है। यह अर्थ जीव-विज्ञान से लिया गया है। जहाँ इसका अर्थ ‘शरीर को बनाए रखने और उसकी देख-रेख में किसी शारीरिक प्रक्रिया के योगदान से होता है।’ प्रकार्य के सम्बन्ध में दो बातें ध्यान में रखना आवश्यक है।

1. समाज अव्यवस्थित और बेतरतीब नहीं होता। इसकी अपनी व्यवस्था एवं संरचना होती है। इसलिए समाज के विभिन्न घटकों को एक दूसरे से पृथक करके नहीं देखा जा सकता है। सभी घटक एक-दूसरे से जुड़े और बंधे होते हैं। इनमें अन्तर्निहित सम्बन्ध है। इसीलिए समाज टिका हुआ है।

2. इस अन्तर्निहित सम्बन्ध को जानना आवश्यक है कि किस प्रकार प्रत्येक घटक इस अन्तर्निहित व्यवस्था और संरचना को बनाए रखने में अपना योगदान अथवा भूमिका अभिनीत करता है। यह योगदान ही उस घटक का ‘प्रकाये’ कहा जाता है।

आर0 के0 मर्टन एक और महत्वपूर्ण तथ्य की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करना चाहता है। वह प्रश्न करता है कि सामाजिक संस्था विशेष अथवा सांस्कृतिक गतिविधि विशेष का कार्य क्या है? यह कौन निर्धारित करेगा, काम करने वाला अथवा अवलोकनकर्ता। इस प्रश्न का उत्तर इस उदाहरण से निकलता है कि विवाह का क्या प्रकार्य है? उत्तर हो सकता है कि मानवीय आवश्यकताओं और प्रेम की आवश्यकता पूर्ण करने हेतु विवाह रचाया जाता है। मर्टन कहता है कि यहाँ विवाह का व्यक्तिगत उद्देश्य है। विवाह का निष्पक्ष प्रकार्य प्रेम की पूर्ति करना नहीं है बल्कि व्यक्ति को समाज के अनुरूप गढ़ना है। अस्तु सामाजिक प्रकार्य में देखे जा सकने वाले निष्पक्ष परिणामों को ध्यान में रखा जा सकता है, स्वपरक मनोवृत्तियों को नहीं। समाजशास्त्री को प्रकार्य के निष्पक्ष परिणामों का अध्ययन करना होगा कि संस्था विशेष समाज को जोड़े रखने में कितना और किस प्रकार का योगदान करती है।

मर्टन ने प्रकार्यवाद की व्याख्या अन्यों की अपेक्षा अधिक स्पष्ट की है। उसके विचार से आधुनिक व्याख्या करने की वर्तमान पद्धति के सन्दर्भ में प्रकार्यवादी विश्लेषण अत्यधिक आशानुरूप किन्तु न्यूनाधिक क्रमबद्ध प्रणाली है। वास्तव में प्रकार्यवाद एक साथ ही विभिन्न बौद्धिक क्षेत्रों में विकसित हुआ। इस कारण इसका खण्ड विस्तार तो निश्चय ही हुआ किन्तु व्यापक रूप में विस्तार नहीं हो सका। फिर भी जिस रूप में इसका विकास और विस्तार हुआ है उससे लगता है कि भविष्य में यह अपने लक्ष्य तक अवश्य पहुँचेगा।

मर्टन के अनुसार अन्य प्रकार्यवादियों का यह विचार है कि प्रामाणिक सामाजिक क्रियाकलाप अथवा सांस्कृतिक इकाइयाँ सम्पूर्ण सामाजिक अथवा सांस्कृतिक व्यवस्था के लिए प्रकार्यात्मक होती हैं। इस प्रकार के सभी सामाजिक समाजशास्त्रीय प्रकार्यों की पूर्ति करते हैं। स्वयं मर्टन ने भी कुछ मान्यताओं को प्रस्तुत किया है।

1. प्रकार्यात्मक संगठन अथवा एकता वास्तव में एक प्रयोग सिद्ध संगठन है।
2. सामाजिक घटनायें और रीतियाँ एक समूह के लिए प्रकार्यात्मक और दूसरे के लिए सकार्यात्मक होती हैं।
3. सार्वभौमिक प्रकार्यवादी धारणा में आवश्यक परिवर्तन होने चाहिए क्योंकि एक समूह के जो भी प्रकार्यात्मक परिणाम होते हैं वे दूसरे समाजों पर लागू नहीं होते हैं।
4. प्रकार्यात्मक रूप में इकाई अपरिहार्य है इस मान्यता का भी संशोधन होना चाहिए क्योंकि एक इकाई के एक से अधिक भी प्रकार्य होते हैं। इस दृष्टि से एक इकाई विशेष की प्रकृति को विशेष परिप्रेक्ष्य में ही देखना चाहिए। मर्टन का यह भी कहना है कि प्रकार्यात्मक विश्लेषण को आदर्शात्मक नहीं माना जा सकता है।

प्रत्यक्ष तथा परोक्ष प्रकार्य- मर्टन ने प्रकार्य के दो प्रकारों की व्याख्या की। उसके विचार से कुछ प्रकार्य प्रत्यक्ष होते हैं, जिन्हें हम वैषयिक और स्वीकृत भी कह सकते हैं। इन स्वीकृत प्रकार्यों के साथ अनजाने या स्वाभाविक सम्बद्धता के कारण कुछ ऐसे परिणाम भी हो जाते हैं, जिनकी पहले से कल्पना नहीं होती और न ही वे स्वीकृत होते हैं। इन्हें मर्टन ने परोक्ष प्रकार्य कहा है।

प्रत्यक्ष प्रकार्य- प्रत्यक्ष प्रकार्य की परिभाषा करते हुए मर्टन ने कहा है, ‘प्रत्यक्ष प्रकार्य व्यवस्था के सामंजस्य और अनुकूल में योगदान करने वाले वे वैषयिक परिणाम हैं, जो व्यवस्था में भाग लेने वाले लोगों के द्वारा पूर्व निश्चित और स्वीकृत होते हैं।’ इस परिभाषा से स्पष्ट है कि मर्टन के विचार से वे प्रकार्य प्रत्यक्ष कहलाते हैं, जो वैषयिक दृष्टि से अध्ययनकर्ता के समक्ष ऐसे परिणामों के रूप में प्रकट होते हैं, जिनकी पहले अपेक्षा की जाती है और जिन्हें समूह सदस्य स्वीकार करते हैं, पहचानते हैं। प्रत्यक्ष प्रकार्य अनायास नहीं होते। उनके विषय में पहले से ही लोगों को ज्ञान होता है।

परोक्ष प्रकार्य- परोक्ष या अप्रत्यक्ष प्रकार्य की परिभाषा करते हुए मर्टन कहता है, परोक्ष प्रकार्य वे सहसम्बन्धी परिणाम होते हैं, जो न तो निर्धारित होते हैं और न उनका पहले से ज्ञान होता ‘इसका अर्थ है कि परोक्ष प्रकार्यों के सहगामी परिणाम हैं। प्रत्यक्ष प्रकार्यों के साथ-साथ कुछ ऐसे प्रकार्य भी स्पष्ट हो जाते हैं, जो वैषयिक ही होते हैं, परन्तु उनका पहले से ध्यान नहीं होता। यह भी अपेक्षा पहले से नहीं होती कि ऐसे परिणाम भी उत्पन्न हो जायेंगे। यहाँ यह समझलना आवश्यक है। उपयुक्त नहीं है अन्तर यह है कि इन परिणामों के बारे में पहले से आशा नहीं होती, इनका पूर्व ज्ञान कि परोक्ष प्रकार्य भी प्रकार्य ही है, वे अकार्य नहीं है। अतः उन्हें अस्वीकृत या अवांछित कहना भी नहीं होता। वे प्रत्यक्ष प्रकार्यों के साथ अकस्मात या परिस्थितियों के सन्दर्भ में संलग्न हो जाते हैं।

मर्टन के विचार से प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रकार्यों का विचार कोई नया नहीं है। फ्रांसिस बेकन ने ‘परोक्ष प्रक्रिया’ शब्द का प्रयोग उन प्रक्रियाओं को समझने के लिए किया था, जो बाहरी अवलोकन में नहीं आ सकती थी। समाजशास्त्रियों ने भी ‘प्रत्यक्ष उद्देश्य’ तथा क्रिया के प्रकार्यात्मक परिणामों में भेद करने का प्रयत्न किया है। मीड ने बताया है कि कानून तोड़ने वाले व्यक्ति (चोर इत्यादि) के प्रति समूह के सदस्यों का विरोधी भाव समुदाय में एकता उत्पन्न कर देता है। दुखींम ने भी दंड का प्रकार्य सामूहिक भावनाओं के सन्दर्भ में समूह की एकता बताया है। वास्तव में दोनों प्रकार्य परोक्ष ही है, क्योंकि कानून तोड़ने वाले का विरोध सामूहिक एकता के उद्देश्य को ध्यान में रखकर नहीं किया जाता और दंड का उद्देश्य भी यह नहीं है कि समूह की एकता का विकास है। विरोध और दंड के स्वीकृत और प्रत्यक्ष प्रकार्य कुछ हैं, किन्तु उनके साथ सामाजिक रूप से चाहे अनचाहे सामूहिक एकता उत्पन्न हो जाती है।

समनर तथा मैकाइवर, आदि विद्वानों ने संस्थानों के परोक्ष कार्य की ओर संकेत किया है। संस्थाओं का निहित उद्देश्य मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति है। किन्तु इसके साथ-साथ संस्थायें मनुष्यों के व्यवहार का नियन्त्रण भी करती हैं, जो परोक्ष प्रकार्य कहा जा सकता है। थामस तथा नैनिकी ने भी इस अन्तर की ओर संकेत किया है। मर्टन ने प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रकार्यों का अन्तर बताते हुए लिखा है, ‘प्रत्यक्ष प्रकार्यों तथा परोक्ष प्रकार्यों के बीच अन्तर का तार्किक आधार यह है, पहले किसी विशेष इकाई (व्यक्ति, उपसमूह, सामाजिक या सांस्कृतिक व्यवस्था) के लिए उन वैषयिक परिणामों की ओर संकेत करते हैं, जो सामंजस्य और अनुकूलन में योगदान करते हैं और जिनसे वैसी ही अपेक्षा थी, दूसरे उसी प्रकार के अनापेक्षित और अस्वीकृत परिणामों की ओर संकेत करते हैं।’

प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रकार्यों के बीच भेद करने से तर्कहीन दिखाई देने वाले सामाजिक प्रतिमानों के विश्लेषण का स्पष्टीकरण हो जाता है। इसके द्वारा सैद्धान्तिक दृष्टि से अध्ययन के लिए उपयोगी क्षेत्रों का पता लग जाता है। इस अन्तर से समाजशास्त्रीय ज्ञान में महत्वपूर्ण वृद्धि होती है और समाजशास्त्रीय विश्लेषण के स्थान पर नैतिक मूल्यांकन नहीं हो पाता। किसी संगठन के सामाजिक प्रकार्य उसकी संरचना को निर्धारित करने में सहायक होते हैं और संरचना प्रकार्यों की पूर्ति में सहायता करती है। परोक्ष प्रकार्यों का विश्लेषण इस तथ्य को प्रकट करता है कि संरचना और प्रकार्य परस्पर सम्बन्धित अवधारणायें हैं।

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