समाजशास्‍त्र / Sociology

रॉबर्ट के. मर्टन के सन्दर्भ समूह सिद्धान्त | Merton’s Reference Group theory in Hindi

रॉबर्ट के. मर्टन

रॉबर्ट के. मर्टन

मर्टन के सन्दर्भ समूह सिद्धान्त 

अमेरिकन सैनिकों के एक विस्तृत अध्ययन के आधार पर लिखित The American Soldier नामक कृति में मर्टन तथा सेमी ने सन्दर्भ समूह की अवधारणा को समझाने का प्रयत्न किया है। इस सम्बन्ध में उनका निष्कर्ष यह है कि एक व्यक्ति का सन्दर्भ समूह उसका अपना अन्तःसमूह अर्थात वह समूह हो सकता है कि जिसका कि वह वास्तव में सदस्य और वह बाह्य- समूह भी हो सकता है जिसका कि वह सदस्य नहीं है। प्रथम अवस्था में अन्तःसमूह (in-group) या अपने ही समूह के सदस्य निर्देशन तन्त्र का कार्य करते हैं जबकि दूसरी अवस्था में बाह्य-समूह अथवा दूसरे समूह के सदस्य इस निर्देश तन्त्र के लिए चुने जाते हैं। अतः मर्टन के अनुसार सन्दर्भ-समूह का सिद्धान्त हमें यह बताता है कि व्यक्ति अन्तःसमूह अथवा बाह्य-समूह को किस प्रकार अपने व्यवहार का निर्देशक मानने लगता है और उस समूह से अपना सन्दर्भ स्थापित कर लेता है। अपने उपरोक्त अध्ययन के आधार पर सन्दर्भ-समूह से सम्बन्धित अपने विचारों या निष्कर्षों को मर्टन ने निम्नलिखित रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है।

1. अन्तःसमूह या सदस्यता-समूह सन्दर्भ-समूह के रूप में ( Membership group as areference group ) –

यह देखा जाता है कि बहुधा एक व्यक्ति अपने ही समूह के उन दूसरे यक्तियों के उप-समूह को अपना सन्दर्भ-समूह मानने लगता है जिनकी कि उपलब्धियाँ अधिक हैं अर्थात जो जीवन में अधिक सफल है। उदाहरणार्थ, अपने ही समूह के उन सैनिकों को उसी समूह के अन्य सैनिक सन्दर्भ-समूह के रूप में स्वीकार कर सकते हैं जिन्हें कि वीरता के पुरस्कार मिले हैं।

2. गैर-सदस्यता समूह ( Non-membership group)-

मर्टन का मत है कि यह जरूरी नहीं है कि कोई व्यक्ति केवल उसी समूह का सदस्य हो जिसका वह सदस्य है। वह उस समूह का भी सदस्य हो सकता है जिसका कि वह सदस्य नहीं है। मर्टन के अनुसार जिन समूहों के हम वास्तव में सदस्य नहीं होते और जिनके सदस्यों के साथ हम किसी प्रकार की अन्तः क्रिया नहीं करते, तो भी वह समूह हमारे व्यवहारों, आदर्शों तथा मूल्यों को प्रभावित करते व अपने अनुरूप ढालते हैं तो वह गैर-सदस्यता समूह भी हमारे लिए सन्दर्भ-समूह होगा।

3. सन्दर्भ व्यक्ति या समूह का चुनाव (Selection of reference individual of group)-

मर्टन के अनुसार एक व्यक्ति के द्वारा अपने सन्दर्भ के रूप में केवल समूह को ही नहीं अपितु व्यक्ति को भी चुना जा सकता है। इन दोनों का चुनाव कैसे किया जाता है उसे मर्टन ने इस प्रकार समझाया है।

(अ) सन्दर्भ व्यक्ति का चुनाव आदर्श भूमिका के आधार पर किया जाता है। ऐसा होता है कि एक व्यक्ति को किसी दूसरे व्यक्ति की कुछ भूमिकाएँ अच्छी लगती हैं और वह उन्हें न केवल आदर्श मानने लगता है अपितु उन भूमिकाओं को अपने जीवन में भी निखारने का प्रयत्न करता है। उदाहरणार्थ, एक विद्यार्थी को अपने किसी शिक्षक का पढ़ने का ढंग व विद्यार्थियों के साथ व्यवहार करने का ढंग अच्छा लगता है तो आगे चलकर शिक्षक का पेशा अपनाने पर वह विद्यार्थी उसी शिक्षक को अपना सन्दर्भ व्यक्ति मान लेता है और शिक्षक के रूप में उसके आवरणों व भूमिकाओं को अपने जीवन में भी निखारने का प्रयत्न करता है।

(ब) सन्दर्भ समूह का चुनाव सामाजिक जीवन में अपने को अधिक प्रतिष्ठित देखने की इच्छा से प्रेरित होता है। व्यक्ति की यह अभिलाषा होती है कि वह सामाजिक सीढ़ी में ऊपर की ओर जाए। इसके लिए एक आधार की आवश्यकता होती है। अतः वह किसी ऐसे समूह को चुन लेता है जोकि उसकी निगाह में आदर्श व अधिक प्रतिष्ठा-सम्पन्न है। इसी से यह स्पष्ट है कि सामाजिक प्रतिष्ठा पाने की इच्छा व्यक्ति को उस दूसरे समूह का चुनाव करने की प्रेरणा देती है जिसका कि वह सदस्य नहीं है।

4. दूसरे विशिष्ट ( Significant others)-

मर्टन का कथन है कि प्रत्येक व्यक्ति के सामने कुछ दूसरे प्रतिष्ठित समझे जाने वाले लोगों की प्रतिमा होती है जिन्हें कि हम ‘दूसरे विशिष्ट’ कह सकते हैं। ये लोग उस व्यक्ति की निगाहों में आदर्श होते हैं और इसीलिए वह इन व्यक्तियों के साथ समरूपता स्थापित करना चाहता है अर्थात उन दूसरे विशिष्ट व्यक्तियों जैसा बनना चाहता है। यही कारण है कि इन व्यक्तियों में वह स्वयं अपनी प्रतिमा तथा स्वयं अपने मूल्यांकन का प्रतिबिम्ब देखता है, उनके मूल्यों, आदर्शों तथा आचरणों को ग्रहण करता है ताकि उन दूसरे विशिष्टों की भाँति वह स्वयं भी ‘विशिष्ट’ बन सके। यही कारण है कि निम्न समूह के लोग उच्च समूह को प्रभावशाली व प्रतिष्ठा वाले समूह के रूप में न केवल देखते हैं अपितु उनके मूल्यों, आदर्शों तथा आचरणों को ग्रहण करते हुए सामाजिक सीढ़ी में ऊपर चढ़कर उस उच्च समूह के पास पहुँचने का भी प्रयत्न करते हैं।

5. सकारात्मक व नकारात्मक सन्दर्भ-समूह (Positive and negative reference group)-

मर्टन के अनुसार सन्दर्भ-समूह सकारात्मक हो सकते हैं और नकारात्मक भी। अर्थात सन्दर्भ-समूह का व्यक्ति पर प्रभाव सदा स्वस्थ ही होगा ऐसी बात नहीं है। एक व्यक्ति अपने सन्दर्भ-समूह के रूप में ऐसे समूह को भी चुन सकता है जिसका कि प्रभाव व्यक्ति पर नकारात्मक हो।

6. बहुत सन्दर्भ समूह ( Multiple reference group) –

इसके अन्तर्गत मर्टन ने दो प्रकार के सन्दर्भ-समूहों का उल्लेख किया है।

(i) परस्पर विरोधी सन्दर्भ समूह (Conflicting reference group)- कभी- कभी व्यक्ति के जीवन में एकाधिक परस्पर विरोधी सन्दर्भ-समूह आ जाते हैं और उस अवस्था में उसके सामने यह समस्या होती है कि वह उनमें से किसको चुने अथवा किस समूह को अपना आदर्श माने। ऐसी स्थिति में व्यक्ति बहुधा परिस्थिति की समानता से प्रभावित होता है और उस समूह को अपना सन्दर्भ समूह नहीं मानता है जोकि उसे लिए पूर्णतया जनजाना और भिन्न परिस्थिति वाला है।

(ii) निरन्तर सम्पर्क वाले सन्दर्भ-समूह (Mutually sustaining reference group)- मर्टन का निष्कर्ष यह है कि जिस आयु समूह अथवा वैवाहिक स्थिति या शैक्षिक स्तर वाले समूह के निरन्तर सम्पर्क में व्यक्ति रहता है उसी के अनुसार उसकी मनोवृत्तियों ढलने लगती हैं और उसी को वह अपना सन्दर्भ समूह मान लेता है। मर्टन की मान्यता यह है कि जिस समूह के साथ व्यक्ति का सामाजिक सम्बन्ध जितना निरन्तर व दीर्घ होगा वही समूह उस व्यक्ति के जीवन को अधिक प्रभावित भी करेगा।

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