मैलीनॉस्की के प्रकार्यवाद
मैलीनॉस्की के प्रकार्यवाद (Malinaski’s functionalism) – संस्कृति के अन्तर्गत अनेक खंड, इकाइयाँ या तत्व होते हैं। परन्तु इन इकाइयों या तत्वों को मनमाने ढंग से इकट्ठा कर देने या जोड़ देने या मिला देने से ही किसी समाज की संस्कृति बन नहीं जाती, यहाँ तक कि इन इकाइयों को एक-दूसरे से पूर्णतया पृथक करके अध्ययन करने पर संस्कृति के सम्बन्ध में कोई यथार्थ ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता। इसका कारण यह है कि ये सब इकाइयाँ, आकस्मिक या अव्यवस्थित नहीं होती हैं। संस्कृति के इन खंडों या इकाइयों में एक पारस्परिक सम्बन्ध तथा अन्तःनिर्भरता होती है जिसके कारण संस्कृति में एक प्रकार का सन्तुलन पाया जाता है। इस सन्तुलन का तात्पर्य यह है कि संस्कृति की विभिन्न इकाइयाँ पृथक-पृथक कार्य नहीं करती, अपितु उनमें एक-दूसरे के साथ मिलकर काम करने की एक प्रवृत्ति पाई जाती है। साथ ही ये सांस्कृतिक तत्व एक सम्पूर्ण सांस्कृतिक ढाँचे के अन्तर्गत व्यवस्थित ढंग से एक-दूसरे से सम्बन्ध रहते हैं। सांस्कृतिक इकाइयों या तत्वों की इसी व्यवस्थित सम्बद्धता को संस्कृति का संगठन कहते हैं। यह संगठन कैसे सम्भव होता है और किस भांति बना रहता है, इसकी चर्चा विभिन्न सम्प्रदायों या विद्वानों द्वारा अलग- अलग ढंग से की गई है। इनमें प्रकार्यात्मक, संरूपणात्मक तथा लयात्मक दृष्टिकोण उल्लेखनीय है। मैथिनोवस्की का दृष्टिकोण प्रकार्यवादी या प्रकार्यात्मक माना जाता है।
मैलिनोवस्की के मतानुसार संस्कृति वह साधन है जिसके द्वारा मनुष्य अपने शारीरिक तथा मानसिक और अन्तिम रूप में बौद्धिक अस्तित्व को बनाए रखने में सफल होता है। मानव केवल एक प्राणिशास्त्रीय प्राणी ही नहीं, अपितु एक सामाजिक प्राणी भी है और उन दोनों ही रूपों में उसकी अनेक शारीरिक-मानसिक आवश्यकताएँ होती हैं। इन आवश्यकताओं की पूर्ति किए बिना सामाजिक प्राणी के रूप में मानव का अस्तित्व कदापि बना नहीं रह सकता। इन्ही आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए मानव संस्कृति का निर्माता बनता है और उसके द्वारा अपने शारीरिक तथा मानसिक या बौद्धिक अस्तित्व को बनाए रखता है। दूसरे शब्दों में, सस्कृति के विभिन्न अंगों का विशिष्ट स्वरूप ही नहीं होता बल्कि एक विशिष्ट कार्य भी होता है। संस्कृति का कोई भी तत्व या इकाई बेकार की नहीं होती है, उससे मानव का कोई-न-कोई काम अवश्य ही निकलता है। किसी भी सांस्कृतिक तत्व का अस्तित्व इसी बात पर निर्भर करता है कि वह मानव कि किसी काम में आ रहा है या नहीं। संक्षेप में, यही मैलिनोवस्की का प्रकार्यवाद है।
मानव की आवश्यकताएँ अनेक हैं जैसे कि आर्थिक आवश्यकताएँ, सामाजिक आवश्यकताएँ तथा मानसिक आवश्यकताएँ। इन्हीं आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए मानव धर्म भाषा, कला, प्रविधि, साहित्य तथा अन्य भौतिक एवं अभौतिक वस्तुओं का, जिनके सम्पूर्ण योग या समग्रता को हम संस्कृति कहते हैं, सहारा लेता है। अगर हम ध्यानपूर्वक यह जानने की प्रयत्न करें कि इन सब चीजों का अर्थात संस्कृति की विभिन्न इकाइयों का उद्भव क्योंकर हुआ तो हमें स्पष्टतः ज्ञात होगा कि इनमें से प्रत्येक इकाई की जड़ मानव की कोई-न-कोई आवश्यकता ही है। मानव अपनी आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ही धनुष-बाण से लेकर बड़ी-बड़ी मशीनों का प्रयोग करता है, सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सामाजिक संस्थाओं को काम में लगाता है, मानसिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भाषा, धर्म, कला आदि की सहायता लेता है। अतः स्पष्ट है संस्कृति की इकाई का किसी-न-किसी रूप में कोई-न-कोई कार्य अवश्य ही होता है। अगर एक मोमबत्ती भी है तो उसका भी सांस्कृतिक ढाँचे में या मानव की सम्पूर्ण जीवन-विधि में कोई-न-कोई होगा ही। यह मोमबत्ती रोशनी देने का काम करती है, यही मोमबत्ती धार्मिक जीवन का प्रतीक हो सकती है, या किसी कम्पनी का व्यापार-चिह्न भी हो सकती है। किसी भी संस्कृति में इस मोमबत्ती के समस्त कार्यों को समझने के लिए यह आवश्यक है कि हम इस मोमबत्ती का संस्कृति की सभी इकाइयों या पक्षों से जो प्रकार्यात्मक सम्बन्ध है उसे ढूंढ़ निकालें। इसी तरह अब हम संस्कृति की प्रत्येक इकाई का अन्य इकाइयों में प्रकार्यात्मक सम्बन्ध मालूम कर लेंगे, तब कहीं हमें निश्चित रूप से पता चलेगा कि उस समूह के सदस्यों की सम्पूर्ण जीवन-विधि को बनाए रखने में वे सब इकाइयाँ किस प्रकार मिलकर कार्य करती हैं।
अतः स्पष्ट है कि संस्कृति की विभिन्न इकाइयों का पृथक-पृथक अस्तित्व न तो होत है और न ही होना सम्भव है। इनमें से प्रत्येक का प्रत्येक के साथ एक प्रकार्यात्मक सम्बन्ध होत परन्तु यह सम्बन्ध क्यों होता है? इसका सरल उत्तर यह है कि मानव की आवश्यकताएँ भी अलग-अलग नहीं है, वे एक-दूसरे के साथ सम्बन्धित हैं क्योंकि इन सबका उदभव स्थान एक ही है और वह उदभव-स्थान है मानव स्वयं। क्योंकि मनुष्य स्वयं इन सब आवश्यकताओं क स्रोत है, इसलिए ये सब आवश्यकताएँ एक-दूसरे से जुड़ी हुई है और इसलिए इन आवश्यकताओं को पूरा करने के साधन के रूप में काम में आने वाली संस्कृति की विभिन्न इकाइयों या पक्ष भी अन्तः सम्बन्ध से बँधे हुए हैं। इस अन्तःसम्बन्ध का आधार मानव की प्राणिशास्त्रीय प्रेरणाएँ तथा आवश्यकताएँ हैं। किसी भी संस्कृति के संगठन का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य मानव की उपरोक्त प्राणिशास्त्रीय प्रेरणाओं और आवश्यकताओं की पूर्ति के साधन उपलब्ध करना है।
इस प्रकार मैलिनोवस्की का विश्वास है कि संस्कृति का कोई भी तत्व, अंग या इकाई ऐसी नहीं हो सकती जो कुछ भी काम नहीं देती, अर्थात जो कार्यहीन है। आपका कथन है कि संस्कृति के प्रत्येक तत्व किसी-न-किसी कार्य को करने के लिए हुआ करता है और उसका अस्तित्व उसी समय तक बना रहता है जब तक वह सम्पूर्ण जीवन-व्यवस्था में कोई-न-कोई कार्य करता रहता है। किसी भी संस्कृति के संगठन का, जैसाकि हम अभी ऊपर बता चुके हैं, एक आधारभूत उद्देश्य मानव जीवन की विविध आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए कार्य करता है। यदि यह सच है तो यह सम्भव हो सकता है कि किसी भी सांस्कृतिक तत्व का कार्यविहीन अस्तित्व हो। चूँकि सम्पूर्ण जीवन विधि या जीवन-व्यवस्था को बनाए रखने में प्रत्येक सांस्कृतिक तत्व का कुछ-न-कुछ योगदान कोई-न-कोई कार्य होता है, इसलिए संस्कृति के प्रत्येक तत्व का हर दूसरे तत्वों के साथ एक आन्तरिक नहीं, बल्कि एक-दूसरे से जकड़े हुए या सम्बन्धित होते हैं और सब मिलकर संस्कृति को एक समग्रता व प्रकार्यात्मक सम्बन्ध होता है जिसके फलस्वरूप ये असंख्य सांस्कृतिक तत्व एक-दूसरे स पृथक से प्रदान करते हैं। इस प्रकार मैलिनोवस्की के मतानुसार, सांस्कृतिक संगठन का आधारभूत कारण उस संस्कृति की प्रत्येक इकाई द्वारा किया जाने वाला कार्य है। सांस्कृतिक संगठन के सम्बन्ध में यही मैलिनोवस्की का प्रकार्यवादी सिद्धान्त या दृष्टिकोण है।
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