स्पेन्सर के सामाजिक संगठन के ऐतिहासिक विकासवाद
स्पेन्सर ने सामाजिक और राजनीतिक संगठन के ऐतिहासिक विकासवाद का विस्तृत विवरण प्रस्तुत किया है। समाज, आपके अनुसार, सर्वप्रथम एक अभिन्न और असीमित खानाबदोशी झुंड के रूप में था। सार्वजनिक अधिसत्ता और राजनीतिक संगठन का प्रारम्भ युद्धकाल में नेता की अधीनता के अन्तर्गत समूह द्वारा कार्य किए जाने के फलस्वरूप हुआ। नेता के अन्दर समूह के अन्य सदस्यों की अपेक्षा अधिक कार्य-कुशलता होती थी। यह कुशलता ईश्वर द्वारा प्रदत्त प्राकृतिक कुशलता मानी जाती थी और इस प्रकार नेता के शासन को एक अलौकिक स्वीकृति मिल जाती थी।
समाज की जटिलता के बढ़ने के साथ-साथ कालान्तर में युद्ध की अधिक अवधियों और सैनिक क्रियाओं के बेहतर संगठन ने इस स्थायी युद्ध-नेता को एक मुखिया या राजा के रूप में विकसित किया जोकि अपने जीवनकाल में शक्ति को संचालित करता था। इसके कारण सैनिक मृत्यु नेता की संगठन में स्थायीपन आया; किन्तु इससे समस्या का पूर्ण समाधान नहीं हुआ। युद्ध के पश्चात दूसरे युद्ध-नेता के चुनाव की समस्या उत्पन्न होती थी। इस समस्या के हल के रूप में वंशानुगत नेतृत्व के सिद्धान्त को विकसित किया गया। इस वंशानुगत नेता, मुखिया या राजा को शासन-प्रबन्ध के मामले में सलाह देने के लिए परामर्शदात्री और प्रतिनिधि समितियों का समानान्तर उदविकास हुआ जिन्होंने बाद में औपचारिक परिषदों और विधानसभाओं का रूप धारण किया।
स्पेन्सर के अनुसार सैनिक क्रियाओं के विकास के कारण विभिन्न समुदायों में विभक्त व्यक्तियों का एकीकरण हुआ। छोटे-छोटे खानाबदोशी झुंडों ने एक-साथ मिलकर एक बड़े समूह का निर्माण किया। इसके फलस्वरूप समाज का एकीकरण हुआ और एक व्यवस्थित राजभक्ति का विस्तार हुआ। इस प्रकार सामाजिक, विकास के साथ-साथ समाज में विभेदीकरण की प्रक्रिया भी क्रियाशील हुई। इस विभेदोकरण के फलस्वरूप समाज में धनी शासकों, सामान्य स्वाधीन लोगों, भूमिदासों और दासों के वर्गों का निर्माण हुआ। जब राजशक्ति किसी शासक वर्ग के हाथ में केन्द्रित हो जाती है और उसका क्षेत्र बढ़ जाता है तथा वह अधिक बड़े भू-भाग पर लागू होती गुण है तो उसे कुशलतापूर्वक प्रसारित करने के लिए राजकीय मशीनरों का विकास होता है, जैसे मन्त्रिमण्डल, स्थानीय शासक संस्थाएँ, न्यायिक संस्थाएँ, राजस्व और सैनिक संगठन आदि।
आरम्भ में राज्य अपना समस्त ध्यान सैनिक संगठन विजय और प्रादेशिक विस्तार के ऊपर केन्द्रित करता है। किन्तु जैसे-जैसे समय बीतता जाता है उसका ध्यान अधिकाधिक उद्योग के विकास की ओर जाता है। उस अवस्था में राजनीतिक विकासवाद की प्रक्रिया सैनिक राज्य से योगिक राज्य में रूपान्तरित हो जाती है। स्पेन्सर के अनुसार सैनिक समाज की अपेक्षा औद्योगिक समाज अधिक अच्छा है, क्योंकि इसक अन्तर्गत मनुष्य को नैतिक विकास का अवसर प्राप्त होता हा आदर्श स्थिति तो वह होगी जबकि उद्योगवाद के साधनों को मानव-चरित्र के नैतिक आचार को पूर्ण विकसित करने की दिशा में लागू किया जा सकेगा और मानव-चरित्र में सामाजिकता के विकसित हो जाएँगे तथा उसके ऊपर बाहरी नियन्त्रण की आवश्यकता नहीं रहेगी। यही उसके समाज की आदर्श अवस्था होगी जिसे स्पेन्सर ने औद्योगिक समाज’ कहा है।
इस प्रकार से स्पेन्सर ने सैनिक समाज और औद्योगिक समाज के दो रूपों की कल्पना की है। इन दो प्रकार के समाजों में कोई अन्तिम भेद नहीं है। विभिन्न समाज व समय में यह भेद अलग-अलग हो सकता है। सैनिक समाज में क्रियात्मक शक्तियों को सैनिकों के लिए सुख- सुविधाओं को जुटाने के उद्देश्य से नियोजित किया जाता है और समाज में सैनिक क्रियाकलापों का बोलबाला होता है। दूसरी ओर औद्योगिक समाज में सैनिक शक्ति का प्रयोग केवल आन्तरिक शान्ति व सुव्यवस्था को बनाए रखने तथा बाहरी आक्रमणों से रक्षा करने के लिए किया जाता है। इसके अलावा सैनिक समाज में सेनाध्यक्ष राज्य का शासक होता है और इसीलिए अनुशासन की व्यवस्था लागू की जाती है। व्यक्तिगत सम्पत्ति या उत्पादनों के साधनों पर व्यक्तिगत अधिकार को सहन नहीं किया जाता है, जनता को पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त नहीं होती है, धर्म की भी एक सैनिक प्रवृत्ति होती है और व्यक्ति को स्वयं के लिए नहीं, अपितु समाज के लिए जीवित रहना पड़ता है। दूसरी ओर औद्योगिक समाज में व्यवस्था तथा न्याय के अन्तर्गत व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के सिद्धान्त को पूर्णतया मान्यता प्रदान की जाती है। सरकारी हस्तक्षेप घटना है। स्थानीय सरकार को अधिकाधिक शक्ति मिलने के लिए राजनीतिक सत्ता का विकेन्द्रीकरण होता है, जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों द्वारा सरकार का संगठन होता है, धार्मिक स्वतन्त्रता होती है, व्यापार और उद्योगों के क्षेत्र में प्रतियोगिता व्याप्त होती है तथा राजकीय क्रियाकलापों के आलोचकों को सहन किया जाता है। राजकीय नियन्त्रण केवल निषेधात्मक रूप में होता है, इसका उद्देश्य व्यक्तिगत स्वतन्त्रता में अनावश्यक हस्तक्षेप को दूर करना होता है। अतः ऐसा समाज परिवर्तन के लिए अधिक अनुकूल होता है और नैतिकता के विकास का पूरा अवसर प्राप्त होता है।
उपरोक्त विवेचना से यह स्पष्ट है कि सामाजिक विचारधारा के क्षेत्र में स्पेन्सर की देने महत्वपूर्ण है। उनके विचारों में कमियाँ अवश्य हैं, पर फिर भी जिन सिद्धान्तों को स्पेन्सर ने प्रस्तुत किया है। वे सिद्धान्त तर्कपूर्ण हैं, इसीलिए उनके विचारों का प्रभाव उनके बाद के अनेक सामाजिक विचारकों के ऊपर पड़ा है; इस अर्थ में स्पेन्सर के विचारों ने सामाजिक विचारधारा को एक निश्चित दिशा प्रदान की है और यही उनकी सबसे महत्वपूर्ण देन कही जा सकती है।
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