आधुनिक पूँजीवादी व्यवस्था में मार्क्स के वर्ग-संघर्ष
मार्क्स ने यह प्रमाणित करने का प्रयास किया है कि आधुनिक पूँजीवादी व्यवस्था में ऐसे कई आन्तरिक विरोध क्रियाशील है जिनके कारण पूँजीपति और श्रमिकों के कठोर संघर्ष का और भी तीव्र होना और साथ ही पूँजीवाद का विनाश अवश्यम्भावी है। पूँजीवाद स्वयं अपने विनाश का बीज उत्पन्न करता है। पूँजीवादी व्यवस्था के अन्तर्गत क्रियाशील आन्तरिक विरोधों का निरूपण मार्क्स ने विशद रूप में किया है। इश सम्बन्ध में उनके विचारों को फ्रांसिस डब्ल्यू होकर ने अति उत्तम ढंग से प्रस्तुत किया है-‘सर्वप्रथम पूँजीवादी व्यवस्था के अन्तर्गत प्रवृत्ति बड़े पैमाने पर उत्पादन तथा एकाधिकार की ओर है। इस प्रवृत्ति के परिणामस्वरूप, जो भागीदारी, संयुक्त-पूँजी कम्पनी तथा कापेरिशन के रूप में हमें देखने को मिलता है, सम्पत्ति उत्तरोत्तर कम-से-कम व्यक्तियों (पूँजीपतियों) के हाथों में इकट्ठी होती जाती है, और इस प्रकार छोटे पूँजीपति अधिकाधिक पूँजीवादी वर्ग से बाहर निकाल दिए जाते हैं और वे सर्वहारा-वर्ग में मिलते जाते हैं। इस प्रकार पूँजीवाद का विकास होने का परिणाम यह होता है कि संख्या कम होती जाती हैं और मजदूरों की संख्या में वृद्धि होती जाती है। दूसरे, पूँजीवादी व्यवस्था के अन्तर्गत प्रवृत्ति स्थानीय एकत्रीकरण की ओर है। बड़े पैमाने पर उत्पादन करने हेतु एक छोटे-से स्थान पर लाखों मजदूरों को एकत्र करना आवश्यक हो जाता है और इस प्रकार परस्पर सम्पर्क से मजदूरों को अपनी सामान्य कठिनाइयों एवं आवश्यकताओं का अधिक ज्ञान होता है। उनमें वर्ग-चेतना शक्तिशाली हो जाती है और उन्हें सहयोग के साधन सुलभ हो जाते हैं। तीसरे, पूँजीवादी उत्पादन की प्रवृत्ति अपने लिए अधिकाधिक व्यापक बाजार प्राप्त करने की ओर भी होती है।
इसके लिए औद्योगक संसार के विविध भागों में यातायात के साधनों के उच्चतम विकास की आवश्यकता होती है और इससे संसार के विविध औद्योगिक केन्द्रों में फैले हुए मजदूरों में परस्पर सम्पर्क स्थापित करने के लिए सुविधा मिलती है। चौथे, पूँजीवादी-प्रणाली समय-समय पर आर्थिक संकट पैदा करती रहती है। मजदूर ही एक बड़ी संख्या में उपभोक्ता होते हैं और उन्हें केवल उतना ही वेतन मिलता है जितने में वे अपने उत्पादन का एक अत्यन्त सीमित भाग ही खरीद सकते हैं। उत्पादित वस्तुएँ एकत्र हो जाती हैं और अत्यधिक उत्पादन के कारण आर्थिक संकट पैदा हो जाता है। ज्यों-ज्यों पूँजीवाद का विकास होता जाता है, त्यों-त्यों समय-समय पर उत्पन्न होने वाले संकट तीव्रतर होते जाते हैं और उनके कारण पूँजीपतियों का आधिपत्य अधिकाधिक असुरक्षित होता जाता है; और पूँजीपति ऐसे संकटों के निवारण हेतु विभिन्न उपायों को काम में लाते हैं जैसे नए बाजारों की प्राप्ति। उन उपायों को समझाने से संकट और भी गम्भीर एवं अधिक व्यापक होते जाते हैं। अन्त में, पूँजीवाद के अन्तर्गत ऐसी प्रवृत्ति भी है जिससे मजदूरों के दुःख दैन्य, अज्ञानता और पराधीनता में वृद्धि होती है जिससे उनमें विद्वेष और असन्तोष भी बढ़ता । अपनी समस्त प्रक्रिया में पूँजीवाद जहाँ एक ओर तो सदैव सम्पत्तिहीन व्यक्तियों की संख्या बढ़ता है, वहाँ दूसरी ओर वह परिश्रम बचाने वाली मशीनों के विकास द्वारा आवश्यक मजदूरों की संख्या कम करता जाता है, अर्थात पूँजीवाद निरन्तर ऐसे व्यक्तियों की संख्या कम करता रहता है, जो बढ़ते हुए उत्पादन को खरीदने की क्षमता रखते हैं।
‘इस प्रकार पूँजीवादी-प्रणाली मजदूरों की संख्या बढ़ाती है, उन्हें सुसंगठित समूहों में एकत्र कर देती है, उनमें वर्ग-चेतना का प्रादुर्भाव करती है और उनमें परस्पर सम्पर्क तथा सहयोग स्थापित करने के लिए विश्वव्यापी पैमाने पर यातायात तथा संचार के साधन प्रदान करती है, उनकी क्रय-शक्ति को कमर करती है और उनका अधिकाधिक शोषण करके उन्हें संगठित प्रतिरोध करने या बदला लेने के लिए प्रोत्साहित करती है। अपनी स्वाभाविक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए निरन्तर प्रयत्न करते हुए और मुनाफे के आधार पर स्थिर व्यवस्था की सतत रक्षा करते हुए पूँजीपति सदैव ऐसी अवस्थाएँ उत्पन्न करते रहते हैं, जिनसे मजदूरों को श्रमिक-समाज की आवश्यकताओं के अनुकूल व्यवस्था स्थापित करने के लिए तैयारी करने के अपने स्वाभाविक प्रयत्नों में प्रोत्साहन तथा बल मिलता है।’ संक्षेप में, स्वयं पूँजीवादी व्यवस्था में ही तीव्रतम वर्ग-संघर्ष (जिसकी कि स्वाभाविक अभिव्यक्ति क्रान्ति है) और पूँजीवाद के विनाश के बीज छिपे हुए हैं।
इस प्रकार, मार्क्स इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि पूँजीवादी व्यवस्था में दिन प्रतिदिन श्रमिक वर्ग में निर्धनता, भूखमरी और बेसेजगारी बढ़ती जाएगी और उनकी दशा उत्तरोत्तर दयनीय होती जाएगी। परन्तु सहन करने की भी एक सीमा होता ही; उस सीमा के बाद श्रमिक या सर्वहारा वर्ग अपनी समस्त जंजीरों को तोड़कर पीपतियों के विरुद्ध विद्रोह की भावना लेकर उठ खड़ा होगा ही। यही क्रान्ति का युग होगा। अपने स्वार्थो से घिरे हुए पूँजीपति संसदीय नियमों द्वारा अनने एकाधिकार का कभी भी परित्याग नहीं करेंगे; अर्थात शान्तिपूर्ण ढंग से उन्हें हटाया नहीं जा सकेगा; उसके लिए तो क्रान्ति ही एक सामान्य उपाय है। इस क्रान्ति का परिणाम होगा पूँजीवादी-वर्ग या शोषक-वर्ग का विनाश और सर्वहारा-वर्ग के अधिनायकत्व ही स्थापना। कम्युनिस्ट घोषणापत्र में मार्क्स ने लिखा है, पूँजीपतियों के साथ संघर्ष के दौरान अपनी परिस्थितियों से विवश होकर सर्वहारा अपने को एक वर्ग के रूप में संगठित करने को बाध्य होगा, एक क्रान्ति के द्वारा वह अपने को शासक-वर्ग बनाता है और इस प्रकार उत्पादन की पुरानी अवस्थाओं को बलपूर्वक निकाल फेंकता है।’
मार्क्स का मत है कि ‘वर्ग-संघर्ष’, “क्रान्ति’ आदि शब्दों से आम जनता को भयभीत होने की कोई आवश्यकता नहीं है। डर तो उन पूँजीपतियों को होना चाहिए जोकि हरदम मेहनतकश जनता का खून चूस-चूसकर फल-फूल रहे हैं; डर तो उन्हें (पूँजीपतियों को) होना चाहिए जिनकी समस्त शक्ति और शोषण करने का अधिकार क्रान्ति के फलस्वरूप सर्वहारा-वर्ग का अधिनायकत्व स्थापित हो जाने पर धूल में मिल जाएगा। कम्युनिस्ट घोषणापत्र सर्वहारा क्रान्ति के लिए इसी ‘बुलन्द और विजयपूर्ण आवाहन’ के साथ समाप्त होता है-कम्युनिस्ट क्रान्ति के भय से शासक वर्गों को काँपने दो। सर्वहारा के पास खोने के लिए अपनी-अपनी बेड़ियों के सिवाय और है ही क्या! पर जीतने के लिए तो उनके सामने पूरी दुनिया है।
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