मार्क्स के वर्ग-संघर्ष सिद्धांत
मार्क्स का मत है कि मूल रूप में आर्थिक उत्पादन के प्रत्येक स्तर की सर्वप्रमुख विशेषता यह होती है कि इनमें से एक वर्ग के हाथों में आर्थिक उत्पादन के समस्त साधन केन्द्रीकृत होते हैं जिनके बल पर यह वर्ग दूसरे वर्ग का शोषण करत रहता है जबकि वास्तव में यह दूसरा वर्ग है। आर्थिक वस्तुओं या मूल्यों का उत्पादन करता है। इसमें इस शोषित वर्ग में असन्तोष घर कर जाता है और वह वर्ग संघर्ष के रूप में प्रकट होता है।
वर्ग-संघर्ष का सिद्धान्त (Theory of Class Struggle) – इस वर्ग-संघर्ष के सिद्धान्त को मार्क्स ने अति स्पष्ट रूप में प्रस्तुत किया है, परन्तु यह सर्वप्रथम उन्हीं का सिद्धान्त है—यह मार्क्स नहीं मानते। बेडेमेर के नाम अपने 5 मार्च सन 1852 के पत्र में मार्क्स ने इसी बात पर जोर दिया है। उन्होंने लिखा है, और जहाँ तक मेरी बात है आधुनिक समाज में वर्गों के अस्तित्व का, या उनके बीच होने वाले संघर्षों का पता लगाने का कोई श्रम मुझे देना उचित नहीं है। मुझसे बहुत पहले ही पूँजीवादी इतिहासकारों ने इस वर्ग-संघर्ष के ऐतिहासिक विकास का और पूँजीवादी अर्थशास्त्रियों ने वर्गों के आर्थिक गठन का वर्णन किया था। मैंने इसमें जो नई चीजें जोड़ी हैं वे यह सिद्ध करती हैं कि-
(1) विभिन्न वर्गों का अस्तित्व उत्पादन के विकास के किसी ऐतिहासिक क्रम-विशेष के साथ ही जुड़ा हुआ होता है।
(2) वर्ग-संघर्ष का चरमोत्कर्ष आवश्यक रूप से सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व होता है,
(3) अधिनायकत्व की यह अवस्था अपने आपमें सभी वर्गों के उन्मूलन और वर्गहीन समाज की ओर संक्रमण करने की अवस्था होती है।
जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, मार्क्स का कथन है कि सदा से ही प्रत्येक समाज में दो विरोधी वर्ग-एक शोषक और दूसरा शोषित वर्ग होता है। जब शोषक वर्ग की शोषण-नीति असहनीय हो जाती है, तब तक एक स्तर पर इन दोनों वर्गों में संघर्ष स्पष्ट हो जाता है। कम्युनिस्ट घोषणापत्र में मार्क्स और एंगेल्स ने लिखा है, ‘अभी तक के सभी समाजों का इतिहास वर्ग-संघर्ष का ही इतिहास है। स्वतन्त्र व्यक्ति तथा दास कुलीन वर्ग तथा साधारण जनता, सामन्त तथा अर्द्ध- दास किसान, गिल्ड का स्वामी तथा उसमें कार्य करने वाले कारीगर, संक्षेप में, शोषक तथा शोषित, सदो एक-दूसरे के विरोधी होकर कभी प्रत्यक्ष तो कभी अप्रत्यक्ष परन्तु अनवरत युद्ध करते रहते हैं। इस संघर्ष का अन्त प्रत्येक बार या तो समग्र समाज के क्रान्तिकारी पुनर्निर्माण में या संघर्षरत वर्गो की आम बर्बादी में होता है। आधुनिक पूँजीवादी समाज, जोकि सामन्तवादी समाज के अवशेषों से अंकुरित हुआ है, वर्ग-संघर्ष से विमुक्त नहीं है। इसने केवल पुराने के स्थान में नवीन वर्गों को, उत्पीड़न की नई अवस्थाओं को तथा नवीन प्रकार के संघर्षों को जन्म दिया है। फिर भी हमारे इस युग की, पूँजीवादी युग की, एक विशिष्ट विशेषता यह है कि इसने वर्ग- संघर्ष को अधिक सरल बना दिया है। समग्र रूप में समाज उत्तरोत्तर दो महान विरोधी समूहों में बँट रहा है; ये दो महान वर्ग, पूँजीपति और सर्वहारा, एक-दूसरे से प्रत्यक्ष रूप में संघर्षरत हैं।’ मार्क्स का कथन है कि यह एक ऐतिहासिक सत्य है कि भू-सम्पत्ति के विपरीत पूँजी सदैव धन का आकार करती है। पूँजी का प्रथम साकार रूप धन है। उसके बाद पूँजीपतियों द्वारा उस धन से श्रमिकों के श्रम को उसके वास्तविक मूल्य से कम मूल्यों में खरीदकर और इस प्रकार अतिरिक्त मूल्यों को एकत्रित करके धन को पूँजी में बदल दिया जाता है। इस पूँजी से उन चीजों को खरीदकर, जोकि नए उत्पादन में आर्थिक रूप में सहायक होती हैं और जोकि उत्पादन क्रिया के एक साधन के रूप में उपयोग में लाई जाती है, पूँजीपति लोग श्रमिकों के श्रम से पूँजी का एकत्रीकरण करते रहते हैं या दूसरे शब्दों में, धन से धन को बढ़ाते हैं। यह पूँजी बढ़ते-बढ़ते एक ऐसे जीवित-दानव में बदल जाती है जोकि कटु-फलदायक और स्वयं बढ़ने वाली होती है और जो श्रमिकों के खून को धीरे-धीरे चूसती रहती है। इस प्रकार, मार्क्स के अनुसार, पूँजी वह धन है जोकि श्रमिकों का शोषण करने के लिए उपयोग में लाया जाता है। इस शोषण से ही वर्ग-संघर्ष का बीजारोपण हो सकता है।
मार्क्स ने वर्ग-संघर्ष की विवेचना के दौरान में उन आर्थिक परिवर्तनों को भी विश्लेषित किया है जोकि प्राचीन समाज में गृह-उद्योग की अवस्था से लेकर वर्तमान युग के फैक्ट्री उद्योग तक हुए हैं। मार्क्स ने इस पूँजीवादी फैक्ट्री-प्रणाली के प्रमुख परिणामों का उल्लेख इस प्रकार किया है कि फैक्ट्री-प्रणाली में उत्पादन बड़े पैमाने पर होता है जिसके कारण बहुधा अति-उत्पादन से वह स्थिति उत्पन्न हो जाती है जिससे कि अधिकाधिक व्यापार-चक्र या व्यापारिक संकटकाल का उदभव स्वाभाविक होता है। इसके फलस्वरूप कम हैसियत वाले पूँजीपति या छोटे पैमाने के मिल-मालिकों को हानि होती है और धीरे-धीरे उनका सब कुछ बड़े पूँजीपतियों के हाथ में चला जाता है जिससे पूँजी का उत्तरोत्तर केन्द्रीकरण कुछ लोगों के हाथ में हो जाता है। परिणामस्वरूप छोटे पूँजीपति अधिक संख्या में पूँजीवादी वर्ग से बाहर निकलकर श्रमिक-वर्ग में सम्मिलित हो जाते हैं और जनता का अधिकाधिक भाग एक अति अल्पसंख्यक पूँजीपति वर्ग का नौकर हो जाता है। प्रत्येक व्यापारिक संकटकाल में पूँजीपति वस्तुओं के मूल्यों में कमी कर देता है क्योंकि ऐसा करने से अति-उत्पादित वस्तुओं का अधिकाधिक बेचना सम्भव होना है। जब वस्तुओं का मूल्य गिरता है तो मजदूरों का वेतन भी आप-से-आप कम जाता है। मजदूरों को कम वेतन पर अधिक से अधिक काम करना पड़ता है। इससे श्रमिकों की क्रय-शक्ति घटनी है। वे अपनी प्राथमिक आवश्यकताओं की भी पूर्ति नहीं कर पाते हैं। धन या पूँजी का वास्तविक उत्पादक श्रमिक होता है, परन्तु उसे उसका उचित हिस्सा नहीं मिल पाता है। धोखे और अन्याय से पूँजीपति श्रमिकों की गाढ़ी कमाई का फल छीन लेते हैं। यही मार्क्स के अनुसार, ‘मनुष्य का मनुष्य द्वरा शोषण है। इससे श्रमिक- वर्ग में असन्तोष बढ़ता रहता है जोकि प्रत्यक्ष तौर पर वर्ग संघर्ष के रूप में प्रकट होता है।
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