अगस्त कॉम्टे के ‘प्रत्यक्षवाद’ और कॉम्टे के चिन्तन की अवस्थाएँ
श्री काम्टे को प्रत्यक्षवाद का जन्मदाता कहा जाता है। उसकी अवधारणायें प्रत्यक्षवादी सिद्धान्त पर आधारित हैं, परन्तु उनके लेखों में इसका अधिक स्पष्टीकरण नहीं हुआ है, फिर भी इसे निम्न प्रकार से समझाया जा सकता है। श्री काम्टे के अनुसार प्रत्यक्षवाद का एक अर्थ वैज्ञानिक है। आपका विचार है कि समय ब्रह्माण्ड ‘अपरिवर्तनीय’ प्राकृतिक नियमों द्वारा व्यवस्थित तथा निर्देशित होता है और यदि नियमों को हमें समझना है तो धार्मिक या तात्विक आधारों पर नहीं अपितु विज्ञान की विधियों द्वारा ही समझा जा सकता है। वैज्ञानिक विधियों में कल्पना का कोई स्थान नहीं, ये तो निरीक्षण प्रयोग और वर्गीकरण पर आधारित वैज्ञानिक विधियों के द्वारा सब कुछ समझना और उससे ज्ञान प्राप्त करना ही प्रत्यक्षवाद है।
श्री काम्टे का कथन है कि अनुभव निरीक्षण प्रयोग तथा वर्गीकरण की व्यवस्थित कार्यप्रणाली द्वारा न केवल प्राकृतिक घटनाओं का ही अध्ययन सम्भव है बल्कि समाज का भी क्योंकि समाज भी प्रकृति का एक अंग है। जिस प्रकार पृथ्वी की गति ऋतु परिवर्तन चाँद और रवि का आवागमन, दिन और रात का होना आदि प्राकृतिक घटनायें आकस्मिक नहीं है, बल्कि कुछ सुनिश्चित नियमों द्वारा निर्देशित होती है, उसी प्रकार मानवीय या सामाजिक घटना भी आकस्मिक नहीं होती, वे कुछ सामाजिक नियमों के अन्तर्गत आती हैं। अतः सामाजिक घटनायें किस प्रकार घटित होती है या उनका कम अधिक गति से हो सकती है, इसका अध्ययन यथार्थ रूप से सम्भव है। यही प्रत्यक्षवाद का प्रथम आधारभूत सिद्धान्त है।
प्रत्यक्षवाद का दूसरा महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि यह अपने को धार्मिक और तात्विक विचारों से दूर रखने के लिए प्रयत्न करती है, क्योंकि इनकी अध्ययन प्रणाली वैज्ञानिक कदापि नहीं हो सकती। प्रत्यक्षवाद कल्पना का ईश्वरीय महिमा के आधार पर नहीं बल्कि निरीक्षण, परीक्षण प्रयोग और वर्गीकरण की व्यवस्थित कार्य प्रणाली के आधार पर सामाजिक घटनाओं की व्याख्या करता है।
प्रत्यक्षवाद अपने क्षेत्र से धार्मिक और तात्विक विचारों का दृढ़तापूर्वक बहिष्कार करता है। ऐसा वह इस कारण करता है क्योंकि इस प्रकार के विचार एक प्रकार की सट्टेबाजी है।
अतः स्पष्ट ही है कि प्रत्यक्षवादी प्रणाली के आधार पर किये गये अध्ययन और उसके द्वारा प्राप्त निष्कर्ष वैज्ञानिक तथा विस्वसनीय होते हैं। श्री काम्टे का कथन यही है कि धार्मिक तथा तात्विक विचार मात्र सामाजिक अध्ययन तक ही सीमित रह गया है। परन्तु यदि हम सामाजिक अध्ययन को वैज्ञानिक स्तर पर लाना चाहते हैं तो इस सामाजिक अध्ययन के क्षेत्र से भी तात्विक तथा धार्मिक विचारधारा को निकाल देना ही उचित होगा। ऐसा किए बिना समाजशास्त्र विज्ञान नहीं हो सकता।
श्री काम्टे का प्रत्यक्षवाद या विज्ञान उपस्थित घटनाओं व तथ्यों के बाहर न कुछ देखता है और न पहचानना है अर्थात् जिन घटनाओं और तथ्यों को हम प्रत्यक्ष रूप से देख या निरीक्षण कर सकते हैं प्रत्यक्षवाद का क्षेत्र यही तक सीमित है। इसका तात्पर्य यह नहीं कि जो भी अजेय या अज्ञात है उसको जानने या खोज निकालने का प्रत्यक्ष प्रत्यक्षवाद के अन्तर्गत नहीं आता है। इसका तात्पर्य केवल इतना ही है कि प्रत्यक्षवाद अज्ञात और अज्ञेय के पीछे बिना किसी वास्तविक आधार के दौड़ता नहीं है क्योंकि इस प्रकार का ख्याली पुलाव पकाकर यह अपने वैज्ञानिक स्तर स्तिर रह सकता है। इसलिए प्रत्यक्षवाद घटनाओं के बाहर या पार जाने का प्रत्यक्ष नहीं करता है क्योंकि केवल घटनाओं को ही जाना जा सकता है।
डॉ0 बृजेश ने इस संबंध में श्री काम्टे के दृष्टिकोण का स्पषटीकरण करते हुए लिखा है कि श्री काम्टे घटनाओं की दुनिया के उस पार अवस्ति गूढ़ रहस्य के संबंध में अत्यधिक सचेत थे। इसे आप प्रत्येक पर उसी तरह अनुभव करते रहे जिस प्रकार एक नायकि उस तरह समुद्र विषय में सचेत रहता है जिसके कि बीच से होकर उसे अपना मार्ग निश्चित करना पड़ता है। लेकिन चूंकि उस भेद को रहस्य में रखना मनुष्य का काम नहीं, इसलिए उसे अपनी क्रियाओं को उस क्षेत्र की ओर मोड़ना होगा जहां कि उसका फल उसे मिल सके। पृथ्वी की आकर्षण शक्ति का अन्तिम स्रोत पंचमहाभूत के अन्तिम गठन, गर्मी, विद्युत शक्ति, रासायनिक सम्बन्ध आदि की पूर्ण तथा अन्तिम व्याख्यायें समस्त विषय इससे सदैव छिपे ही रहे उसी प्रकार जीवन की उत्पत्ति और प्रेम की प्रथम प्रवृत्ति भी कम अन्धकार में नहीं है। इसका क्यों और कहाँ से हम जान नहीं सकते। यही हमारे लिए पर्याप्त होगा कि हम इनके कैसे को अर्थात इनकी क्रियाशीलता के नियमों की जान ले।
प्रत्यक्षवाद यही कहता है। प्रत्यक्षवाद का प्रथम और प्रमुख उद्देश्य धार्मिक तथा तात्विक अवधारणाओं या विचारों से मानव मस्तिष्क को मुक्त करके सामाजिक अध्ययन व अनुसंधान को वैज्ञानिक स्तर पर लाना है। प्रत्यक्षवाद प्राकृतिक विज्ञानों की पद्धति को सामाजिक अध्ययन को प्रयोग में लाकर सामाजिक विज्ञान को भी उतना ही यथार्थ बनाता है जितना कि भौतिकशास्त्र, रसायनशास्त्र आदि है। इस प्रकार प्रत्यक्षवाद वह साधन बन जाता है जिसके द्वारा मानव का बौद्धिक विकास सम्भव हो।
कॉम्टे के चिन्तन की तीन अवस्थाएँ
कॉम्टे के द्वारा निर्धारित मनुष्य के चिन्तन की तीन अवस्थाओं को निम्नलिखित ढंग से समझा जा सकता है।
(1) धार्मिक अथवा काल्पनिक अवस्था—
यह मानव के चिन्तन की प्रारम्भिक अवस्था है। इस अवस्था में मानव के विचार संकुचित एवं चेतना सोई हुई रहती है। सही अर्थो में यह आदि-युग के मानव की चिन्तन की अवस्था है। इस स्तर पर मानव समस्त भौतिक घटनाओं के घटित होने का मूल कारण दैवी शक्ति अथवा अलौकिक तत्वों को मानता है। बाढ़ वर्षा, सर्दी, गर्मी, सूखा भूकम्प दिन-रात स्नेह-प्रेम, नदियों का प्रवाह बीमारी, महामारी यदि घटनाओं के घटित होने का कारण कोई दैवीय शक्ति या अलौकिक शक्ति है। सरल शब्दों में चिन्तन के इस स्तर पर मानव प्रत्येक घटना के पीछे किसी न किसी अलौकिक अथवा दैवीय शक्ति के होने की बात सोचता है।
(2) तत्व दार्शनिक या भावात्मक अवस्था—
मानव चिन्तन का दूसरा स्तर भावात्मक अवस्था है। यह धार्मिक एवं प्रत्यक्षवाद के मध्य की एक अवस्था है। यह प्रथम अवस्था का संशोधित रूप है। धार्मिक अथवा काल्पनिक स्तर पर एक मनुष्य एकेश्वरवाद तक तो पहुँच गया, लेकिन यहीं पर उसकी चिन्तन प्रक्रिया रुक नहीं गई। उसकी चिन्तन प्रक्रिया निरन्तर तीव्र गति से चलने लगी। इस स्तर पर मानव मस्तिष्क का पूर्ण विकास हो गया। इस स्तर पर वह अनेक प्रश्नों का तर्कपूर्ण उत्तर चाहता है, जैसे-ईश्वर कैसा है? उसका आकार क्या है? आदि। कहने का तात्पर्य यह है कि इस स्तर पर मनुष्य का चिन्तन तर्कपूर्ण हो जाता है। प्रथम अवस्था की वह किसी भी बात पर आँख मींचकर विश्वास नहीं करता है। इस स्तर पर अन्धविश्वास व रूढ़िवादिता का कोहरा छंटने लगता है। चिन्तन इस स्तर पर मानव मस्तिष्क ईश्वरवाद के कोरे विश्वास से सन्तुष्ट नहीं हो पाता है, अपितु उसके स्थान पर किसी अज्ञेय, अमूर्त एवं निराकर शक्ति में विश्वास करने लगता है। इस प्रकार अज्ञेय शक्तियों को (अमूर्त शक्तियों या सत्ताओं को) प्रत्येक घटना का कारण मानना ही इस भावात्मक अवस्था की विशेषता है।
स्वयं कॉम्टे ने इस स्तर को तीन शब्दों में व्यक्त किया है- ‘भावात्मक अवस्था में जो कि प्रथम अवस्था का संशोधित रूप मात्र है। मानव मस्तिष्क यह मान लेता है कि अलौकिक प्राणियों के स्थान पर अमूर्त शक्तियाँ यथार्थ स्तर पर सभी जीवों में अन्तर्निहित है और घटनाओं की उत्पत्ति में समर्थ हैं।’
इस प्रकार भावात्मक अवस्था में अलौकिक एवं दैवी शक्तियों का स्थान एक अदृश्य अथवा अमूर्त शक्ति ग्रहण कर लेती है अर्थात धार्मिक अवस्था भावात्मक अवस्था में परिवर्तित हो जाती है।
(3) वैज्ञानिक या साकारवादी अवस्था-
कॉम्टे के अनुसार मानवीय चिन्तन की तीसरी व अन्तिम अवस्था प्रत्यक्ष या वैज्ञानिक अवस्था है। यह अवस्था प्रथम दोनों अवस्थाओं के बाद प्राप्त होती हैं। यह पूर्णतया संसार को बौद्धिक दृष्टि से देखने का तरीका है। यह अवस्था घटनाओं के निरीक्षण व वर्गीकरण पर आधारित रहती है और इसमें कल्पना या भावना को कोई स्थान नहीं दिया जाता है।
इस अवस्था को व्यक्त करते हुए कॉम्टे लिखता है— ‘अन्तिम तौर पर प्रत्यक्ष या वैज्ञानिक अवस्था में मस्तिष्क दैवीय धारणाओं, ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति और लक्ष्य तथा घटनाओं के कारणों की व्यर्थ खोज को त्याग देता है और उनके नियमों अर्थात उनके अनुक्रम और समानताओं के निश्चित सम्बन्धों के अध्ययन में लग जाता है।’
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