विद्यालय प्रशासन की प्रमुख कठिनाइयां | शैक्षिक प्रशासन की प्रमुख समस्याएं
विद्यालय प्रशासन की प्रमुख कठिनाइयां | शैक्षिक प्रशासन की प्रमुख समस्याएं – किसी भी संस्था को सुचारु रूप से चलाने के लिए प्रशासन की आवश्यकता होती है। प्रशासन का अर्थ है समस्त मानवीय एवं भौतिक तत्वों को इस प्रकार से संगठित एव व्यवस्थित करना जिससे शिक्षा के विभिन्न उद्देश्यों की पूति हो सके।
प्रशासन संस्था की धुरी होता है। उचित एवं कुशल प्रशासन के बिना समस्त साधनों के उपलब्ध होने के बावजूद शिक्षा के उद्देश्यों को प्राप्त नहीं किया जा सकता है। संस्थागत प्रशासन की ऐसी समस्याएँ या बाधाएँ निम्नलिखित है-
(1) परीक्षा की समस्या-
विद्यालयों में आन्तरिक परीक्षाओं की व्यवस्था करना भी एक समस्या है। परीक्षा का क्या रूप हो? परीक्षा में अधिक से अधिक निष्पक्षता किस प्रकार लाई जाए? परीक्षा में कक्षोन्नति का क्या आधार रखा जाए? ये सब आन्तरिक प्रशासन के लिए एक समस्या है।
(2) मार्ग-निर्देशन के अभाव की समस्या-
आज की शिक्षा बाल-केन्द्रित शिक्षा है अर्थात आज हम इस बात पर बल देते हैं कि बालक को उसकी रूचि, योग्यता एवं क्षमता के अनुसार शिक्षा दी जानी चाहिए परन्तु जब विविध पाठ्यक्रम का प्रश्न आता है तो चयन की समस्या उठ खड़ी होती है। उचित मार्ग दर्शन प्रदान करने के लिए विद्यालय में विशेष रूप से प्रशिक्षित अध्यापकों की आवश्यकता होती है परन्तु बहुत कम विद्यालयों में इस सुविधा की व्यवस्था उपलब्ध होती है।
(3) शिक्षकों में पारसपरिक वैमनस्य की समस्या-
आजकल शिक्षकों में भी परस्पर मैत्रीपूर्ण तथा सौहार्द्रपूर्ण सम्बन्ध नहीं होते। उनमें आपसी वैमनस्य उत्पन्न होता जा रहा है। कभी-कभी तो शिक्षक विद्यार्थियों को भी अपने दलो में आकृष्ट कर उन्हें अपने स्वार्थपूर्ति का साधन बना लेते हैं। इससे भी विद्यालयों में अनुशासनहीनता और अव्यवस्था उत्पन्न होती है।
(4) उपयुक्त भवन तथा क्रीड़ास्थल की समस्या-
आन्तरिक प्रशासन की एक और समस्या उपयुक्त भवन तथा क्रीड़ास्थल से सम्बन्धित है। बहुत कम विद्यालय ऐसे हैं जो उपयुक्त स्थान पर स्थित हैं और उनके पास विशाल क्रीड़ास्थल है। शहरों में तो बहुत कम विद्यालय ऐसे हैं जिनके पास खेल के मैदान हो। स्थान के अभाव में विद्यालय में पाली-प्रथा (Shift System) शुरू हो गयी है जिसने विद्यालयों को कारखाने जैसे रूप प्रदान कर दिया है। ऐसी स्थिति में अनेक समस्याएँ एवं अव्यवस्थाएँ उत्पन्न हो जाती हैं जिससे प्रशासन में बाधा आती है।
(5) विद्यालय एवं समाज में सामंजस्य की समस्या-
आज विद्यालय और समाज एक दूसरे से दूर होते जा रहे हैं। दोनों के बीच एक खाई सी उत्पन्न हो गयी है जिसे पाटा जाना अत्यन्त आवश्यक है। विद्यालय और समाज के सहयोग के बिना शिक्षा कार्य का संचालन भली जाना आवश्यक है। प्रकार से नहीं हो सकता। अत: इस दूरी को कम करके दोनों के बीच सामंजस्य स्थापित किया जाना आवश्यक है|
(6) वित्तीय समस्या-
विद्यालय प्रशासन में वित्त अर्थात धन की समस्या भी एक आम समस्या है। धन के अभाव में अनेक छात्र-हितकारी कार्य सम्पन्न नहीं हो पाते। विद्यालय के सम्मुख अनेक योजनाएँ होती है परन्तु उन्हें क्रियान्वित करने के लिए वित्त उपलब्ध करना भी प्रशासन को एक बहुत बड़ी समस्या है।
(7) बढ़ते हुए कार्यालय कार्य की समस्या-
आज कार्यलय का कार्य भी दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है। आज विद्यालय प्रशासक के पास कार्यालय के ही इतने झंझट होने हैं, इतना Table Work होता है कि न तो वह अन्य साहित्यिक गतिविधियों में हिस ले पाता है और न ही अध्यापन का कार्य भली प्रकार से सम्पन्न कर पाता है।
(8) अनुशासनहीनता-
विद्यार्थियों में निरन्तर बढ़ती हुई अनुशासनहीनता आन्तरिक प्रशासन की एक गम्भीर समस्या है। कभी-कभी इस समस्या को विकट रूप प्रदान करने में हामरे आन्तरिक एवं बाह्य प्रशासनाधिकारी भी उत्तरदायी होते हैं। आवश्यकता इस बात की है कि विद्यार्थियों की उचित माँगों को समय पर पूरा किया जाए। सहानुभूतियों एवं सद्व्यवहार से भी इस समस्या का समाधान काफी हद तक सम्भव हो सकता है।
(9) पाठ्य सहगामी क्रियाओं के संचालन की समस्या-
पाठ्य सहगामी क्रियाओं के संचालन के लिए विद्यालय में समस्त सुविधाएँ उपलब्ध नहीं होती। अकसर विद्यालयों के पास खेल के मैदान तथा अन्य आवश्यक समान का अभाव होता है जिससे कि इन क्रियाओं की व्यवस्था करना एक समस्या हो जाती है।
उपरोक्त विवेचना के बाद हम इसी निष्कर्ष पर आते हैं कि शिक्षा प्रशासक को प्रशासन में आने वाली समस्याओं का निराकरण करते हुए विद्यालय की विभिन्न गतिविधियों को कुशलता एवं दक्षता के साथ संचालित करना चाहिए। विद्यालय-प्रशासन का प्रमुख उद्देश्य विद्यालय में श्रेष्ठ व वातावरण का निर्माण करना तथा शिक्षा से सम्बन्धित सभी क्रियाकलापों और गतिविधियोंको नियोजित एवं संगठित रूप से संचालित करना है जिससे कि विद्यार्थियों के व्यक्तित्व का समुचित एवं सर्वाङ्गीण विकास हो सके, वो देश के उपयोगी नागरिक बन सकें और देश को उन्नतिशील बनाने में अपना योगदान दे सकें।
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