नारद मुनि का जीवन परिचय (Biography of Narada in Hindi)- नारद के विषय में सभी पाठक जानते हैं। ये प्रसिद्ध देवर्षि थे, जिनका प्राचीन ग्रंथों में विभिन्न रूपों में और अलग-अलग समय में विवरण मिलता है। ये ब्रह्मा के मानस पुत्र एवं ईश्वर के भक्त के रूप में विख्यात हैं। ये तीनों लोकों में भ्रमणरत रहते थे और दैत्यों व दानवों के अत्याचारों की जानकारी भगवान को देते थे। इन्हें वेद, वेदांग निष्णात, ब्रह्मज्ञानी व नीति कुशल की संज्ञा दी गई है। ये संगीत विद्या में भी दक्ष थे। नारद को शूद्र माता के गर्भ से पैदा हुआ कश्यप ऋषि का पुत्र भी बताया गया है। एक बार ब्रह्मा ने अपने सभी पुत्रों को प्रजा सृष्टि करने का कार्य किया, किंतु दक्ष के दस हजार पुत्रों को नारद ने ब्रह्मज्ञान का उपदेश देकर वीतरागी बना दिया। इस पर दक्ष प्रजापति ने इन्हें गौदोहन में लगने वाले समय से ज्यादा एक स्थान पर न रुकने व तीनों लोकों में घूमते रहने का श्राप दे दिया। उसी के श्राप के कारण इनका शूद्र माता के गर्भ से पुनर्जन्म भी हुआ।
नारद सर्वकालीन हैं। अर्जुन के जन्म के समय ये उपस्थित थे। द्रौपदी के स्वयंवर में भी थे। द्रौपदी संग संसर्ग में बैर से बचने के लिए नियम बनाने का परामर्श पांडवों को इन्होंने ही दिया था। इनके परामर्श से युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ किया। महाभारत के पश्चात् धृतराष्ट्र, कुंती और गांधारी के दावानल में जलकर मरने की सूचना युधिष्ठिर के पास यही लाए थे। नारद को पहले संगीत का ज्ञान नहीं था। इस वजह से लक्ष्मी ने अपने संगीत समारोह से इन्हें दासियों द्वारा बाहर करवा दिया। तब इन्होंने लक्ष्मी को राक्षसी होने का श्राप दिया था।
नारद को ब्रह्मचारी माना गया है। कुछ ग्रंथों में इनके नारी का रूप धारण करने का भी प्रसंग आता है। एक बार ये ‘नारदी’ नाम की युवती बन गए और श्रीकृष्ण से इनका वैवाहिक संबंध बना। काशिराज की सुशीला नाम की पुत्री बनकर ये विदर्भ राज सुशर्भा के साथ विवाह बंधन में भी बंधे। शिवराज सृजय की कन्या दमयंती से नारद के विवाह का भी विवरण मिलता है। दमयंती से अपना प्रेम प्रकरण नारद ने अपने भतीजे पर्वत से छिपाया था। इससे कुपित होकर इसने नारद को वानर समान हो जाने का श्राप दिया। बंदर मुख होने की कथा ‘नारद मोह भंग’ के रूप में भी कही जाती है। नारद को अपने ब्रह्मचर्य का बहुत अहंकार था। इंद्र द्वारा प्रेषित कामदेव भी इन्हें पददलित न कर सका। अपना ये अहंकार जब नारद ने भगवान विष्णु के समक्ष प्रदर्शित किया तो विष्णु ने इन्हें शिक्षा देने का मन बनाया। घूमते हुए नारद की नजर शलिनिधि राजा की रूपवती कन्या विश्वमोहिनी पर गई तो ये मोहित हो गए और उसके स्वयंवर में सफलता प्राप्त करने के निमित्त विष्णु से इनका रूप मांगने जा पहुंचे। विष्णु ने इनको बंदर रूप प्रदान कर दिया। नारद प्रसन्नचित स्वयंवर में गए, किंतु वहां उपहास के पात्र बने और विश्वमोहिनी की वरमाला रूप परिवर्तित कर बैठे विष्णु के गले में जा पड़ी। जब नारद को इसका ज्ञान हुआ तो इन्होंने विष्णु को श्राप दिया कि जिस प्रकार तुमने मुझे स्त्री के अभाव में व्यथित किया, उसी तरह तुम भी स्त्री के कारण कष्ट पाओगे और आखिर में बंदर ही तुम्हारी मदद करेंगे। इस श्राप ने रामावतार के समय आकार ग्रहण किया। कृष्णावतार में नरकासुर के बंदीगृह से स्वतंत्र सोलह हजार स्त्रियों से कृष्ण का विवाह कराने वाले के रूप में भी नारद का विवरण प्राप्त होता है। हाथ में तंबूरा लेकर भ्रमण करने वाले नारद का देव व दानव सभी सम्मान करते थे। ये यहां की बात वहां पहुंचाने में बेहद गुणी थे, किंतु ऐसा करने की भावना लोक कल्याण की ही रहती थी। इनका चरित्र प्राचीन वाङ्मय में अपने तरीके का अकेला ही रहा है।
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