राजा नल का जीवन परिचय (Biography of Nal in Hindi)- पुराण व महाभारत में नल व दमयंती का बखान विस्तृत रूप में मौजूद है। निषध देश के राजा वीरसेन के पुत्र नल का विदर्भ देश के राजा की पुत्री दमयंती ने स्वयंवर में वरण किया था। द्यूत क्रीड़ा में नल अपने भ्राता पुष्कर से हार गया और नल-दमयंती दोनों को राज्य से निर्वासित कर दिया गया। दोनों के शरीर पर एक-एक वस्त्र ही शेष रह गया था। वन में घूमते हुए भोजन के लिए पक्षी पकड़ते हुए नल का वह वस्त्र भी पक्षी ले गया। तब नल ने थककर सोई हुई दमयंती का आधा वस्त्र फाड़कर खुद पहना और उसे छोड़कर चला गया। हताश दमयंती चेदि देश के राजा की पत्नी की सेविका बनकर दिन गुजारने लगी।
नल भी भटकता हुआ अयोध्या आया और बाहुक के छद्म नाम से राजा ऋतुपर्ण का सारथि बन गया। कुछ समय पश्चात् दमयंती के पिता विदर्भ राज ने खोजकर पुत्री को अपने बुला लिया। किसी तरह ये मालूम हो जाने पर कि ऋतुपर्ण का सारथि बाहुक नल हो सकता है। दमयंती ने सच्चाई जानने हेतु पुनः अपने स्वयंवर का ऐलान करवा दिया और ऋतुपर्ण को निमंत्रण दिया गया। नल जब अयोध्या के राजा को लेकर पहुंचा तो बाहुक को बुलाकर दमयंती ने कहा, ‘निरपराध पत्नी को वन में आश्रय रहित स्थिति में त्यागने वाला विश्व में राजा नल के अलावा अन्य कोई नहीं है।’ बाहुक रूपी नल को बात चुभ गई। वह बोला- ‘पति के जीवित रहते फिर से स्वयंवर रचने वाली स्त्री भी तुम्हारे अलावा अन्य कोई नहीं है।’ इस पर दोनों ने एक-दूसरे को पहचाना। नल दमयंती को लेकर अपने राज्य लौटा व भाई को द्यूत क्रीड़ा में परास्त करके फिर से राजपाट प्राप्त कर लिया।
एक और नल का विवरण रामायण में भी आता है। यह नल था : श्रीराम की सेना का स्थापत्य कलाविज्ञ एक वानर, जिसने लंका पर चढ़ाई के लिए समुद्र पर पुल बनाया था। यह देवों के शिल्पी विश्वकर्मा का पुत्र नल था। एक बार श्राप की वजह से विश्वकर्मा को वानर योनि में जन्म लेना पड़ा था, तब इसका जन्म घृताची नामक अप्सरा के गर्भ से हुआ था। एक ब्राह्मण द्वारा इसे वरदान दिया गया था कि तुम्हारे हाथ के पत्थर पानी में न डूबकर तैरते रहेंगे। इसी कारण वह पुल का निर्माण करने में सफल हो पाया था।
राजा नल किस वंश के थे?
निषध देश में वीरसेन के पुत्र नल नाम के एक राजा हो चुके हैं। वे बड़े गुणवान्, परम सुन्दर, सत्यवादी, जितेन्द्रिय, सबके प्रिय, वेदज्ञ एवं ब्राह्मणभक्त थे। उनकी सेना बहुत बड़ी थी।। वे स्वयं अस्त्रविद्या में बहुत निपुण थे। वे वीर, योद्धा, उदार और प्रबल पराक्रमी भी थे। उन्हें जुआ खेलने का भी कुछ-कुछ शौक़ था।
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