शिक्षण का अर्थ एवं परिभाषाएँ (Meaning and Definitions of Teaching)
शिक्षण का अर्थ- शिक्षण एक द्वि-मार्गीय प्रक्रिया है जिसके द्वारा विचारों का आदान-प्रदान होता है। शिक्षण का अर्थ है पढ़ाना, शिक्षा देना, ज्ञान देना। यह शिक्षक-शिक्षार्थी की उपस्थिति में सम्पन्न होने वाली अन्तः क्रिया है और इस अन्तः क्रिया का माध्यम पाठ्यवस्तु होती है। इस प्रक्रिया में शिक्षक-शिक्षार्थी को निर्धारित विषयों में पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति हेतु ज्ञान एवं कुशलता प्रदान करता है। शिक्षक एवं शिक्षार्थी की सफलता का मूल्यांकन इस तथ्य पर निर्भर करता है कि पाठ्यवस्तु के बारे में शिक्षक द्वारा पूछे गये प्रश्नों का उत्तर देने में शिक्षार्थी कितने योग्य हैं। शिक्षणशास्त्र (Pedagogy) शिक्षण के अध्ययन की कला है। शिक्षण कार्य वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा एक शिक्षक अपने छात्रों को ज्ञान एवं कौशल प्रदान करता है। ज्ञान एवं कौशल को प्रवाहित करने वाली कार्य प्रक्रिया एवं कला को शिक्षण कहते हैं। शिक्षण की कुछ महत्वपूर्ण परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं-
एडमण्ड – एमीडन के अनुसार, “शिक्षण एक अन्तःक्रियात्मक प्रक्रिया है जो कक्षागत परिस्थितियों में वांछित लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए शिक्षक तथा विद्यार्थियों के मध्य होती है।”
According to Edmund and Amidon, “Teaching is an interactive process primarily involving classroom talk which takes place between teacher and pupil and occurs during certain definable activities.”
बी.ओ. स्मिथ के अनुसार, “शिक्षण क्रियाओं की एक विधि है जो सीखने की उत्सुकता जागृत करती है।”
According to B.O. Smith, “Teaching is a system of actions intended to produce learning.”
रायबर्न के अनुसार, “शिक्षा में तीन केन्द्र बिन्दु होते हैं- शिक्षक, बालक एवं पाठ्यवस्तु । शिक्षण इन तीनों में स्थापित किया जाने वाला सम्बन्ध है।”
According to Ryburn, “There are three focal points in education – the teacher, the child and the content. Teaching is a relationship which is established between these three.”
बर्टन के अनुसार, “शिक्षण सीखने के लिए प्रेरणा, पथ प्रदर्शन, पथ निर्देशन एवं प्रोत्साहन है।”
According to Burton, “Teaching is the stimulation, guidance, direction and encouragement of learning.”
ह्यू एवं डंकन के अनुसार, “शिक्षण एक ऐसी विशिष्ट व्यावसायिक, विवेकपूर्ण तथा मानवीय क्रिया है जिसमें व्यक्ति सृजनात्मक एवं कल्पनात्मक रूप से स्वयं तथा स्वयं के ज्ञान का उपयोग अधिगम एवं दूसरों के कल्याण के समर्थन हेतु करता है।”
According to Hue and Duncan, “Teaching is an activity – a unique, professional, rational and human activity which creatively and imaginatively uses himself and his knowledge to promote the learning and welfare of others.”
क्लार्क के अनुसार, शिक्षण एक प्रक्रिया है जिसके प्रारूप का निर्माण एवं उसकी सम्पन्नता इसलिए की जाती है जिससे छात्रों के व्यवहार में परिवर्तन लाया जा सके।”
According to Clarke, “Teaching process is designed and performed to produce change in student behaviour.”
अतः शिक्षण की प्रक्रिया के उत्तम परिणाम प्राप्त करने के लिए शिक्षक, शिक्षार्थी एवं विषय तीनों पर ही ध्यान देना आवश्यक है। ये तीनों पक्ष एक दूसरे से सम्बन्धित होते हैं। इसलिए एक सफल शिक्षक को शिक्षण करते समय अपने लक्ष्य के साथ-साथ छात्र तथा विषय-वस्तु से अपने सम्बन्धों को भी ध्यान में रखना चाहिए। शिक्षण का एक महत्वपूर्ण कार्य है व्यक्ति को सामाजिक चेतना में भाग लेने के योग्य बनाना। बालक अपने वातावरण के प्रति बुरी प्रतिक्रिया न करके केवल अच्छी प्रतिक्रिया ही करें, यह मात्र शिक्षण द्वारा ही सम्भव है। अच्छी प्रतिक्रिया करके ही उसका शारीरिक, सामाजिक और आध्यात्मिक विकास हो सकता है। इस सन्दर्भ में सिम्पसन का विचार है कि “शिक्षण वह साधन है, जिसके द्वारा समाज अपने बालकों को चुने हुए वातावरण से, जिसमें कि उनको रहना है, शीघ्रातिशीघ्र अनुकूलन करने की क्रिया में प्रशिक्षित करता है।”
शिक्षण की प्रकृति (Nature of Teaching)
शिक्षाशास्त्रियों तथा मनोवैज्ञानिकों ने शिक्षण प्रक्रिया की विभिन्न परिभाषाएँ दी हैं। इन परिभाषाओं के विश्लेषण से शिक्षण के क्षेत्र एवं प्रकृति का ज्ञान होता है। आधुनिक शिक्षा का क्षेत्र सीमित न रहकर बहुत वृहत हो गया है। वर्तमान में सभी क्षेत्रों में कार्य कुशल एवं कौशल से युक्त लोगों की माँग है जो केवल शिक्षा के माध्यम से ही पूर्ण हो सकती है। इस प्रकार यदि शिक्षा के क्षेत्र की बात करते हैं तो यह राजनीति, नीति निर्माता, शैक्षिक, व्यावसायिक, कृषि विश्लेषण, रक्षा, शान्ति इत्यादि ऐसे अनेक क्षेत्र हैं। जहाँ शिक्षा की अति महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है।
दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि वर्तमान में कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है जहाँ शिक्षा के अभाव में कार्य किया जा सके। इसके आधार पर शिक्षण की प्रकृति निम्नलिखित हैं-
(1) शिक्षण एक सोद्देश्य प्रक्रिया है (Teaching is a Purposeful Process) – शिक्षण का एक विशिष्ट उद्देश्य होता है, जिसको ध्यान में रखकर शिक्षण कार्य किया जाता हैं। इस प्रकार यह एक सोद्देश्य प्रक्रिया है। इसका एक निश्चित लक्ष्य होता है। जिन्हें शिक्षण के माध्यम से प्राप्त करने का प्रयास किया जाता है।
(2) शिक्षण एक अन्त: प्रक्रिया है (Teaching is an Interactive Process)- शिक्षण का कार्य शिक्षक एवं शिक्षार्थी दोनों के द्वारा पूर्ण किया जाता है। शिक्षक अथवा शिक्षार्थी दोनों में से यदि कोई भी अनुपस्थित रहेगा तो यह कार्य सम्भव नहीं होगा। इसमें परस्पर दोनों के मध्य अन्तः क्रिया होती है।
(3) इसकी प्रकृति कला एवं विज्ञान दोनों की है (Its Nature is of Art and Science Both) – शिक्षण के विषय में कुछ लोगों का मानना है कि यह कला है, जबकि कुछ लोगों का मानना है कि यह विज्ञान है परन्तु वास्तव में यह कला एवं विज्ञान दोनों प्रतीत होता है। कला होने के पीछे तर्क यह दिया गया हैं कि यह अन्य कलाओं की भाँति देश, काल एवं परिस्थिति के अनुसार चला आ रहा है तथा इसका स्वरूप शिक्षण के उद्देश्यों के साथ बदलता रहता है। कुछ विद्वानों का मानना है कि इसके आधारभूत सिद्धान्त शाश्वत हैं। कई नियम देश, काल, परिस्थिति में नहीं बदलते, इस कारण यह विज्ञान भी है। अतः इसकी प्रकृति कला एवं विज्ञान दोनों की है।
(4) शिक्षण एक विकासात्मक प्रक्रिया है (Teaching is a Developmental Process) – शिक्षण की प्रकृति विकासात्मक है। बाल केन्द्रित शिक्षण के द्वारा बालक का सर्वांगीण विकास होता है तथा उसका व्यवहार परिवर्तन होता है। सफल शिक्षण तभी माना जाता है जब उसके तीनों पक्षों ज्ञानात्मक, भावात्मक एवं क्रियात्मक का विकास होता हो। इसमें शिक्षण के इन पक्षों का विकास आवश्यक है।
(5) शिक्षण एक सामाजिक तथा व्यावसायिक प्रक्रिया है (Teaching is a Social and Professional Process) – शिक्षण प्रक्रिया शिक्षक एवं छात्र दोनों के सहयोग से चलती है। शिक्षण प्रक्रिया के संचालन हेतु वातावरण सामाजिक होने के कारण यह सामाजिक प्रक्रिया है तथा इसे जीवकोपार्जन के रूप में शिक्षक द्वारा प्रयोग किया जाता है इसलिए यह व्यावसायिक प्रक्रिया है। इस प्रकार शिक्षण की प्रकृति व्यावसायिक एवं सामाजिक है।
(6) शिक्षण एक निर्देशन की प्रक्रिया है (Teaching is a Process of Guidance) – प्राचीन काल में जब पुस्तक एवं छापाखाना की व्यवस्था नहीं थी तब सूचनाओं अथवा निर्देशों को वृक्ष की पत्तों पर लिखकर दिया जाता था परन्तु अब पुस्तकों की कमी नहीं है तथा शिक्षण के द्वारा मार्गदर्शन दिया जाता है। शिक्षण को मार्गदर्शन माना जाता है। शिक्षक को छात्र की रुचि, क्षमता अभिवृत्ति आवश्यकता आदि को ध्यान में रखकर उसे सही निर्देश देना चाहिए।
(7) शिक्षण एक त्रिध्रुवीय प्रक्रिया है (Teaching is a Tripolar Process)- विभिन्न विद्वानों ने शिक्षण को त्रिध्रुवीय प्रक्रिया माना है। ब्लूम महोदय ने शिक्षण के निम्नलिखित तीन पक्ष बताए हैं-
इस प्रकार यह त्रिध्रुवीय प्रक्रिया ही वास्तविक शिक्षण है।
(8) शिक्षण में भाषा सम्प्रेषण का कार्य करती है (Language Works as a Medium in Teaching)- शिक्षण में भाषा सम्प्रेषण के रूप में महत्वपूर्ण कार्य करती है। शिक्षण के सभी तथ्यों, प्रत्ययों, सिद्धान्तों, नियमों, सूत्रों तथा सामान्यीकरण का बोध भाषा के माध्यम से ही होता है। शिक्षण के समय शिक्षक द्वारा प्रयोग की जाने वाली भाषा को छात्र सरलता से समझ जाता है। इसकी प्रतिक्रिया के रूप में छात्र भी अपनी समस्याओं को भाषा के द्वारा ही शिक्षक के समक्ष प्रस्तुत करता है। इस प्रकार शिक्षण में भाषा एक सम्प्रेषण के रूप में कार्य करती है।
(9) शिक्षण मनुष्य को समायोजन के योग्य बनाता है (Teaching Helps Human Being to be Able to Adjust in Society)- शिक्षण मनुष्य को समाज में समायोजन करने के लिए सक्षम बनाता है। यह समायोजन शिक्षण के माध्यम से ही सम्भव है। शिक्षण के माध्यम से यह विभिन्न प्रकार की समस्याओं का समाधान करके अपने-आप को परिस्थितियों के अनुकूल बनाता है। इसके द्वारा वह अपना समायोजन सरलता से कर सकता है।
(10) शिक्षण क्रियाशील बनाता है (Teaching Makes Active) – समस्त क्रियाशील जीवों में मानव सबसे अधिक बुद्धिमान होता है तथा वह अन्य जीवों की अपेक्षा अधिक क्रियाशील रहता है। इसके द्वारा ही उसके व्यक्तित्व का विकास होता है। शिक्षक हमेशा यह प्रयत्न करता है कि उसके छात्र विकास करें तथा उनमें कौशलों का विकास हो तथा वे अच्छे अंक प्राप्त करें। शिक्षा के द्वारा ही शिक्षक बालक में ज्ञानात्मक, भावात्मक एवं क्रियात्मक गुणों का विकास करता है। संक्षेप में, शिक्षक शिक्षण के माध्यम से बालकों को क्रियाशील बनाता है।
शिक्षण की विशेषताएँ (Characteristics of Teaching)
शिक्षण की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
(1) अधिगम (सीखने) में सहायक (Helpful in Learning) – शिक्षण वह माध्यम है जिसके द्वारा शिक्षार्थियों को विभिन्न विषयों का ज्ञान प्रदान किया जाता है। शिक्षण के द्वारा विद्यार्थी विभिन्न विषयों को सीखते हैं जिनकी आवश्यकता उनका सर्वांगीण विकास करने में होती है।
(2) सूचना संप्रेषण (Information Communication) – शिक्षण वह प्रक्रिया है जो संभवतः किसी भी परिवेश में हो सकती है तथा जिसके द्वारा विभिन्न प्रकार की सूचनाओं का संप्रेषण किया जाता है। यह ज्ञानार्जन का एक महत्वपूर्ण स्रोत होती है।
(3) कौशल क्षमता का विकास (Skills Capacity Development)- शिक्षण द्वारा छात्रों में कौशल क्षमता का विकास किया जाता है।
(4) छात्रों का व्यवहार परिवर्तन (Behavioural Changes in Students)- शिक्षण व्यवहार परिवर्तन की एक प्रक्रिया है। शिक्षण के द्वारा शिक्षक-शिक्षार्थियों को विभिन्न प्राचीन एवं सामयिक सूचनाएँ देता है। शिक्षार्थियों को जैसी सूचनाएँ दी जाती हैं वे वैसा ही व्यवहार करने की ओर प्रेरित होते हैं।
(5) बेहतर सम्बन्धों का निर्माण (Building Better Relations)- शिक्षण का तात्पर्य शिक्षक-शिक्षार्थी तथा पाठ्यचर्या के मध्य एक अच्छा सम्बन्ध स्थापित करना है। शिक्षण शिक्षक, शिक्षार्थी तथा विषय में सम्बन्ध स्थापित करता है। शिक्षण शिक्षक एवं शिक्षार्थी के मध्य सामाजिक व जनतांत्रिक सम्बन्धों का निर्माण करता है तथा अन्तः क्रिया द्वारा ज्ञान का आदान-प्रदान करता है। जॉन डी.वी. तथा रायबर्न ने शिक्षण को एक त्रिमुखी प्रक्रिया बताया है। ये त्रिमुखी है- शिक्षक, शिक्षार्थी एवं विषय।
(6) उद्देश्यों एवं लक्ष्यों की प्राप्ति (Attainment of Objectives and Goals) – शिक्षण उद्देश्यपूर्ण प्रक्रिया है जिसके द्वारा उद्देश्यों एवं लक्ष्यों की पूर्ति की जा सकती है।
(7) सामाजिक विकास (Social Development)- शिक्षण एक सामाजिक प्रक्रिया है क्योंकि यह शिक्षक व छात्रों के बीच में ही सम्पादित होती है। उत्तम शिक्षण के द्वारा व्यक्ति व समाज दोनों ही उन्नति करते हैं। उत्तम शिक्षण सहानुभूतिपूर्ण होता है।
(8) अनुकूलन में सहायक (Helpful in Adaptation) – शिक्षण विद्यार्थी को वातावरण से अनुकूलन करने में सहायता देता है। यह छात्र को संवेगात्मक स्थायित्व देने के साथ-साथ उसे वातावरण से सामंजस्य स्थापित करने के योग्य बनाता है।
(9) व्यावसायिक प्रक्रिया (Vocational Process)- शिक्षण एक व्यावसायिक प्रक्रिया है। इसको बहुत से व्यक्ति जीविकोपार्जन का साधन मानते हैं। यह छात्र में विभिन्न कौशल विकसित करते हुए उसे व्यवसाय विशेष के लिए निपुण बनाता है।
शिक्षण के उद्देश्य (Objectives of Teaching)
शिक्षण के उद्देश्य निम्नलिखित हैं-
(1) शिक्षण का उद्देश्य एक सम्पूर्ण मानव का निर्माण करना है, जिसमें उसके अस्तित्व का प्रत्येक पक्ष पूर्णतः विकसित हो सके।
(2) छात्रों में स्वयं उचित निर्णय लेने का गुण विकसित करना।
(3) शिक्षण द्वारा छात्र अपने आन्तरिक एवं बाह्य अनुभवों से सामंजस्य स्थापित करना।
(4) शिक्षण का उद्देश्य छात्रों को सहायता प्रदान करना है जिसके द्वारा वह उत्तम विचारक तथा उत्तम कार्यकर्ता बन सकें।
(5) छात्रों को स्व-अनुभूतियों एवं प्रत्यक्ष कारणों से समायोजन करते हुए वास्तविकता का बोध कराना।
(6) छात्रों में क्रियाशीलता, संगठन क्षमता एवं व्यावहारिक गुणों का विकास करना।
शिक्षण उद्देश्यों को स्पष्ट करते हुए रायबर्न ने लिखा है कि, “जब बालक का उत्तम शिक्षण हो जाता है तो वह एक समयबद्ध विकसित व्यक्तित्व सहित विद्यालय छोड़ता है। वह आत्मविश्वासी होता है। उसमें उत्तम रुचियाँ होती हैं। वह समाज के जीवन में सृजनात्मक भाग लेने हेतु तत्पर रहता है। जीवन तथा उसकी समस्याओं के प्रति उसका एक साहसपूर्ण एवं सृजनात्मक दृष्टिकोण होता है। अपनी समस्त शक्तियों का प्रयोग करने की कामना उसके चित्त में उत्पन्न हो चुकी होती है।”
शिक्षण की आवश्यकता एवं महत्व (Need and Importance of Teaching)
शिक्षण की आवश्यकता एवं महत्व को निम्नलिखित बिन्दुओं द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है-
(1) शिक्षण एक कौशल युक्त प्रक्रिया है। शिक्षण का तात्पर्य ज्ञान प्रदान करना है।
(2) छात्रों के व्यवहारों एवं मनोवृत्तियों में शिक्षण द्वारा परिवर्तन लाया जाता है।
(3) वर्तमान तथा भावी जीवन की सफलता के लिए शिक्षण एक महत्वपूर्ण साधन के रूप में है।
(4) अनुदेशन प्रारूप तैयार करने के लिए शिक्षण वैज्ञानिक आधार प्रदान करता है।
(5) छात्रों को ज्ञान प्रदान करने हेतु शिक्षण आवश्यक है।
(6) शिक्षण छात्रों को सूचनाएँ प्रदान करता है।
(7) छात्रों में विभिन्न योग्यताओं एवं क्षमताओं को विकसित करने के लिए शिक्षण आवश्यक है।
(8) शिक्षण छात्रों को जीवन के अनुभवों से अवगत कराता है।
(9) शिक्षण द्वारा बालकों में उत्तम नागरिकता के गुण तथा अन्य सद्गुणों को विकसित किया जाता है।
(10) शिक्षण बालक का सर्वागीण विकास करने के साथ-साथ भावी जीवन के लिए तैयार करता है।
(11) शिक्षण द्वारा छात्रों की सृजनात्मक शक्ति को विकसित किया जाता है जिसके द्वारा छात्र नवीन ज्ञान की खोज, नवीन चिन्तन तथा नवीन आविष्कार आदि करने के लिए तत्पर हो जाते है।
(12) छात्रों के ज्ञानात्मक, भावात्मक एवं क्रियात्मक पक्षों को विकसित करने में शिक्षण से सहायता मिलती है।
(13) शिक्षण द्वारा छात्रों में शिक्षण प्रक्रिया के प्रति उत्सुकता जाग्रत किया जाता है।
(14 ) शिक्षण द्वारा अनुबन्ध, प्रशिक्षण, अनुदेशन तथा प्रतिपादन आदि विकसित किए जाते हैं।
(15) शिक्षण द्वारा छात्रों में क्रियाशीलता, संगठन, समता एवं व्यवहारिक गुणों को विकसित किया जाता है।
(16) शिक्षण का महत्व बालकों को केवल ज्ञान प्रदान करना ही नहीं है बल्कि शिक्षण द्वारा बालकों के संवेगों को प्रशिक्षित करके सामाजिक समायोजन में सहायता प्रदान की जाती है।
शिक्षण को प्रभावित करने वाले कारक (Factors Affecting Teaching)
शिक्षण एक प्रकार की अन्तःक्रिया है जिसका उद्देश्य छात्रों में एक निश्चित व्यवहार सम्पादित करना है। शिक्षण प्रक्रिया अनेक कारकों द्वारा प्रभावित होती है। इन मुख्य कारकों में से कुछ प्रमुख करक निम्नलिखित हैं-
(1) शिक्षा का उद्देश्य – शिक्षा का उद्देश्य शिक्षण प्रक्रिया के स्वरूप तथा संरचना को प्रभावित करता है। शिक्षण के कुछ निश्चित अधिगम उद्देश्य हैं, उदाहरण- कौशलात्मक (Skill), ज्ञानोपयोगात्मक (Application), ज्ञानात्मक (Cognitive), अवबोधात्मक (Understanding ) तथा श्लाघात्मक (Appreciation) आदि । प्रत्येक उद्देश्य (कौशलात्मक या अवबोधात्मक) के लिए भिन्न प्रकार का शिक्षण होगा।
(2) व्यक्तिगत भिन्नताएँ- व्यक्तिगत भिन्नता का प्रभाव शिक्षण प्रक्रिया पर स्पष्ट रूप से दृष्टिगत होता है। यदि किसी कक्षा के विद्यार्थी परस्पर एक-दूसरे से शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, रचनात्मक तथा संवेगात्मक रूप से पर्याप्त मात्रा में भिन्न हों तो निश्चय ही वहाँ पर अन्य प्रकार की शिक्षण की विधियाँ सफल होंगी क्योंकि प्रत्येक बालक का व्यक्तित्व भिन्न होता है साथ ही उसकी आवश्यकताएँ, रुचि, रूझान, योग्यता तथा क्षमता में भी पर्याप्त विभिन्नता पाई जाती है।
(3) छात्रों का मनोशारीरिक स्तर- शिक्षण की प्रक्रिया पर विद्यार्थियों के मानसिक व शारीरिक स्तर का भी पूर्ण प्रभाव पड़ता है। विद्यार्थियों का शारीरिक एवं मानसिक स्तर जिस प्रकार का होगा, शिक्षण प्रक्रिया का स्वरूप भी उसी प्रकार का होगा।
(4) विषय वस्तु का स्वरूप व स्तर- विषय-वस्तु का प्रकार तथा स्वरूप भी शिक्षण की प्रक्रिया को प्रभावित करता है। जिस तरह की शिक्षण की विषय-वस्तु होगी, उसी के अनुसार शिक्षण का स्वरूप परिवर्तित हो जाएगा। समस्त प्रकार के विषय अथवा किसी पृथक विषय की सम्पूर्ण विषय सामग्री एक ही प्रकार की शिक्षण क्रिया से विद्यार्थियों के सामने प्रस्तुत करने से प्रभावोत्पादक तथा लाभदायक शिक्षण नहीं हो सकता है।
(5) कक्षा का वातावरण- कक्षा-कक्ष की संरचना एवं परिवेश शिक्षण प्रक्रिया को पूर्ण रूप से प्रभावित करती है। यदि कक्षा अंधकारयुक्त, संवातहीन तथा शोरगुल वाले स्थान पर है तो उचित शिक्षण करना अत्यधिक कठिन होगा। कक्षा तथा विद्यालय का सामाजिक तथा भौतिक वातावरण भी शिक्षण की प्रक्रिया पर पूर्ण प्रभाव डालता है।
(6) शिक्षण क्रिया का नियोजन- शिक्षण क्रिया का नियोजन भी पूर्ण रूप से शिक्षण क्रिया को प्रभावित करता है। यदि शिक्षक बिना किसी योजना के शिक्षण की क्रियाओं का सम्पादन करता है तो उसकी शिक्षण क्रियाएँ कभी भी रोचक एवं प्रभावोत्पादक नहीं होंगी। बिना योजना के शिक्षण की क्रियाओं में किसी भी प्रकार की तारतम्यता नहीं पाई जाती है। पाठ की योजना में शिक्षक पाठ्यवस्तु – विश्लेषण, अधिगम सामग्री, शिक्षण की विधि, शिक्षण के बिन्दु, आदि की अवधारणा, आयोजन, व्यवस्था तथा स्पष्टता व रचना के बारे में चिन्तन-मनन कर लेता है।
(7) शिक्षक की विशिष्टताएँ एवं योग्यताएँ – शिक्षक की शारीरिक, मानसिक, शैक्षिक योग्यताएँ एवं विशिष्टताएँ तथा कौशल, पात्रता, क्षमता एवं व्यक्तित्व गुण भी शिक्षण के स्वरूप को प्रभावित करते हैं। इन्हीं योग्यताओं व विशिष्टताओं पर प्रत्येक शिक्षक का शिक्षण भिन्न-भिन्न प्रकार का होता है। प्रशिक्षित एवं शैक्षिक नवाचारों में मनीषी या प्रबुद्ध शिक्षक का अध्यापन कार्य अप्रशिक्षित शिक्षक की अपेक्षा अधिक निखरा हुआ होता है। शैक्षिक नवाचारों की प्रवीणता के उपयोग द्वारा शिक्षण प्रक्रिया को रोचक बनाया जा सकता है।
(8) भौतिक सुविधाओं की उपलब्धता – विद्यालय में शिक्षक के पास उपलब्ध भौतिक वस्तुओं एवं विषयवस्तु आश्रय-युक्त अधिगम-वस्तु का शिक्षण प्रक्रिया पर पूर्ण प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। यदि किसी शिक्षक के पास उचित मात्रा में तथा अलग-अलग प्रकार के शैक्षिक साधन उपलब्ध हैं तो वह शिक्षक अन्य की अपेक्षा अधिक सरस व प्रभावोत्पादक शिक्षण कार्य पूर्ण कर सकेगा।
(9) बाल केन्द्रीयता एवं शिक्षण-प्रविधि – शिक्षक द्वारा प्रयोग की जा रही शिक्षण की विधि तथा शिक्षण तकनीक द्वारा भी शिक्षण की प्रक्रिया प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित होती है । पाठ के विकास में छात्र की उचित सक्रियता तथा निष्ठता एवं सहभागिता भी शिक्षण को प्रभावपूर्ण बनाने में योगदान प्रदान करती है। अतः शिक्षण प्रक्रिया में “क्रिया पद्धति’, ‘खेल पद्धति’, तथा ‘करके सीखो पद्धति अपनाई जाए।
(10) मूल्यांकन प्रतिफल – पूर्व में निर्धारित उद्देश्य किस सीमा तथा राशि या मात्रा में प्राप्त हुए, इस दिशा में कहाँ तक सफलता तथा असफलता प्राप्त हुई, इस कार्य के लिए मूल्यांकन की विभिन्न प्रकार की विधियों तथा प्रविधियों को प्रयोग में लाया जाता है। मूल्यांकन प्रतिफल या मूल्यांकन परिणामों के आधार पर शिक्षक समय-समय पर असफलताओं तथा कमियों का निराकरण करने के लिए परिस्थितियों के अनुसरण में वह अपनी शिक्षण-प्रक्रियाओं में आकर्षक व वांछनीय परिवर्तन करता है।
इस प्रकार शिक्षक का दायित्व है कि शिक्षण को प्रभावित करने वाले कारकों को ध्यान में रखते हुए शिक्षण प्रक्रिया को अपनाना चाहिए।
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