पहचान के निर्धारकों के रूप में जाति
(क) पहचान के निर्धारकों के रूप में जाति (Caste) – हिन्दी की ‘जाति’ शब्द अंग्रेजी के Caste शब्द का हिन्दी रूपान्तर है जिसकी उत्पत्ति पुर्तगाली के ‘कास्ट’ (Casta) शब्द से हुई है जिसका अर्थ है प्रजति या जन्मगत भेद । इस अर्थ में जाति प्रथा प्रजातीय या जन्मत भेद के आधार पर बनी एक व्यवस्था है।
डॉ. मजूमदार और मदान के अनुसार, “जाति एक बंद वर्ग है। “
कूले के अनुसार, “जब एक वर्ग पूर्णतः वंशानुक्रम पर आधारित होता है तो उसे हम जाति कहते हैं।”
हरबर्ट रिजले के अनुसार, “जाति परिवारों का, परिवारों के समूह का एक संकलन है जिसका एक सामान्य नाम है, जो एक काल्पनिक पूवर्ज, मानव या देवता से एक वंश परम्परा या उत्पत्ति का दावा करते हैं, एक ही परम्परात्मक व्यवसाय को करने पर बल देती हैं और एक सजातीय समुदाय के रूप में उनके द्वारा मान्य होते हैं जो अपना ऐसा मत व्यक्त करने के योग्य है।”
उपर्युक्त परिभाषाएँ दिखाती हैं कि जाति व्यक्तियों के एक ऐसे समूह के रूप में जानी जा सकती है। जिसकी सदस्यता जन्मगत है । अतः स्पष्ट है कि “जाति जन्म पर आधारित समूह है और यह अपने सदस्यों को कुछ प्रतिबन्ध मानने के लिए निर्धारित करती है।” जाति प्रणाली एक गतिशील व्यवस्था है जिसे निश्चित स्थायी परिभाषा में नहीं बाँधा जा सकता है। व्यक्ति की पहचान निर्धारण में जाति का बहुत महत्व है। अब जाति का स्वरूप परिवर्तन हो गया है । हट्टन ने जाति के तीन मुख्य कार्य बताये हैं-
1. व्यक्तिगत जीवन के लिए- जाति हमारा अन्य लोगों से सम्बन्ध स्थापित करती है। जाति व्यक्ति के लिए निम्न कार्य करती है- (i) सामाजिक स्थिति का निर्धारण। (ii) सामाजिक सुरक्षा प्रदान करना। (iii) व्यक्ति के व्यवहार पर नियंत्रण। (iv) मानसिक सुरक्षा एवं सन्तोष प्रदान करना । (v) वैवाहिक समूह का निर्धारण। (vi) व्यवसाय का निर्धारण।
2. जाति समुदाय के लिए- जाति व्यक्ति के लिए ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण जाति के लिए पहचान सम्बन्धी निम्न कार्य करती है- (i) सामाजिक स्थिति का निर्धारण । (ii) संस्कृति का हस्तान्तरण एवं स्थिरता प्रदान करना । (iii) जातीय एकता को प्रोत्साहन । (iv) धार्मिक भावना की रक्षा करना। (v) रक्त की शुद्धता बनाये रखना।
3. सम्पूर्ण राष्ट्र के लिए- हट्टन का कथन है कि जाति द्वारा व्यक्ति के लिए जाने वाले कार्य तो अन्य समितियाँ भी करती हैं किन्तु जाति द्वारा जो कार्य राष्ट्र के लिए किए जाते हैं वे हैं- (i) समाज के विकास में सहायक। (ii) राजनीतिक स्थिरता प्रदान करना । (iii) धार्मिक उदारता । (iv) अपने दायित्व निर्वाह की प्रेरणा।
आज जाति व्यवस्था में बहुत परिवर्तन हो गये हैं। वर्तमान जाति व्यवस्था अपने परम्परागत बन्धनों को दूर करती जा रही है जिनके आधार पर उसका अस्तित्व हजारों वर्षों तक समाज में कायम रहा। वर्तमान समय नवीन आविष्कारों विश्वासों, मूल्यों एवं नवीन ज्ञान एवं विचारों आदि से प्रभावित होकर एक मुक्त व स्वतंत्र समाज की ओर निरन्तर अग्रसर हो रहा है।
भारत में जाति-व्यवस्था के भविष्य की ओर संकेत करते हुए एम. एन. श्रीनिवास ने लिखा है, “यदि आप यह सोचते हैं कि भारत में जाति विभाजन से सरलता से मुक्ति पाई जा सकती है तो आप एक बड़ी गलती कर रहे हैं। जाति यहाँ एक शक्तिशाली संस्था है और इसके समाप्त होने से पहले यह काफी खून-खराबा कर सकती है।” इस कथन की वास्तविकता बहुत कुछ आज हमें अपने वर्तमान जीवन में देखने को मिल रही है। भविष्य में जहाँ जैसे-जैसे शिक्षा और सामाजिक जागरूकता में वृद्धि होगी तथा राजनैतिक दर जाति पर आधारित गुटबन्दी से ऊपर उठकर लोकतांत्रिक सिद्धान्तों के प्रति अधिक जागरूक होते जाएँगे, जाति व्यवस्था का असमानतावादी और शोषणकारी रूप समाप्त होता जायेगा।
(ख) वर्ग (Class) – मैक्स वेबर के अनुसार, ‘ “हम एक समूह को तब वर्ग कह सकते हैं जबकि उस समूह के लोगों के जीवन के कुछ विशिष्ट अवसर समान रूप से प्राप्त हों।”
साधारणतः मनुष्य को एक ‘वर्ग-प्राणी’ भी कहा जा सकता है। आज का भारतवासी भी किसी-न-किसी वर्ग का जैसे शिक्षक वर्ग, श्रमिक वर्ग, व्यापारी वर्ग, लेखक वर्ग आदि का न केवल सदस्य है बल्कि उसका सक्रिय भागीदारी है।
मैकाइवर एवं पेज के अनुसार, “सामाजिक वर्ग एक समुदाय का कोई भाग है जो सामाजिक स्थिति के आधार पर शेष भाग से पृथक् दृष्टिगोचर होता है । “
ऑगबर्न एवं निमकॉफ के शब्दों में, “एक सामाजिक वर्ग उन व्यक्तियों का योग है जिनकी आवश्यक रूप से एक समाज विशेष में एक सी सामाजिक स्थिति हो। “
रिचर्ड लैपीयर के अनुसार, “एक सामाजिक वर्ग सांस्कृतिक आधार पर परिभाषित वह समूह है जिसे सम्पूर्ण जनसंख्या में एक निश्चित स्थिति प्राप्त है।”
अतः कहा जा सकता है कि सामाजिक वर्ग समाज का वह भाग है जिसके सदस्यों को एक ऐसी विशिष्ट और सामान्य सामाजिक स्थितियाँ तथा कार्य होते हैं जिनके आधार पर उनमें यह जागरूकता पनप जाती है कि वे समाज के अन्य समूहों से भिन्न है।
भारत में वर्ग के आधार- आधुनिक समाज में धन या सम्पत्ति का अत्यधिक महत्व है फिर भी आर्थिक आधार को ही वर्ग निर्माण का एकमात्र आधार मानना उचित न होगा। भारतीय समाज का वर्ग निर्माण के निम्न सात आधार है-
1. सम्पत्ति या धन और आय (Property or Wealth and Income) – व्यक्ति के पास जितनी आय, सम्पत्ति होती है वह उस वर्ग का सदस्य हो जाता है जैसी आय वर्ग, निम्न आय वर्ग आदि।
2. परिवार तथा नातेदारी (Family and Kinship) – भारत में परिवार एवं नातेदारी का महत्व होने के कारण व्यक्ति को एक विशेष वर्ग की सदस्यता मिल जाती है। विवाह आदि में भी परिवार तथा नातेदारी को महत्व दिया जाता है।
3. निवास स्थान (Location of Residence) – जिस क्षेत्र विशेष में आप रहते हैं वह एक वर्ग मान लिया जाता है जैसे कुछ मोहल्लों में रहने वालों को उच्च वर्ग और कुछ को निम्न वर्ग में मान लिया जाता है।
4. निवासी की अवधि ( Duration of Residence)- इसमें जो लोग एक स्थान विशेष में बहुत दिनों से निवास करते रहे हैं उन्हें इस स्थान में विशेष प्रतिष्ठा प्राप्त होती है। वह पुराने निवासियों का वर्ग बन जाता है।
5. शिक्षा (Education)- शिक्षा की दृष्टि से एक ही स्थिति वाले लोग एक वर्ग का निर्माण करते हैं जैसे शिक्षित वर्ग और अशिक्षित वर्ग।
6. व्यावसाय की प्रकृति (Nature of Occupation) – विभिन्न व्यवसाय सम्पूर्ण समाज को एक निश्चित समूहों में बाँट देते हैं, इनमें से प्रत्येक समूह को एक वर्ग कहा जा सकता है इसलिए ड्राइवर, वर्ग, क्लर्क वर्क, डॉक्टर वर्ग, किसान वर्ग, वकील वर्ग, शिक्षक वर्ग व्यापारी वर्ग आदि व्यवसाय की प्रकृति के आधार पर ही बने हैं।
7. धर्म (Religion) – धर्म के आधार पर भी अलग वर्ग बन जाते हैं। धर्म पर विश्वास होने या न होने के आधार पर आस्तिक वर्ग और नास्तिक वर्ग बन जाते हैं।
अतः इन्हीं वर्ग विशेषों के आधार पर ही व्यक्ति की अपनी पहचान स्थापित होती है। एक वर्ग में ऊँच-नीच की भावना, वर्ग चेतना, मुक्त द्वार, सीमित सामाजिक सम्बन्ध कम स्थिर, उप-वर्ग और जीवन अवसर जैसी विशेषताएँ उपलब्ध होती है। मैक्स वेबर ने कहा है कि, “हम एक समूह को तब वर्ग कह सकते हैं जबकि उस समूह के लोगों को जीवन को कुछ विशिष्ट अवसर समान रूप से प्राप्त हों। “
आज आधुनिक भारत में अर्थव्यवस्था तथा सांस्कृतिक राजनैतिक परिस्थितियों ने नवीन वर्गों को जन्म दिया है जो है- (i) बुद्धिजीवी वर्ग (Intellenctual class) (ii) शासक वर्ग (Ruling class) (iii) श्रमिक वर्ग (Labour class) (iv) पूँजीपति वर्ग (Capitalist class) (v) कृषक वर्ग (Cultivator class) (vi) व्यापारी वर्ग (Business class) (vii) स्वतंत्र पेशों में लगा अभिजात वर्ग ( Elite Society Involved in Individual Professions) (viii) नौकरशाह वर्ग (Bureaucrats)
(ग) भाषा (Language)- सभ्यता के विकास में भाषा सबसे बड़ी शक्ति है। यदि व्यक्ति के पास भाषा की शक्ति न होती तो मानव की आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक उन्नति की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। इस उन्नति का प्रमुख कारण आविष्कार है । को प्रसारित करने का श्रेय मनुष्य की भाषा शक्ति को ही जाता है। भाषा से मनुष्य मन के भाव प्रकट करता है। सामाजिक, अन्तःक्रिया एवं भावों के आदान-प्रदान में भाषा ही सहायक होती है। संगीत रचना, गीत, साहित्य, सृजन आदि सभी भाषा के आविष्कार के ही कारण हैं। भाषा से एक क्षेत्र प्रान्त और राष्ट्र में सम्बन्ध स्थापित होते हैं। भाषा की विभिन्नता के आधार पर ही
सांस्कृतिक विभिन्नता, सामाजिक भिन्नता तथा राजनैतिक भिन्नता के दर्शन होते हैं। भाषा वह माध्यम है जिससे हम अपने भावों को व्यक्त करते हैं। भाषा शब्दों द्वारा अपने भावों को उच्चरित करके दूसरे व्यक्ति तक सम्प्रेषित करने का सशक्त माध्यम है।
कहा जा सकता है कि भाषा वह माध्यम है जिसके द्वारा समाज व व्यक्ति मान्य शब्द ‘संकेतों से आपस में विचारों का आदान-प्रदान करता है।
भाषा की भिन्नता का व्यक्ति की पहचान पर प्रभाव-भाषा की विभिन्नता का व्यक्ति की पहचान निर्माण पर बहुत प्रभाव पड़ता है-
1. धार्मिक विभिन्नता के मूल में भाषा- हमारे देश में धार्मिक विभिन्नता है, विभिन्न धर्मों के अनुयायी रहते हैं इसीलिए कार्यकलाप एवं पूजा व्यवस्था में पर्याप्त भिन्नता पाई जाती है। हिन्दुओं के ग्रन्थ संस्कृत में, मुसलमानों के अरबी भाषा में, बाइबिल अंग्रेजी में तथा गुरुग्रन्थ साहब गुरुमुखी में लिखा गया है। बौद्ध एवं जैन धर्म प्राकृत और पाली भाषा में हैं।
2. राजनीति पर भाषा का प्रभाव- प्रत्येक राष्ट्र की राजनीति पर भी भाषा का प्रभाव पड़ता है। किसी देश के सरकारी कामकाज को चलाने हेतु वैधानिक रूप से ‘राजभाषा’ की आवश्यकता होती है। यह कामकाज करने में लागू होती है। यही पहचान बनाती है।
3. वैचारिक भिन्नता का मूल आधार- व्यक्ति के विचारों में भिन्नता पाई जाती हैं। जो व्यक्ति जैसा साहित्य पढ़ता है वैसा ही उस पर प्रभाव पड़ता है। आचार्य श्रीराम शर्मा ने लिखा है, “जो व्यक्ति जैसा साहित्य पढ़ता है उसके विचार वैसे ही हो जाते हैं। सोचता है वैसा ही करता है जैसा करता है वैसा ही बन जाता है।” अतः व्यक्ति की भावनाएँ विचार, धर्म संस्कृति, खान-पान और क्रियाएँ भी उसकी भाषा से प्रभावित होती हैं।
4. भाषा का परम्पराओं से सम्बन्ध- परम्पराएँ सदियों से पीढ़ी दर पीढ़ी चलती रहती हैं। भाषा भी उन्हीं परम्पराओं में से एक है। प्रत्येक प्रान्त की परम्पराओं में भिन्नता भाषा के कारण ही आती है। भाषा की विभिन्नता का प्रभाव प्रत्यक्ष रूप से व्यक्ति के व्यवहार को निर्देशित तथा नियंत्रित करता है।
5. भाषा संस्कृति का आधार- किसी भी राष्ट्र की संस्कृति उस देश की भाषा पर ही आधारित होती है। उत्तर और दक्षिण में विरोध की भावना का मुख्य कारण भाषा ही है। खान-पान वेशभूषा, रीति-रिवाज पर भाषा का प्रभाव पड़ता है। वही उसकी पहचान बन जाती है। सभी विकसित और विकासशील देश बहुभाषी हैं इसलिए चाहे वहाँ राजभाषा का प्रश्न हो या अल्पसंख्यकों की भाषाओं का जातिगत तनाव या भाषीय दुविधा का सामना सबको करना पड़ रहा है। भाषाशास्त्रियों ने तो इस पर विचार करते हुए ‘भाषायी जाति संहार” भाषा मृत्यु’ तथा ‘भाषा आत्महत्या’ जैसे शब्दों को गढ़कर गहराई से चिन्तन किया है। वे भाषाएँ, जिन्हें किसी कारण अपने देश में हेय या नगण्य माना जाता है या सामाजिक व राजनीतिक कारणों से जिन्हें पद या प्रतिष्ठा नहीं मिल पाती हैं वे संघर्षरत हो जाती हैं। हमारे देश में हिन्दी राजभाषा बनकर भी आन्तरिक विरोधाभासों, मानसिक अवरोधों या अंग्रेजी – भक्त बुद्धिजीवियों के अहंकार के कारण पदच्युत जैसी है। आश्चर्य तो यह है कि अमेरिका जैसे देश में ‘अंग्रेजी बचाओं’ जैसे नारे दिया जा रहे हैं, क्योंकि अल्पसंख्यक स्पेनिश, इटालियन, फ्रेंच या जर्मन बोलने वाले अपने प्रजातांत्रिक अधिकारों के लिए अप्रत्यक्षतः संघर्ष कर रहे हैं। वैसे अंग्रेजी के स्यत्वाधिकार के कारण वे अपनी भाषाओं को भी तिलांजलि देने से नहीं हिचकते हैं, एकीकरण के नाम पर उन्हें अपनी भाषाओं की नगण्य स्थिति पर आंतरिक रोष है। कनाडा का क्यूबेक प्रान्त जहाँ फ्रेंच बोली जाती है, अंग्रेजी के दबाव के कारण पिछले जनमत संग्रह में पृथक् राष्ट्र होते-होते बच गया।
आज बदलते हुए सामाजिक और राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में शक्ति और प्रभुता के उपकरण के रूप में भाषाओं की स्थिति भी बदल रही है। उदाहरण के लिए, अमेरिका में ही अश्वेतों की ‘ब्लैक बर्नाक्युलकर इंगलिश’ उनकी उभरती हुई पहचान का प्रतीक बन गई है। कभी-कभी शासकीय संरक्षण के कारण भी भाषा शक्ति का प्रतीक बन जाती है। नाडा के क्यूबेक प्रान्त में दुकानों या कार्यालयों में फ्रेंच अक्षर अंग्रेजी से आवश्यक रूप से कितने बड़े होने चाहिए, यह तय किया गया है। फ्रांस में तो अंग्रेजी के सार्वजनिक प्रयोग पर विशेषकर सरकारी प्रतिष्ठानों में आर्थिक दण्ड की माँग की गई है। एक बहुभाषी भाषा के सन्दर्भ में यदि कोई व्यक्ति इसलिए पद-प्रतिष्ठा पा सकता है कि एक निश्चित भाषा समुदाय का सदस्य है तो उसी समाज में दूसरा व्यक्ति असहाय, दयनीय या शक्तिहीन बन सकता है, क्योंकि वह दूसरी भाषा, जैसे- अंग्रेजी का प्रयोग नहीं कर सकता है। आज लगता है, हमारे देश में केवल हिन्दी जानने वालों का सामाजिक व सांस्कृतिक दृष्टि से कोई महत्व नहीं रह गया। है। अंग्रेजी ही श्रेष्ठता का मापदण्ड बनकर रह गई है। इससे यह स्वतः सिद्ध होता है कि भाषा को एक शक्तिशाली अत्र के रूप में सामाजिक असमानता के लिए प्रयोग किया जा सकता है।
(घ) लिंग (Gender) – लिंग श्रेणियों में से एक सेट हैं, वहाँ पुरुषों और महिलाओं, एक लिंग द्विआधारी को सौंपा लिंग विशेषताओं के बीच एक बुनियादी प्रभाग है। जो करने के लिए ज्यादातर लोगों का पालन करना और जो सेक्स और लिंग के सभी पहलुओं में मर्दानगी और स्त्रीत्व के आदर्शों के अनुरूप लागू करता है। जैविक सेक्स, लिंग पहचान और लिंग अभिव्यक्ति । सभी समाजों में, कुछ व्यक्तियों लिंग के पहलुओं है कि उनके जैविक सैक्स के लिए आवंटिक कर रहें हैं के कुछ (या सभी) के साथ की पहचान नहीं है। वहाँ कैसे और कब लिंग पहचान रूपों के बारे में कई सिद्धान्त हैं और इस विषय का अध्ययन मुश्किल है क्योंकि बच्चों की भाषा की कमी अप्रत्यक्ष के सबूत से मान्यताओं बनाने के लिए शोधकर्ताओं की आवश्यकता है। जॉन मनी का सुझाव बच्चों के बारे में जागरूकता हो सकता है और लिंग के लिए कुछ महत्व देते हैं। लॉरेंस कोलबर्ग का तर्क है कि लिंग पहचान के लिए तीन साल की उम्र तक फार्म नहीं है। यह व्यापक रूप से सहमति व्यक्त की है। कि कोई लिंग पहचान मजबूती से तीन साल की उम्र से ही बना है। ( इस बिंदु पर बच्चों को उनके लिंग के बारे में फर्म बयान कर सकते हैं और गतिविधियों और खिलौने का चयन करते हैं (जैसा कि गुड़िया और लड़कियों के लिए चित्रकला और उपकरणों और लड़कों के लिए किसी न किसी आवास के रूप में) अपने लिंग (उपयुक्त माना जाता है जो (हालांकि वे अभी तक पूरी तरह से लिंग के निहितार्थ समझ में नहीं आता है।) लिंग भूमिकाओं के माता-पिता के स्थापना माता-पिता की अपने कारकों को प्रभावित करने के लिए लिंग अवज्ञा का समर्थन नहीं करते सुझाव दिया गया है और अधिक लिंग पहचान और लिंग भूमिकाओं पर मजबूत और सख्त विचारों के साथ बच्चे पैदा करने की संभावना है। हाल ही में साहित्य कम अच्छी तरह से परिभाषित लिंग भूमिकाओं और पहचान की दिशा में एक प्रवृत्ति का सुझाव, संज्ञा, सर्वनाम या तटस्थ रूप में खिलौने के पैतृक कोडिंग के अध्ययन से संकेत मिलता है कि माता-पिता के रूप में तेजी से कोड रसोई और कुछ कुछ मामलों में तटस्थ बजाय विशेष रूप से स्त्री बुड़िया में। हालाँकि एमिली ने पाया कि कई माता-पिता अभी भी करने के आइटम, गतिविधियों या गुण, जैसे घरेलू कौशल और सहानुभूति के रूप में उस स्त्री विचार किया गया नकारात्मक प्रतिक्रियाओं से पता चलता है कि कई माता-पिता को एक तरीके से अपने बेटों के लिए को परिभाषित करने का प्रयास है कि स्त्रीत्व से बेटों की दुरियां (केन हुए कहा कि “बेटों के लिए माता-पिता की सीमा रखरखाव का काम स्पष्ट एक महत्वपूर्ण बाधा सीमित लड़कों के विकल्प का प्रतिनिधित्व करता है, लड़कियों से लड़कों को अलग करने, गतिविधियों का अवमूल्यन के साथ दोनों लड़कों और लड़कियों और इस तरह सहारा देने लैंगिक असमानता है। (“कई माता-पिता अपने बच्चे के लिए अल्ट्रासाउंड के रूप में प्रौद्योगिकी के माध्यम से बच्चे के लिंग का पता लगाने के बाद जन्म देते हैं। बच्चे को इस प्रकार एक लिंग विशेष नाम, खेल और यहाँ तक कि महत्वाकांक्षा के लिए आता है। (एक बार जब बच्चे का सेक्स चुना गया है, अधिकांश बच्चों, इसके साथ अनुसार उठाया जाता है एक पुरुष या महिला लिंग भूमिका आंशिक रूप से परिभाषित ढाले एक आदमी या एक औरत होने का माता पिता के द्वारा। लिंग विचरण कुछ मामलों में, एक व्यक्ति के लिंग पहचान ड्रेसिंग और एक तरह से बाहर सांस्कृतिक लिंग मानदंडों के रूप में दूसरों द्वारा मना जाता है एवं व्यक्तियों में जिनके ‘परिणामस्वरूप उनके जैविक सेक्स विशेषताओं (जननांगों और माध्यमिक सेक्स विशेषताओं) के साथ असंगत है। कई लोगों के विचार के लिए खुद को बाइनरी, लिंग जो उनके बाइनरी (पुरुष या महिला) सेक्स से मेल खाती है। 20वीं सदी से पहले, एक व्यक्ति को सेक्स जननांग की उपस्थिति से पूरी तरह से निर्धारित किया जाएगा लेकिन जैसा कि क्रोमोसोम और जीन में समझा जाने लगा, ये तो लिंग का निर्धारण करने में मदद करने के लिए इस्तेमाल किया गया। उन लोगों में, महिलाओं के रूप में परिभाषित सेक्स, जननांग की महिला माना जाता है और दो एक्स क्रोमोसोम होता है; पुरुषों के रूप देखा उन लोगों के सेक्स पुरुष जननांग र एक एक्स और एक वाई गुणसूत्र होने के रूप में देखा जाता है। हालांकि, कुछ व्यक्तियों को इन गुणसूत्रों, हार्मोन और जननांग कि “पुरुषों” और “महिलाओं” की पारंपरिक परिभाषा का पालन नहीं करते के संयोजन है। इसके अलावा जननांग में काफी भिन्नता है और कुछ व्यक्तियों के जननांग के एक से अधिक प्रकार की है। इसके अलावा, अन्य शारीरिक एक व्यक्ति की सेक्स (शरीर के आकार, चेहरे का बाल, उच्च या गहरी आवाज आदि) से संबंधित गुण या आदमी या औरत के अपने सामाजिक वर्ग से मेल नहीं हो सकता है। ट्रांसजेंडर लोगों को अन्य लोगों को जो विश्वास नहीं करते कि उनके लिंग पहचान सेक्स वे जन्म पर सौंपा गया से मेल खाती कई इंटरसक्स व्यक्तियों में शामिल है। इस तरह के एक व्यक्ति बाद में जन्म के समय किया पालन की सेक्स की एक नैदानिक काम के साथ असहमत हो सकता है। हाल के दशकों में यह संभव हो गया है शल्य चिकित्सा द्वारा सेक्स करने के लिए पुनः असाइन। कुछ लोग हैं जो लिंग (Dysphoria) का अनुभव उनके शारीरिक सेक्स उनके लिंग पहचान मैच के लिए इस तरह के चिकित्सा हस्तक्षेप की तलाश; दूसरों को बनाए रखने के जननांग के वे साथ पैदा हुए थे (संभावित कारणों में से कुछ के लिए हिजड़ा देखें) उनके लिंग पहचान के साथ संगत है अपनाने में एक लिंग की भूमिका है।
लिंग पहचान विकार (पहले “लिंग पहचान विकार” या जीआईडी डीएसए में कहा जाता है) जो लोग सेक्स वे जन्म और सेक्स से जुड़े लिंग भूमिकाओं से सौंपा गया था के साथ महत्वपूर्ण (dysphoria) (असंतोष) अनुभव के औचारिक निदान है- “मैं लिंग पहचान विकार, वहाँ एक बाह्य जननांग के प्रसव सेक्स और पुरुष और स्त्री के रूप में एक लिंग के मस्तिष्क कोडिंग के बीच मतभेद है। नैदानिक और सांख्यिकी मानसिक विकार के मैनुअल (302.85) पाँच मानदंड है कि लिंग के निदान से पहले पूरा किया जाना आवश्यक है पहचान विकार बनाया जा सकता है और विकार आगे उग्र के आधार पर विशिष्ट निदान, बच्चों में उदाहरण के लिंग पहचान विकार के लिए (बच्चों के जो लिंग dysphoria अनुभव के लिए) में विभाजित हैं। लिंग पहचान की अवधारणा, नैदानिक और इसके तीसरे संस्करण डीएसएस-III (1980) में मानसिक विकार के सांख्यिकी मैनुअल में छपी लिंग dysphoria के दो मनोरोग निदान के रूप में बचपन (जीआईडीसी) के लिंग पहचान विकार और transexualism (किशोरों और वयस्कों के लिए) । मैनुअल 1987 संशोधन, डीएसएस-III आर, एक तिहाई निदान कहा: किशोरावस्था और वयस्कता, nontrassexual प्रकार के लिंग पहचान विकार । यह बाद निदान बाद में संशोधन में हटा दिया गया था, DSM-IV (1994), जो भी लिंग पहचान विकार की एक नई निदान में जीआईडीसीस और transsexualism ढह गई। 2013 में डीएसएम-5 निदान लिंग dysphoria नाम दिया गया है और इसकी परिभाषा में संशोधन किया। (एक 2005 अकादमिक कागज के लेखकों को एक मानसिक विकार के रूप में लिंग पहचान समस्याओं का वर्गीकरण पूछताछ की, अटकलें हैं कि कुछ डीएसएम संशोधन एक के लिए जैसे आधार पर किया गया हो सकता है जब कुछ समूहों के एक विकार के रूप में समलैंगिकता को हटाने के लिए जोर दे रहे थे। इस विवादास्पद बना हुआ है, हालांकि आज के मानसिक स्वास्थ्य पेशेवरों की विशाल बहुमत का पालन करें और वर्तमान डीएसएम वर्गीकरण के साथ सहमत हैं।
(ङ) मित्र-समूह (Peer Group)- मित्र – समूह का पहचान के निर्माण में महत्वपूर्ण प्रभाव है। समाजीकरण में साथियों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है। साथियों के व्यवहार को देखकर बालक बहुत-से सामाजिक दृष्टि से उपयुक्त आचरणों को सीखता है। इनके साथ-साथ बालक के साथी उसे अक्सर इस बात पर भी टोकते हैं कि उसमें अमुक वातावरण सामाजिक दृष्टि के अनुपयुक्त है। इस प्रकार साथियों की सहायता से सामाजिक दृष्टि से बहुत-से उपयुक्त आचरणों को सीख लेता है तथा अनेक अनुपयुक्त आचरणों का त्यागकर सामाजिक परिपक्वता की ओर अग्रसर होता है।
बालक के तीन प्रकार के संगी-साथी हो सकते हैं। पहले तो खेत के साथी, उनमें आस-पड़ोस तथा स्कूल के बालक-बालिकाएँ सम्मिलित होते हैं। दूसरे वे जिन्हें बालक अपना अंतरंग साथी या मित्र मानता हो, आमतौर पर समान आय तथा समान यौन के बच्चे ही बालक के मित्र होते हैं। तीसरे वे जो किसी आयु वर्ग या किसी भी यौन के हो सकते हैं, जो बालक को मार्गदर्शन प्राप्त करते हैं। ये तीनों प्रकार के साथी बालक को समाजीकरण में अपने-अपने स्तर से सहायता प्रदान करते हैं। पूर्व-बाल्यावस्था में बालक माता-पिता तथा परिवार के अन्य सदस्यों को अपना साथी मानता है तथा इन्हीं के अनुरूप अनुकरण द्वारा सामाजिक व्यवहार करना सीखता है। उत्तर बाल्यावस्था में स्कूल तथा मित्रों के कारण बालक में समाजीकरण से सम्बन्धित अनेक शीलगुण (Traits); जैसे- सहयोग, सहनशीलता, नेतृत्व, ईमानदारी आदि विकसित होते हैं। इस प्रकार स्पष्ट है कि बालक के समाजीकरण में बालक में सहपाठियों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है।
साथियों के समूह प्रभाव (Peer Group in Finance) समुदाय के लिए समान तरीके में, सहकर्मी समूह संस्कृति और सीखने की एक एजेंसी बन जाता है। यहाँ तक कि बहुत छोटे बच्चों को अपने परिवेश में महत्वपूर्ण लोगों, रिश्तेदारों, शिक्षकों और साथियों सहित की अपनी धारणा से स्वयं की भवना विकसित करता है। सामाजिक आर्थिक स्थिति, जातीय पहचान है और माता-पिता के व्यवसायों कैसे परिवारों खुद को और प्रक्रिया है जिसके द्वारा वे अपने बच्चों (Bornstein, 2002) मेलजोल के देखने प्रभावित करते हैं। बाद में, बच्चों को घर छोड़ने के सेटिंग के रूप में, उनकी स्वयं की धारणा और सामाजिक कौशल कैसे अपने साथियों को उन्हें देखने से प्रभावित हो जाते हैं। जब बच्चों के लिए बड़े पैमाने पर बच्चे की देखभाल केन्द्रों, स्कूल और समुदाय के लिए परिवार से बाहर चले जाते हैं, वे संलग्न आकार लेने लगते हैं और दोस्ती को अपने नाटक के माध्यम से होता है। तीन साल की उम्र के बारे में रखकर जल्दी दोस्ती आकार लेने लगते हैं और बच्चों के साथियों के लिए एक अधिक स्थायी प्रभाव (पार्क, 1990) शुरू किया है।
- अधिगम अक्षमता का अर्थ | अधिगम अक्षमता के तत्व
- अधिगम अक्षमता वाले बच्चों की विशेषताएँ
- अधिगम अक्षमता के कारण | अधिगम अक्षम बच्चों की पहचान
Important Links
- लिंग की अवधारणा | लिंग असमानता | लिंग असमानता को दूर करने के उपाय
- बालिका विद्यालयीकरण से क्या तात्पर्य हैं? उद्देश्य, महत्त्व तथा आवश्यकता
- सामाजीकरण से क्या तात्पर्य है? सामाजीकरण की परिभाषा
- समाजीकरण की विशेषताएँ | समाजीकरण की प्रक्रिया
- किशोरों के विकास में अध्यापक की भूमिका
- एरिक्सन का सिद्धांत
- कोहलबर्ग की नैतिक विकास सिद्धान्त
- भाषा की उपयोगिता
- भाषा में सामाजिक सांस्कृतिक विविधता
- बालक के सामाजिक विकास में विद्यालय की भूमिका