व्यक्तित्व की परिभाषा
साधारण बातचीत में प्रयुक्त ‘व्यक्तित्व’ शब्द किसी ऐसे गुण या विशेषता को इंगित करता है, जिसे सभी व्यक्ति विभिन्न परिस्थितियों में व्यवहार करने तथा पारस्परिक संबंधों की दृष्टि से विशेष महत्व देते हैं। सुजीत का व्यक्तित्व अत्यन्त मोहक है, एन्थोनी मधुर व्यक्तित्व वाला है, असलम का व्यक्तित्व काफी आकर्षक है, मन्जू का व्यक्तित्व अजीब सा है, किरन का तो कोई व्यक्तित्व ही नहीं, जैसे वाक्यांश आम बोलचाल के दौरान प्रायः सुनने को मिलते रहते हैं। यद्यपि सामान्य बोलचाल में व्यक्तित्व शब्द का उपयोग तो बहुतायत से किया जाता है परन्तु ‘व्यक्तित्व’ शब्द को परिभाषित करने का कोई प्रयास नहीं किया जाता है। फिर भी सभी व्यक्ति समझते हैं कि इस प्रकार के वाक्यांशों से क्या अभिप्राय है। स्पष्ट है कि सामान्य अर्थों में व्यक्तित्व से तात्पर्य शारीरिक गठन, रंग-रूप, वेशभूषा, बातचीत के ढंग से तथा कार्य व्यवहार जैसे विभिन्न गुणों के संयोजन (unification) से लगाया जाता है। व्यक्तित्व शब्द के अंग्रेजी पर्याय ‘पर्सनलिटी’ शब्द लैटिन भाषा के शब्द पर्सोना से बना है, जिसका अर्थ मुखौटा है। पर्सोना शब्द का अभिप्राय उस पहनावे या वेशभूषा से था, जिसे पहनकर नाटक के पात्र रंगमंच पर किसी अन्य व्यक्ति का अभिनय करते थे। अतः पर्सनालिटी शब्द का शाब्दिक अर्थ व्यक्ति के बाह्य दिखावे मात्र को इंगित करता है। व्यक्तित्व शब्द का यह अर्थ निश्चय ही एक संकुचित अर्थ है । आधुनिक सन्दर्भ में व्यक्तित्व एक अत्यन्त व्यापक शब्द है तथा मनोविज्ञान की दृष्टि से इसका वास्तविक अर्थ इसके परम्पागत शाब्दिक अर्थ से पर्याप्त भिन्न है। मनोवैज्ञानिक की दृष्टि से व्यक्तित्व एक अत्यन्त जटिल, भ्रामक तथा अस्पष्ट प्रकृति वाला, प्रत्यय है, जिसका सर्वमान्य एवं पूर्णतया यथार्थ एवं स्पष्ट परिभाषा देना न केवल कठिन बल्कि लगभग असंभव सा कार्य है। मनोविज्ञान के साहित्य में व्यक्तित्व शब्द की अनेक परिभाषाएँ मिलती हैं तथा उनमें पर्याप्त भिन्नताएँ पाई जाती है। व्यक्तित्व की ये सभी परिभाषाएँ किसी एक मत पर सहमत नहीं हो पाती हैं। वास्तव में व्यक्तित्व एक ऐसी अपरोक्ष विशेषता है, जिसे विभिन्न मनोवैज्ञानिकों ने अपने अलग-अलग ढंग से देखा तथा परिभाषित किया हैं।
गिलफोर्ड के अनुसार, ‘व्यक्तित्व गुणों का समन्वित रूप हैं। ‘
1. वुडवर्थ के शब्दों में ‘व्यक्तित्व के व्यवहार की एक समग्र विशेषता है।’ (Personality is the total quality of an individual’s behaviour.)
ड्रेवर के शब्दों में- “व्यक्तित्व शब्द का प्रयोग व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक, नैतिक और सामाजिक गुणों के उस एकीकृत तथा गत्यात्मक संगठन के लिए किया जाता है जिसे व्यक्ति अन्य व्यक्तियों के साथ अपने सामाजिक जीवन के आदान-प्रदान में व्यक्त करता है।”
विग तथा हण्ट के शब्दों में- “व्यक्तित्व किसी व्यक्ति के सम्पूर्ण व्यवहार प्रतिमान इसकी समस्त विशेषताओं के योग को व्यक्त करता है।”
आलपोर्ट ने सन् 1937 में व्यक्तित्व की लगभग 50 परिभाषाओं का विश्लेषण व वर्गीकरण किया तथा निष्कर्ष निकाला कि ‘व्यक्तित्व व्यक्ति के अन्दर उन मनोशारीरिक गुणों का गत्यात्मक संगठन है, जो वातावरण के साथ उसका एक अनूठा समयोजन स्थापित करते हैं।
आलपोर्ट के द्वारा प्रस्तुत की गयी व्यक्तित्व इस परिभाषा को मनोविज्ञान में सर्वाधिक मान्यता प्राप्त है। इस परिभाषा के ऊपर विश्लेषणात्मक दृष्टि डालने से स्पष्ट है कि यह व्यक्तित्व के संबंध में तीन प्रमुख बातों की ओर संकेत करती है-
(i) व्यक्तित्व की प्रकृति संगठनात्मक तथा गत्यात्मक है।
(ii) व्यक्तित्व में मनो तथा शारीरिक दोनों ही प्रकार के गुण समाहित रहते हैं।
(iii) व्यक्तित्व वातावरण के साथ समायोजन से अभिलक्षित होता है।
व्यक्तित्व को प्रभावित करने वाले कारक (Factors Affecting Personality)
व्यक्तित्व के अर्थ को स्पष्ट करने के उपरान्त यह आवश्यक एवं तर्कसंगत प्रतीत होता है कि व्यक्तित्व के विकास को प्रभावित करने वाले कारकों को स्पष्ट किया जाये। यद्यपि जन्म के समय व्यक्ति में कुछ जन्मजात विशेषताएँ होती हैं तथापि उसके व्यक्तित्व का विकास धीरे-धीरे एक क्रमबद्ध ढंग से होता है। किसी भी व्यक्ति का व्यक्तित्व दो प्रकार के कारकों से प्रभावित होता है, ये हैं-जैवकीय कारक तथा वातावरण कारक। इन दोनों प्रकार के कारकों की परस्पर अन्तर्क्रिया के फलस्वरूप व्यक्तित्व का विकास होता है इसलिए इन्हें व्यक्तित्व के निर्धारक भी कहा जाता है।
जैवकीय कारक (Biological Factors) – जैसा कि हम सभी जानते हैं, प्रत्येक व्यक्ति एक अनूठी शारीरिक रचना के रूप में जन्म लेता है। जन्म के समय वह अनेक शारीरिक विशेषताओं से युक्त होता है जो उसके व्यक्तित्व का एक महत्वपूर्ण पक्ष बनाती है। इन शारीरिक गुणों की वजह से वह व्यक्ति जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त अन्य लोगों से भिन्न रहता है। व्यक्ति का रंगरूप, कदकाठी, भार तथा स्वास्थ्य काफी सीमा तक जन्म के समय ही वंशानुक्रम के द्वारा निर्धारित हो जाते हैं। इससे भी अधिक महत्वपूर्ण बात व्यक्ति के शारीरिक या जैवकीय गुणों के द्वारा उसके व्यक्तित्व के विभिन्न पक्षों के विकास पर प्रभाव डालना है। व्यक्ति का स्नायुमंडल तथा अतःस्रावी ग्रंथियाँ भी उसके व्यक्तित्व के विकास को प्रभावित करती हैं। अन्तःस्रावी ग्रंथियाँ हारमोन छोड़ती हैं। थाइराइड, पैराथाइराइड, पिट्यूटरी, थाइमस, एडरनल आदि अन्तःस्रावी ग्रंथियों के द्वारा छोड़े जाने वाले हारमोन की मात्रा आवश्यकता से कम या अधिक होने पर शरीर का समुचित विकास नहीं हो पाता है जिससे सम्पूर्ण व्यक्तित्व परोक्ष अथवा अपरोक्ष रूप से प्रभावित होता है। स्नायुमंडल भी व्यक्तित्व का एक महत्वपूर्ण निर्धारक है। व्यक्ति की मानसिक क्रियाओं का संचालन काफी हद तक स्नायुमंडल के सुचारू ढंग से कार्य करने पर ही निर्भर करता है। विभिन्न प्रकार के स्नायुविक रोग जैसे हकलाना, तुतलना, हिस्टीरिया, बहरापन, शब्द अंधापन आदि व्यक्तित्व के विकास को प्रभावित करते हैं। लिंगभेद, बुद्धि, मूल प्रवृत्तियाँ, विशिष्ट योग्यताएँ जैव जैवकीय कारक भी व्यक्तित्व के विकास पर प्रभाव डालते हैं।
वातावरणीय कारक (Environment Factors) – वातावरणीय कारकों के अंतर्गत व्यक्ति के वातावरण से संबन्धित सभी कारक आ जाते हैं। वातावरण को दो भागों में बांटा जा सकता है- भौतिक वातावरण तथा सामाजिक वातावरण । भौतिक वातावरण से अभिप्राय जलवायु, भूमि, कृषि, उपजें, भौतिक संसाधनों की उपलब्धता आदि से है। भौतिक वातावरण के कारण व्यक्ति की कदकाठी, रंगरूप, स्वास्थ्य, रहन-सहन की आदतों में काफी अन्तर आ जाता है। माँ के द्वारा गर्भ धारण करने के साथ ही गर्भस्थ शिशु पर अपने चारों ओर के वातावरण का प्रभाव पड़ना प्रारंभ हो जाता है। माँ के द्वारा ली गई खुराक, मादक द्रव्य, किया गया श्रम तथा माँ की संवेगात्मक स्थिति का गर्भस्थ शिशु पर जो प्रभाव पड़ता है वह आने वाले वर्षों में भी बना रहता है। जन्म के उपरान्त घर, गाँव व शहर के भौतिक वातावरण का प्रभाव व्यक्तित्व के विकास पर पड़ता है।
सामाजिक वातावरण से तात्पर्य व्यक्ति को उपलब्ध सामाजिक अन्तर्क्रिया की गुणवत्ता तथा सम्भावना से है। इसके अन्तर्गत परिवार, पड़ोस, विद्यालय, जनसंचार साधन, धर्म तथा संस्कृति आदि आते हैं। मनोवैज्ञानिकों की मान्यता है कि सामाजिक वातावरण का प्रभाव जैविकीय वातावरण से कहीं अधिक व्यापक होता है। अतः सामाजिक कारकों की विस्तृत चर्चा आवश्यक प्रतीत होती है।
सामाजिक कारक निम्नलिखित हैं-
1. परिवार (Family) – परिवार के विभिन्न सदस्यों के व्यक्तित्व तथा उनकी परस्पर अन्तर्क्रिया का बालक के व्यक्तित्व पर जन्म से ही प्रभाव पड़ना शुरू हो जाता है। बालक जन्म से ही एक सामाजिक प्राणी होता है तथा सबसे पहले वह अपने परिवारजनों के सम्पर्क में आता है इसलिए पारिवारिक पृष्ठभूमि का उसके व्यक्तित्व पर प्रभाव पड़ना स्वाभाविक ही है। माता-पिता, भाई-बहन तथा अन्य परिवारजनों यहाँ तक कि घर के नौकर आदि के द्वारा की जाने वाली क्रियाओं, लाड़-दुलार, तिरस्कार, ईर्ष्या, द्वेष आदि का प्रभाव बालक पर पड़ता है। परिवार में कलह होने या परिवार की संघर्षपूर्ण जीवन शैली तथा परिवारजनों की प्रवृत्तियाँ, महत्वाकांक्षा, रुचि, दृष्टिकोण, क्षमता तथा आर्थिक, सामाजिक व शैक्षिक स्थिति आदि भी बालक के व्यक्तित्व के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है।
2. पास-पड़ोस (Neighbourhood)- जैसे-जैसे बालक का विकास होता जाता है उसका सामाजिक दायरा बढ़ता जाता हैं। बालक अपने पास-पड़ोस के व्यक्तियों तथा अन्य बालकों से सम्पर्क स्थापित करता है। इन सभी व्यक्तियों के प्रभाव बालक के व्यक्तित्व पर पड़ता है। सामाजिक अनुकरण के द्वारा वह अनेक बातें सीखता है। साथियों के साथ खेल-खेल में बालक अनुशासन, आत्मविश्वास, नेतृत्व, वाक्कौशल, सामाजिकता तथा अनेक गुण सीख लेता है।
3. आर्थिक स्थिति (Economic Status) – परिवार की आर्थिक स्थिति का भी बालक के व्यक्तित्व के विकास पर प्रभाव पड़ता है। आर्थिक दृष्टि से कमजोर परिवार के बच्चों में हीन भावना तथा भग्नाशा उत्पन्न हो जाती है। गरीब परिवारों के बच्चे परिस्थितिजन्य कारणों की वजह से चोरी, झूठ बोलना, चरित्रपतन तथा अन्य अनेक अनैतिक कार्यों के आदी हो जाते हैं।
4. विद्यालय (School) – विद्यालय को व्यक्तित्व के विकास का एक औपचारिक केन्द्र माना जाता है। विद्यालय में बालक के द्वारा प्राप्त शैक्षिक तथा अन्य अनुभव व्यक्तित्व के विकास में सार्थक भूमिका अदा करते हैं। विद्यालय में छात्रों को अपने शैक्षिक, नैतिक, सामाजिक, शारीरिक, बौद्धिक, संवेगात्मक तथा मानसिक विकास करने के अवसर प्रदान किये जाते हैं, जिससे वे अपने व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास कर सकें। शैक्षिक कार्यक्रमों, वाद-विवाद, प्रतियोगिताओं, खेलकूद, अभिनय, सांस्कृतिक आयोजनों में भाग लेने से अनुशासन, नेतृत्व, समूह भावनाओं, आत्म-अभिव्यक्ति, स्वाभिमान जैसे गुणों का विकास सम्भव होता है।
5. जन संचार माध्यम (Mass Media) – वर्तमान युग में जनसंचार साधनों की भूमिका भी अत्यन्त महत्वपूर्ण है। रेडियो, दूरदर्शन, चलचित्र, पत्रिकाएँ समाचार पत्र जैसे जनसंचार के साधन जीवन के सभी पक्षों को प्रभावित कर रहे हैं। मानव व्यक्तित्व भी इनके प्रभाव से अछूता नहीं हैं। जनसंचार के विभिन्न साधन मानव व्यक्तित्व को प्रायः अपरोक्ष रूप से किन्तु काफी अधिक प्रभावित करते हैं। इनमें वर्णित विभिन्न कथानकों, अभिकर्ताओं के व्यवहारों व पोशाकों, रीति-रिवाजों, दृष्टिकोणों, जीवन-शैली आदि का बालक अंधानुसरण करते हैं। वर्तमान समय में छात्रों की असामाजिक, हिंसक व अलगावादी प्रवृत्तियों का कारण काफी सीमा तक इन्हीं जनसंचार साधनों के द्वारा प्रस्तुत अधकच्चा साहित्य है।
6. धर्म व संस्कृति (Religious and Culture) – व्यक्तित्व के विकास में धर्म व संस्कृति का भी योगदान रहता प्रत्येक धर्म की अपनी कुछ मूलभूत मान्यताएँ होती हैं जिन्हें उस धर्म के अनुयायी दिल व दिमाग से स्वीकार करते हैं तथा उन्हीं के अनुरूप कार्य करते है । मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारों, गिरजाघरों में जाकर सुने धार्मिक प्रवचनों का प्रभाव भी व्यक्तित्व पर पड़ता है। सांस्कृतिक परम्पराओं तथा रीति-रिवाजों के प्रति आस्था का भाव भी बालक के व्यक्तित्व को प्रभावित करता है। गुरुभक्ति, आज्ञापालन, देशप्रेम, दयाभाव, आदरभाव, कर्तव्यपालन, सहनशीलता, ईमानदारी जैसे गुण बालक काफी सीमा तक अपने धर्म व संस्कृति से सीखता है।
उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि व्यक्ति के विकास में जैवकीय तथा वातावरणीय दोनों ही प्रकार के कारकों का योगदान रहता है। वंशानुक्रम तथा वातावरण दोनों की अन्तर्क्रिया के परिणामस्वरूप व्यक्तित्व का निर्माण होता है। अतः यह आवश्यक है कि बालक के व्यक्तित्व के संतुलित विकास के लिए जैवकीय तथा वातावरणीय दोनों ही प्रकार के कारकों पर पर्याप्त ध्यान दिया जाये।
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