व्यक्तित्व के सिद्धान्त (Theories of Personality)
व्यक्तित्व की प्रकृति को स्पष्ट करने के लिए मनोवैज्ञानिकों ने व्यक्तित्व के संबंध में अनेक सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है। विभिन्न मनोवैज्ञानिकों ने अपने-अपने पृष्ठभूमिक ज्ञान (Background Knowledge) के अनुरूप व्यक्तित्व सम्बन्धी विभिन्न मान्यताओं की रचना की तथा उसी के अनुरूप व्यक्तित्व के सैद्धान्तिक संदर्भ व आधार का निर्माण करके मानव व्यवहार को स्पष्ट करने का प्रयास किया। व्यक्तित्व के निम्नलिखित सिद्धान्त हैं-
1. मनोविश्लेषणात्मक सिद्धान्त (Psycho-Analytical Theory) – व्यक्तित्व के प्रथम व्यापक सिद्धान्त की रचना करने का श्रेय सिगमंड फ्रायड को दिया जाता है। फ्रायड ने व्यक्तित्व को स्पष्ट करने के लिए मनोविश्लेषणात्मक सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। मनोविश्लेषणात्मक सिद्धान्त के दो मुख्य प्रत्यय : 1. अचेतनता तथा 2. इद, अहं व परा-अहं हैं। फ्रायड ने अचेतन (Unconscious) को व्यक्तित्व की दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण स्वीकार किया उसने कहा कि किसी व्यक्ति की मानसिक क्रिया उस व्यक्ति के चेतन रूप में सजग होने से कहीं अधिक व्यापक तथा जटिल होती हैं। उसने मानसिक क्रियाओं के चेतन तथा अचेतन पक्षों की तुलना पानी पर तैरते बर्फ के टुकड़े से करते हुए कहा कि जिस प्रकार से बर्फ के टुकड़े का जितना हिस्सा पानी से बाहर नजर आता है, उससे कई गुना अधिक हिस्सा पानी के अन्दर रहता है, ठीक उसी प्रकार से व्यक्ति के चेतन पक्ष की तुलना में उसका अचेतन पक्ष अधिक व्यापक व जटिल होता है। फ्रायड के अनुसार अचेतन वास्तव में अनेक अनजानी परन्तु शक्तिशाली व जीवन्त शक्तियों का संचय होता है एवं यह व्यक्ति के चेतन व्यवहार का नियंत्रण रखता है। अर्द्धचेतन, चेतन एवं अचेतन के बीच एक पुल का कार्य करता है। अचेतन में जहाँ असामाजिक, अनैतिक व दमित इच्छाएँ होती हैं। वहीं चेतन में सामाजिक रूप से स्वीकृत अनुभूतियाँ प्रबल होती हैं। क्योकि असामाजिक व अनैतिक इच्छाओं की पूर्ति दैनिक जीवन में सम्भव नहीं हो पाती है इसलिए वे चेतन से हटकर दमित रूप में अचेतन में एकत्रित हो जाती हैं एवं व्यक्ति के व्यवहार को परोक्ष रूप से प्रभावित करती रहती हैं।
‘फ्रायड ने व्यक्तित्व की संरचना में इद (id), अहं (ego) तथा परा – अहं ( Super ego) नाम के तीन घटकों को विशेष महत्व दिया। उसके अनुसार यदि ये तीनों घटक एक सुगठि तथा समरस इकाई के रूप में कार्य करते हैं तो व्यक्ति अपने वातावरण के साथ प्रभावशाली ढंग से समायोजन कर लेता है तथा ऐसे व्यक्ति को सुमायोजित व्यक्ति कहा जाता है। इसके विपरीत यदि किसी व्यक्ति के ये तीनों संघटक एक-दूसरे से संघर्ष की अवस्था में रहता है तो वह व्यक्ति व्यक्तिगत तथा सामाजिक दोनों ही क्षेत्रों में समायोजन करने में असमर्थ रहता है। इद जन्मजात प्रकृति का होता है तथा इसमें मुख्य रूप से व्यक्ति की मूल वासनाएँ, प्रवृत्तियां तथा दमित इच्छाएं आती हैं। इद किसी भी तरह का तनाव नहीं सह सकता है तथा बिना किसी बाधा या इन्तजार के तत्काल आनन्द, सुख व सन्तुष्टि प्राप्त करना चाहता है। इद पूर्णतया अचेतन में कार्य करता है। इद के विपरीत अहं वास्तविकता से संबंध रखता तथा व्यक्ति को वास्तविक परिस्थितियों के साथ ताल-मेल बैठाने के लिए प्रेरित करता है। अहं आंशिक रूप से चेतन एवं आंशिक रूप से अचेतन में कार्य करता है। परा अहं सामाजिक मान्यताओं, संस्कारों व आदर्शों से संबंधित होता है तथा मानवीय, सामाजिक व राष्ट्रीय हित में व्यक्ति को त्याग व बलिदान के लिए तत्पर करता हैं। परा-अहं पूर्णत: चेतन से निर्धारित होता है। स्पष्ट है कि इद व्यक्ति को दमित इच्छाओं की तत्काल पूर्ति करने के लिए प्रयास करने के लिए उकसाता है, जबकि परा- अहं सामाजिक मान्यताओं व परम्पराओं के अनुरूप कार्य करने की प्रेरणा देता है एवं अहं इन दोनों के मध्य वास्तविक धरातल पर तालमेल बैठाने का प्रयास करता है। इस प्रकार से इद पाश्विक इच्छाओं का, अहं वास्तविक जगत का तथा परा – अहं सामाजिक नियंत्रण का प्रतिनिधित्व करता है। इद तथा परा अहं के बीच संघर्ष का होना सामान्य बात है परन्तु अहं के दृढ़ तथा क्रियाशील होने से यह संघर्ष अस्थायी रहता है तथा व्यक्ति वास्तविकता के साथ समायोजन कर लेता है। इसके विपरीत यदि अहं दुर्बल तथा निष्क्रिय होता है तो व्यक्ति को समायोजन करने में कठिनाई होती है तथा उसका व्यक्तित्व खंडित हो जाता है। इस प्रकार से फ्रायड के अनुसार किसी व्यक्ति का व्यक्तित्व वास्तव में उसके इद, अहं तथा परा अहं के बीच परस्पर अन्तर्क्रिया तथा समायोजन का परिणाम है।
फ्रायड ने व्यक्तित्व के विकास में लैंगिक ऊर्जा ( Sexual Energy ) या लिबिडो (Libido) को प्रमुख स्थान देते हुए पाँच मनोलैंगिक अवस्थाओं (Psycho-Sexual Stagtes) मुखावस्था (Oral Stage), गुदावस्था (Anal Stage), शैशवावस्था (Phallic Stage), अव्यक्तावस्था (Latency Stage) तथा जननेन्द्रियावस्था (Genital Stage) बताई हैं। फ्रायड के अनुसार जन्म से लगभग एक वर्ष तक शिशु मुखावस्था में रहकर मुख द्वारा की जाने वाली विभिन्न क्रियाओं जैसे चूसना (sucking), निगलना ( Swallowing), काटना (Cutting) आदि से लैंगिक सुख प्राप्त करता है। स्पष्ट है कि इस अवस्था में कामुकता क्षेत्र (Erogeneous Zone) मुख पर केन्द्रित होता है। मुखावस्था में मुखर्जी उत्तेजना के कम होने पर कालान्तर में मुखवर्ती निष्क्रिय व्यक्तित्व (Oral Passive Personality) एवं अधिक होने पर मुखवर्ती आक्रामक व्यक्तित्व (Oral Aggressive Personality) विकसित होती है। मुखवर्ती निष्क्रिय व्यक्तित्व वाले व्यक्ति आशावादी सहयोगी, विश्वासी, पर निर्भर होते हैं जबकि मुखर्जी आक्रामक व्यक्तित्व वाले व्यक्ति निराशावादी, प्रभुत्ववादी, शोषक, परउत्पीड़क होते हैं। गुदावस्था प्रायः पहला वर्ष समाप्त होने पर प्रारम्भ होती है एवं दो वर्ष तक चलती है। इसमें कामुकता क्षेत्र गुदा होती है तथा बालक मल-मूत्र त्यागने में लैंगिक सुख प्राप्त करते हैं। इस अवस्था पर अधिक उत्तेजना होने पर वयस्कावस्था में गुदा आक्रामक व्यक्तित्व (Anal Aggressive Personality) विकसित होता है जो क्रूरता, विद्वेष, अस्तव्यस्तता, तोड़-फोड़ जैसे गुणों से परिलक्षित होता है। गुदावस्था में कम उत्तेजना होने पर गुदा धारणात्मक व्यक्तित्व (Anal Retentie Personality) विकसित होता है जो क्रमबद्धता, कंजूसी, आग्रह, समयनिष्ठा जैसे गुणों से व्यक्त होता है। शैशवावस्था में कामुकता क्षेत्र लिंग पर केन्द्रित होता है। यह अवस्था 3 वर्ष से प्रारम्भ होकर 5 से 6 वर्ष की आयु तक चलती है। इस अवस्था में लड़का पिता से डरता है कि वे उसका लिंग कटवा देंगे। लिंग प्रधानावस्था में लड़का अपनी माँ से लगाव रखता है जिसे फ्रायड ने मातृ मनोग्रंथि ( Oedipus complex) कहा। इस अवस्था में लड़की माँ से नफरत करती है। वह सोचती है कि माँ ने उसे लिंग से वंचित कर दिया है। लिंग प्रधानावस्था में लड़की अपने पिता से लगाव रखती है जिसे फ्रायड ने पितृ मनोग्रंथि (Elecra complex) के नाम से सम्बोधित किया। इन दोनों मनोग्रन्थियों का समुचित समाधान होने पर बालक-बालिकाओं में नैतिकता विकसित होती है जबकि समाधान न होने पर व्यक्तित्व पर कुप्रभाव पड़ता है।
शैशवावस्था में अत्यधिक उत्तेजना होने पर लड़कों में शेखीबाजी, उतावलापन, उच्च आकांक्षा जैसे गुण एवं लड़कियों में सम्मोहकता, स्वच्छन्दता जैसे गुण विकसित होते हैं। बालक की आयु 6 या 7 वर्ष होने पर अव्यक्तावस्था प्रारम्भ होती है एवं लगभग 12 वर्ष की आयु तक रहती है। इस अवस्था में कोई नया कामुकता क्षेत्र विकसित नहीं होता है तथा लैंगिक इच्छाएँ प्राय: सुप्त (Dormant ) रहती हैं। इस अवस्था में लैंगिक इच्छाओं का उदात्तीकरण (Sublimation) होता है तथा बालक-बालिकाएँ शिक्षा, चित्रकारी, संगीत, नृत्य, खेलकूद जैसी अलैंगिक क्रियाओं के द्वारा अपनी लैंगिक इच्छाओं की अभिव्यक्ति करते हैं।
जननेन्द्रियावस्था लैंगिक विकास की अन्तिम अवस्था है जो 13 वर्ष की आयु से प्रारम्भ होकर निरन्तर चलती रहती है। इसमें किशोरावस्था तथा प्रौढ़ावस्था दोनों ही सम्मिलित रहती है। किशोरावस्था के दौरान किशोर-किशोरियों में अनेक तरह के शारीरिक परिवर्तन होते हैं एवं उनकी जननेन्द्रियाँ विकसित हो जाती हैं उनमें समलिंगी व्यक्तियों के साथ बातचीत करने, उठने-बैठने व रहने की प्रवृत्ति होती है जिसे फ्रायड ने समलिंग कामुकता (Homosexuality) कहा है। किशोरावस्था से प्रौढ़ावस्था की ओर प्रवृत्त होने पर व्यक्ति में समलिंग कामुकता कम होने लगती है एवं विषमलिंग कामुकता विकसित होने लगती है जिसके फलस्वरूप वह विषमलिंगी व्यक्ति के साथ बातचीत करने तथा उठने-बैठने लगता है। इस अवस्था में व्यक्ति का व्यक्तित्व शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक तथा सामाजिक दृष्टि से परिपक्व हो जाता है तथा वह सामाजिक दृष्टि से स्वीकृत लैंगिक सम्बन्ध स्थापित करके एक सन्तोषजनक जीवन शैली अपनाने तथा अपनी संतति बढ़ाने का प्रयास करता है।
निःसन्देह फ्रायड का मनोविश्लेषणात्मक सिद्धान्त मानव व्यवहार एवं व्यक्तित्व विकास की तार्किक ढंग से व्याख्या करता है। स्वप्न विश्लेषण (Dream Analysis), मनोविकृति (Psycho-Pathology) एवं मनोचिकित्सा (Psycho-Therapy) में फ्रायड के सिद्धानत का महत्वपूर्ण अनुप्रयोग किया जाता है। इस अनुप्रयोग के बावजूद फ्रायड के सिद्धान्त की कुछ मनोवैज्ञानिक कटु आलोचना करते हैं। लैंगिक ऊर्जा पर अत्यधिक बल तथा पौराणिक कथाओं पर आधारित ग्रन्थियों के प्रत्यय इस आलोचना के मुख्य बिन्दु हैं। जुंग (Jung) एवं एडलर (Adler), जो फ्रायड के सहयोगी थे, ने कालान्तर में फ्रायड के सिद्धान्त में कतिपय संशोधन करके नये रूप में अपने-अपने ढंग से प्रस्तुत किया। फ्रायड ने यौन प्रवृत्ति (Sex Instinct) पर सर्वाधिक बल दिया, अचेतन को व्यक्तिगत प्रकृति का माना एवं केवल गत अनुभूतियों को वर्तमान व्यवहार का निर्धारक स्वीकार किया था। इसके विपरीत जुंग ने यौन प्रवृत्ति ( Sex Instinct ) पर बल नहीं दिया, अचेतन को सामूहिक (Collective), प्रजातीय (Racial) तथा पुरातन (Archical) प्रकृति का स्वीकार किया एवं भविष्य के लक्ष्यों व गत अनुभूतियों दोनों का वर्तमान व्यवहार का निर्धारक बताया। इसके अतिरिक्त फ्रायड ने जैविक कारकों (Biological factors) पर अधिक बल दिया। एडलर ने सामाजिक प्रकृति (Social Natuirie) पर बल देते हुए व्यक्तित्व की व्याख्या की, भावी लक्ष्यों को वर्तमान व्यवहार का जनक माना, यौन प्रवृत्ति के स्थान पर श्रेष्ठता की ललक (Striving for Superiority) व सामाजिक अभिरुचि (Social Interest) को व्यवहार का मुख्य निर्धारक कहा तथा व्यक्तित्व को एक अनोखे व अविभाज्य तंत्र ( Unique and Individual System) के रूप में स्वीकार किया। स्पष्ट है कि फ्रायड तथा जुंग एवं फ्रायड तथा एडलर के द्वारा प्रतिपादित व्यक्तित्व सिद्धान्तों में समानताएँ होने के साथ-साथ कुछ विभिन्नताएँ भी हैं। मनोविज्ञान के इतिहास में जुंग तथा एडलर को फ्रायड का दो प्रमुख विद्रोही (Rebels ) कहा जाता है।
2. शरीर रचना सिद्धान्त (Constitutional Theory) – जीव विज्ञान की पृष्ठभूमि तथा मनोवैज्ञानिकों ने मानव व्यवहार तथा व्यक्तित्व के गुणों को एक बिल्कुल अलग ढंग से देखा तथा शारीरिक गठन व शरीर रचना के आधार पर व्यक्तित्व की व्याख्या करने का प्रयास किया। इस प्रकार से व्यक्तित्व सिद्धान्त के क्षेत्र में जैविकीय कारकों ने प्रवेश किया। इस प्रकार की विचारधारा का प्रमुख प्रवर्तक शैल्डन (W.H. Sheldon) था । उसने शरीर रचना तथा व्यक्तित्व के बीच सम्बन्ध का विस्तृत अध्ययन किया तथा पाया कि शरीर रचना व व्यक्तित्व के गुणों के बीच घनिष्ठ संबंध है। उसके द्वारा शारीरिक गठन ( Psysique) के आधार पर व्यक्तित्व को तीन भागों में विभाजित किया गया। ये तीन भाग क्रमशः गोलाकृति (endomorphy), आयताकृति (Mesomorphy) तथा लम्बाकृति (Ectomorphy) थे। गोलाकृति वाले व्यक्ति प्रायः भोजनप्रिय, आरामपसंद, शौकीन मिजाज, परम्परावादी, सहनशील, सामाजिक तथा हंसमुख प्रकृति के होते हैं। आयताकृति वाले व्यक्ति प्रायः रोमांचप्रिय, प्रभुत्ववादी, जोशीले, उद्देश्य केन्द्रिय तथा क्रोधित प्रकृति के होते हैं जबकि लम्बाकृति के व्यक्ति प्रायः गुमसुम, एकान्तप्रिय, अल्पनिद्रा वाले, एकाकी जल्दी थक जाने वाले तथा निष्ठुर प्रकृति के होते हैं।
3. शील गुण सिद्धान्त (Trait Theory) – व्यक्तित्व के शीलगुण सिद्धान्त के अनुसार व्यक्तित्व की संरचना भिन्न-भिन्न के अनेक शीलगुणों (Traits) से मिलकर बनी होती है। शीलगुण से तात्पर्य व्यक्ति के व्यवहार का वर्णन करने वाली उन संज्ञाओं से है जो व्यवहार के संगत (consistent) एवं अपेक्षाकृत स्थायी ( relatively permanent) रूप को अभिव्यक्त करती हैं। जैसे ईमानदारी, कर्तव्यनिष्ठता, समय की पाबन्दी, सहयोग, परोपकार, सत्य बोलना आदि शीलगुण हैं। स्पष्ट है कि शीलगुण परस्पर एक-दूसरे से भिन्न होते हैं। शीलगुण सिद्धान्त के अनुसार व्यक्तित्व को ‘प्रकार’ (Type) के रूप में नियंत्रित नहीं माना जा सकता है वरन् भिन्न-भिन्न प्रकार के अनेक शीलगुणों द्वारा निर्धारित माना जाता है। ये शीलगुण भिन्न-भिन्न मात्रा में व्यक्ति में विद्यमान होते हैं एवं इनके आधार पर व्यक्ति के व्यवहार की व्याख्या की जा सकती है। वस्तुतः शीलगुण उपागम के अन्तर्गत शीलगुण को व्यक्तित्व की मौलिक इकाई (Basic unit) माना जाता है। शीलगुण सिद्धान्त वास्तव में व्यक्तित्व की उन महत्वपूर्ण विमाओं (Dimensions) को प्रस्तुत करता है जो परस्पर स्वतंत्र हैं तथा जिनके आधार पर व्यक्तियों में भेद किये जा सकते हैं। आलपोर्ट तथा कैटल नामक दो मनोवैज्ञानिकों ने व्यक्तित्व शीलगुणों के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण कार्य किया है। इन दोनों के विचारों एवं कार्यों की चर्चा आगे की जा रही हैं।
जी० डब्ल्यू. आलपोर्ट का व्यक्तित्व के शीलगुण सिद्धान्त (Trait Theory of Personality) के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान है। उसने शीलगुणों को दो भागों-सामान्य शीलगुण (Common Traits) तथा व्यक्तिगत शीलगुण (Personal Traits) में विभक्त किया। सामान्य शीलगुणों से तात्पर्य उन शीलगुणों से है जो किसी समाज / संस्कृति के अधिकांश व्यक्तियों में पाये जाते हैं। इसके विपरीत व्यक्तिगत शीलगुण वे शीलगुण हैं जो बहुत कम (Rare) व्यक्तियों में पाये जाते हैं। व्यक्तिगत शीलगुणों का अध्ययन करना बहुत कठिन होता है जबकि सामान्य शीलगुणों की सहसम्बन्धात्मक विधियों से सरलता से ज्ञात किया जा सकता है परन्तु आलपोर्ट ने सामान्य शीलगुणों की तीन प्रवृत्तियों – प्रमुख प्रवृत्ति (Cardinal disposition), केन्द्रीय प्रवृत्ति (Central disposition) तथा गौण प्रवृत्ति (Secondary disposition) बताई हैं। प्रमुख प्रवृत्ति वाले शीलगुणों से तात्पर्य व्यक्तित्व के उन प्रमुख व प्रबल शीलगुणों से है जो छिपाये नहीं जा सकते हैं। एवं जो व्यक्ति के प्रत्येक व्यवहार से परिलक्षित होते हैं। प्रत्येक व्यक्ति में प्राय: 5 से 10 ऐसे शीलगुण होते हैं। वास्तव में ये शीलगुण ही उसके व्यक्तित्व की रचना करते हैं। आत्मविश्वास, सामाजिकता, उत्साह, व्यवहार कुशलता आदि किसी व्यक्ति के केन्द्रीय प्रवृत्ति वाले शीलगुण हो सकते हैं। गौण प्रवृत्ति वाले शीलगुणों से अभिप्रायः उन शीलगुणों से है जो अपेक्षाकृत कम महत्वपूर्ण तथा कम संगत होते हैं। ये शीलगुण व्यक्ति के समान प्रकार व्यवहार में कभी परिलक्षित हो जाते हैं तथा कभी परिलक्षित नहीं भी होते हैं। इनकी सहायता से व्यक्तित्व की व्याख्या करना प्रायः सम्भव नहीं हो पाता है। यहाँ पर स्पष्ट करना उचित ही होगा कि कोई शीलगुण किसी व्यक्ति के लिए केन्द्रीय प्रवृत्ति वाला हो सकता है तथा दूसरे व्यक्ति के लिए गौण प्रवृत्ति वाला शीलगुण है जबकि अन्तर्मुखी व्यक्तित्व के लिए सामाजिकता गौण प्रवृत्ति वाला शीलगुण हो सकता है।
4. मांग सिद्धान्त (Need Theory) – व्यक्तित्व के माँग सिद्धान्त की मान्यता है कि भौतिक अथवा सामाजिक पर्यावरण की किसी माँग के कारण व्यक्ति में एक गत्यात्मक (dynamic) तथा निर्देशात्मक बल (Directing Force) उत्पन्न होता है जिसे प्रेरणा (Motivation) कहते हैं एवं यह बल व्यक्ति को एक निश्चित प्रकार का व्यवहार करने के लिए प्रेरित करता है। मैसलो (Maslow) तथा मुर्रे (Murray) नामक दो मनोवैज्ञानिकों ने व्यक्तित्व माँगों के सम्बन्ध में विशेष कार्य किया है। इन दोनों के विचारों एवं कार्यों की चर्चा आगे की जा रही है।
अब्राहम मैसलो को मानवतावादी मनोविज्ञान ( Humanistic Psychology) का आध्यात्मिक जनक कहा जाता है। इन्होंने मानव मूल्यों (Human VValues), व्यक्तिगत वर्धन (Personal Growth) तथा आत्म-निर्देश (Self-Direction) पर विशेष बल दिया एवं कहा कि व्यक्तित्व का विकास व्यक्ति के अन्दर उपस्थित अभिप्रेरकों (Motives) के द्वारा संगठित ढंग से होता है। मैसलो के अनुसार व्यक्तिगत लक्ष्यों की प्राप्ति की प्रवृत्ति के द्वारा व्यक्ति के सभी व्यवहारों की व्याख्या की जा सकती है। उसके सिद्धान्त में अभिप्रेरणात्मक प्रतिक्रिया (Motivational Processes) व्यक्तित्व के निर्धारण में प्रमुख भूमिका अदा करती है। मैसलो का विचार था कि मानव अभिप्रेरक जन्मजात होते हैं एवं इन्हें वरीयता के आधार पर आरोही पदानुक्रम (Ascending Hierarchy) के रूप में व्यवस्थित किया जा सकता है। उसने अभिप्रेरकों को पाँच वर्गों में विभाजित किया-
(i) दैहिक मांगें (Physiological Needs)
(ii) सुरक्षा मांगें (Safety Needs)
(iii) सामाजिक माँगें (Social Needs)
(iv) स्व-सम्मान माँगें (Self-Esteem Needs)
(v) आत्मसिद्धि माँगें (Self Actualization Needs)
प्रथम दो माँगों अर्थात् दैहिक तथा सुरक्षा आवश्यकताओं को निम्न स्तरीय माँग (Low level needs) एवं अन्तिम तीन अर्थात् सामाजिक, स्व सम्मान तथा आत्मसिद्धि की माँगों को उच्च स्तरीय माँग (High Level Needs) के नाम से पुकारा जाता है। माँगों के इस पदानुक्रमिक निर्देश (Hierarchical Model) में कोई माँग जितना नीचे स्थित है उसकी प्राथमिकता उतना ही अधिक स्वीकार की गई है एवं निचले स्तर की माँग के पूर्णतः या अंशतः पूरा होने पर ही उससे ऊपर स्थित माँग क्रियाशील होती है। दैहिक मांग सर्वाधिक प्रबल होती है जबकि स्वयंसिद्धि की माँग सर्वाधिक निर्बल होती है। नीचे स्थित माँगों की पूर्ति व्यक्ति तत्काल करना चाहता है जबकि ऊपर स्थित माँगों की पूर्ति प्रायः अंशत: ही ..हो पाती है। मैसलो ने स्पष्ट किया कि माँगों के पदानुक्रमित निदर्श में जैसे-जैसे ऊपर उठते जाते हैं माँगों की सन्तुष्टि का प्रतिशत कम होता जाता है। उसके अनुसार प्रायः दैहिक माँगों की सन्तुष्टि 85%, सुरक्षा माँगों की सन्तुष्टि 70%, सामाजिक माँगों की पूर्ति 50%, स्व-सम्मान माँगों की पूर्ति 40% एवं आत्मसिद्धि माँगों की पूर्ति 10% के लगभग ही हो पाती है।
दैहिक माँगों के अन्तर्गत भोजन, पानी, निद्रा, यौन, क्रिया, सीमान्त ताप (Extreme Temperature) से बचने जैसी माँगें आती हैं। वस्तुतः दैहिक माँग व्यक्ति के जैविक सम्प्रेषण (Biological Maintenance) की दृष्टि से महत्वपूर्ण होती है। इन जैविक अभिप्रेरक (Biological Drives) की एक न्यूनतम स्तर पर संतुष्टि करना व्यक्ति के अस्तित्व के लिए अत्यन्त आवश्यक होता है। दैहिक माँगों की पूर्ति के लिए व्यक्ति कभी-कभी सुरक्षा सामाजिक मूल्यों/मानकों की अवहेलना कर जाता है। दैहिक माँग की पूर्ति होने पर व्यक्ति सुरक्षा माँग की ओर व्यक्ति अग्रसर होता है। इनके अन्तर्गत शारीरिक सुरक्षा, स्थिरता, बचाव व्यवस्था आदि माँगें आती हैं। बालकों में इस प्रकार की माँगें प्रबल होती हैं क्योंकि वे स्वयं को वयस्कों की तुलना में असहाय व दूसरों पर आश्रित पाते हैं। सामाजिक माँगों के अन्तर्गत स्नेह, सम्बद्धता, परोपकार जैसी माँगे आती हैं। दैहिक व सुरक्षा माँगों की पूर्ति काफी सीमा तक हो जाने पर व्यक्ति में सामाजिक माँगें प्रबल होने लगती हैं। पदानुक्रमित निदर्श का चौथा सोपान स्व-सम्मान की माँग है जो नीचे के तीन स्तर की माँगों के पूर्ति सन्तोषजनक ढंग से हो जाने पर उत्पन्न होती है। इसके अन्तर्गत आत्म विश्वास, व्यक्तिगत वर्धन, स्वतंत्रता, स्वाभिमान जैसी मांगें समाहित रहती हैं। प्रथम चार सोपानों की माँगों की पूर्ति सन्तोषजनक ढंग से हो जाने पर व्यक्ति पदानुक्रमिक निदर्श के सर्वोच्च सोपान पर पहुंच जाता है जहाँ उसकी आत्म-सिद्धि माँगें क्रियाशील हो जाती है। आत्म-सिद्धि से तात्पर्य स्वयं की क्षमताओं को पहचानकर उनके अनुरूप स्वयं को विकसित करने से है। इस अवस्था में व्यक्ति सामाजिक मूल्यों के प्रति रुझान प्रदर्शित करते हुए उनका अनुकरण करता है। आत्मसिद्धि की माँग के सर्वाधिक निर्बल होने एवं इसके लिए स्व-अनुशासन, स्व-नियन्त्रण, सतत् प्रयास, साहस, संकल्प जैसे गुणों की आवश्यकता होने के कारण अधिकांश व्यक्ति प्रायः इस सोपान तक नहीं पहुँच पाते हैं। यह भी देखा गया है कि बाल्यावस्था में अत्यधिक स्नेह या तिरस्कार पाने वाले अथवा अत्यधिक स्वतंत्रता या नियंत्रण का सामने करने वाले व्यक्ति प्रायः आत्मसिद्धि तक नहीं पहुंच पाते हैं।
मैसलो के माँग सिद्धान्त का पदानुक्रमित निदर्श (Hierarchical Model of Maslaw’s Need Thoery ) – पदानुक्रमिक निदर्श की इन पाँच मांगों को मैसलो ने मूल माँग कहा। उसके अनुसार इन मूल माँगों के अतिरिक्त संज्ञानात्मक माँग (Cognitive Needs), तंत्रिकागत माँग (Neurotic Needs), न्यूनता अभिप्रेरक (Deficit Motivation) तथा वर्धक अभिप्रेरक (Growth Motivation) जैसे कुछ अन्य अभिप्रेरक भी होते हैं जिनका व्यक्ति के व्यवहार पर काफी प्रभाव पड़ता है। संज्ञानात्मक मांग के अन्तर्गत जानने की माँग (Need to know ) तथा समझने की माँग (Need to Understand) जैसी मांग आती है। संज्ञानात्मक माँगों की पूर्ति पदानुक्रमिक माँगों की सन्तुष्टि में सहायता प्रदान करती है। जैसे भोजन कहाँ है यह जानकर ही भोजन की प्राप्ति की जा सकती है। तंत्रिकागत माँग से अभिप्राय आक्रामकता, विद्वेष, निष्क्रियता जैसी विकृति की पूर्ति से है। इनकी सन्तुष्टि से व्यक्ति में स्वस्थ व्यक्तित्व का विकास नहीं होता है। मूल मांगों की पर्याप्त सन्तुष्टि न होने पर प्राय: तंत्रिकागत माँग उत्पन्न हो जाती है। न्यूनता अभिप्रेरक को मैसलो ने डी- अभिप्रेरक (D-motivation) भी कहा है। न्यूनता अभिप्रेरक व्यक्ति में हीन अवस्थाओं (Defict states) के कारण उत्पन्न तनाव (Tension) को दूर करने के लिए प्रेरित करता है। वस्तुतः न्यूनता अभिप्रेरक निम्नस्तरीय माँगों के लगभग समान ही हैं एवं ये वंचित व्यक्ति (Deprived Person) को रुग्ण होने से बचाते हैं। आत्मसिद्ध व्यक्तियों के लिए न्यूनता अभिप्रेरक महत्त्वपूर्ण नहीं होते हैं। आत्मसिद्ध व्यक्तियों के लिए न्यूनता अभिप्रेरक महत्वपूर्ण नहीं होते हैं। वर्धक अभिप्रेरक से तात्पर्य ऐसे अभिप्रेरकों से है जो व्यक्ति की अन्तः क्षमताओं (Potentitials) को विकसित करने के लिए प्रेरित करते हैं। ये वास्तव में उच्च स्तरीय माँग को विकसित करने के लिए प्रेरित करते हैं। ये वास्तव में उच्च स्तरीय माँग को विकसित करने के लिए प्रेरित करते हैं। ये वास्तव में उच्च स्तरीय माँग हैं जिन्हें मैसलों ने मेटा माँग (Meta Needs) या सत्व अभिप्रेरक (Bering Motives या B – motives) कहा है।
वर्द्धक अभिप्रेरक आत्मसिद्ध व्यक्तियों में अधिक क्रियाशील रहते हैं। मैसलो ने सच्चाई, पूर्णता, न्याय, विनोदशीलता (Humour), अद्वितीयता (Uniqueness) जैसी अनेक मेटा माँग बताई हैं। मेटा माँगों में कोई पदानुक्रम (Herirach) नहीं होता है एवं इनके कुंठित होने पर व्यक्ति का व्यक्तित्व खंडित हो जाता है। आत्मसिद्ध व्यक्तियों में मेटा माँगों की प्रबलता रहती है।
मैसलो का व्यक्तित्व सिद्धान्त व्यक्ति के व्यवहार को आशावादी (Optimistic) तथा मानवतावादी (Humanistic) दृष्टिकोण से समझने का प्रथम प्रयास था । मैसलो के सिद्धान्त के द्वारा सामाजिक, नैदानिक वैयक्तिक परिस्थितियों में किये जाने वाले व्यवहार की व्याख्या , करना सम्भव हो सका है। इसके अतिरिक्त मैसलों का आत्मसिद्धि का प्रत्यय मानव की अन्त:शक्तियों को समझने में उपयोगी सिद्ध हो सका है परन्तु मैसलो के सिद्धान्त के अनुसार एक समय में केवल एक ही स्तर की मांगों के क्रियाशील होने के विचार की अनेक मनोवैज्ञानिकों द्वारा आलोचना की गई है। आलोचकों के अनुसार मैसलो के द्वारा प्रयुक्त विभिन्न प्रत्यय परस्पर अतिच्छादित (overlap) हैं। जिसके कारण अध्ययन करते समय अनावश्यक की जटिलता उत्पन्न हो जाती है। परन्तु इन आलोचनाओं के बावजूद मैसलो का सिद्धान्त व्यक्तित्व की व्याख्या करने की दिशा में अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हुआ है।
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