आत्म-संप्रत्यय की अवधारणा
आत्म-संप्रत्यय की अवधारणा एवं शैक्षिक निहितार्थ- व्यक्तित्व विकास पर जो विभिन्न प्रभाव पड़ते हैं, इन्हीं प्रभावों के कारण व्यक्ति में अपनी आत्म का विचार स्पष्ट होता जाता है क्योंकि व्यक्तित्व तथा चरित्र दोनों ही व्यक्ति अपनी आत्म-सम्बन्धी अवधारणा पर निर्भर होते हैं।
एक व्यक्ति जिस प्रकार से अपना प्रत्यक्षीकरण करता है अथवा जिस ढंग से अपने को देखता है, उसे ही हम उस व्यक्ति का आत्म-संप्रत्यय कहते हैं।
आत्म-संप्रत्यय वह है जैसा कि व्यक्ति वास्तव में अपने सम्बन्ध में विचार रखता है। यह ‘मै’ है। प्रत्यक्ष आत्म में, आत्म-संप्रत्यय और वातावरण के वह पक्ष होते हैं जिन्हें व्यक्ति अपने से आत्मसात् करता है-‘मेरा परिवार’, मेरा विद्यालय’, मेरा घर इत्यादि। दोनों आत्म-संप्रत्यय ओर प्रत्यक्ष आत्म, प्रत्यक्ष वातावरण में सम्मिलित होते हैं। इसको व्यक्ति को आत्म-क्षेत्र (Personal Field) भी कहा जाता है। कुछ मनोवैज्ञानिक इसको मनोवैज्ञानिक क्षेत्र (Psyschological Field) ‘जीवन-स्थल’ (Life Space) कहते हैं।
एक शिशु के प्रारम्भ के संवेदन अस्पष्ट तथा अव्यवस्थित होते हैं। आयु के साथ इनसे भेद होने लगता है और बालक जैसे-जैसे बड़ा होता जाता है, वह एक आत्म-संरचना कर लेता है। वह एक आत्म-संप्रत्यय बनाता है। प्रत्यक्ष आत्म बनाता है और प्रत्यक्ष वातावरण की अवधारणा ग्रहण करता है।
एक व्यक्ति के लिए उसका प्रत्यक्ष क्षेत्र अथवा निजी संसार ही यथार्थ होता है। अतएव वह संसार के प्रति प्रतिक्रिया करता है जैसे कि वह प्रत्यक्षीकरण करता है न कि उस संसार के प्रति जैसा कि अन्य व्यक्तियों द्वारा देखा जाता है, अब जो कुछ एक व्यक्ति द्वारा प्रत्यक्षीकरण होता है और जिस प्रकार से यह प्रत्यक्षीकरण होता है, वह उसकी मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं से अनुबन्धित होता है। यही कारण है कि एक बालक अपनी माता को छोड़ना ही नहीं चाहता, चाहे दूसरी स्त्री उसे कितने ही खिलौने इत्यादि दिखाये। उसकी आवश्यकता प्रेम की है जिसकी पूर्ति वह अपनी माता से ही कर सकता है।
अपनी सम्बन्ध में प्रत्यक्षीकरण परिपक्वता के साथ बदले रहते हैं। हमने कहा कि बालकों का व्यवहार अपने तथा अपने चारों ओर के संसार के प्रत्यक्षीकरण से निर्धारित होता है। जैसे ही उनका प्रत्यक्षीकरण बदल जाता है, व्यवहार भी उसी प्रकार बदल जाता है। शिक्षक सीधे बालकों के संप्रत्यय को विकसित नहीं कर सकते तो वह नहीं कह सकते कि अधिक परिपक्व और यथार्थ अपनी आवृतियों में हो जाएँ। उन्हें उस समय तक इन्तजार करना पड़ेगा जब तक बालक परिपक्व नहीं हो जाए। बालकों में कुछ बहुत-सी दुश्चिन्ताएँ एवं विफलताएँ दूर की जा सकती है यदि प्रौढ़ उनके भाव और प्रत्यक्षीकरण को समझकर उसके साथ व्यवहार करें।
अनेक अध्ययन आत्म-संप्रत्यय पर किये गये हैं। यह सब आत्म-संप्रत्यय के महत्व को स्पष्ट करते हैं। अनुशासनहीनता, आलसीपन, कमजोरी, सेवा-भाव का अभाव एवं भ्रष्टाचार जो सब हमारे राष्ट्रीय जीवन के लिए अभिशाप हो रहे हैं वह एक बड़ी सीमा तक व्यक्तियों के आत्म-संप्रत्यय पर ही केन्द्रित है जिनका विकास उनके बाल्यपन से ही होना प्रारम्भ हो जाता है। अतएव शिक्षक को चाहिए कि अपने विद्यार्थियों में ऐसे आत्म के प्रति संप्रत्यय विकसित कराने के लिए प्रयास करे जो सकारात्मक तथा स्वस्थ हो।
यहाँ पर महत्वपूर्ण अध्ययन, बुकओवर तथा थोमस का वर्णन किया जा सकता है, जो ‘योग्यता के आत्म संप्रत्यय तथा उपलब्धि पर है। एक शहरी विद्यालय संगठन के सातवीं कक्षा के विद्यार्थियों में उन्होंने आत्म-संप्रत्यय तथा उपलब्धि में महत्वपूर्ण तथा साकार सहसम्बन्ध पाया। इससे यह अर्थ होता है कि विषयों में अच्छी उपलब्धि प्राप्त करने में व्यक्ति का अपनी योग्यता के सम्बन्ध में आत्म संप्रत्यय एक महत्त्वपूर्ण तथ्य है। यह सम्बन्ध उस समय भी काफी अच्छा था जब बुद्धिलब्धि को नियंत्रण में रखकर भी इसका अध्ययन किया गया। तात्पर्य यह कि योग्यता के सम्बन्ध में अपनी धारणा यदि उच्च हो तो उपलब्धि भी उच्चता की ओर होती है। यह सम्बन्ध बुद्धि के प्रभाव को हटाकर भी ऐसा बना रहता है।
शिक्षकों को चाहिए कि बालक ऐसे उद्देश्य अपने सामने रखे जो वास्तविक हो और जो कि उनकी योग्यता के अनुरूप हों। वर्तमान समय में व्यक्ति ऐसे उद्देश्यों को सामने रखने लगे हैं जो कि वास्तविकता से दूर, योग्यता से अधिक आकांक्षा पर निर्भर होते हैं। यह विफलता की भावना को बढ़ाते हैं और विफलता ऐसे आत्म-संप्रत्यय को बढ़ावा देते हैं जो कि नकारात्मक, अस्वस्थ एवं असामाजिक है। उनके व्यक्तित्व के विकास को बहुत हानि पहुँचाते हैं।
आत्म-वास्तविकीकरण, सज्जित होने का प्रत्यय (Self-actualization, the Art of Becoming)
प्रत्येक बालक में एक आन्तरिक शक्ति निहित होती है। उसमें एक आन्तरिक अन्तर्नोद आत्म-वास्तविकीकरण का होता है। कोम्बस एवं स्नायग (Combs and Syngg) का विचार है कि व्यक्ति एक मूल्य अन्तर्नोद से प्रेरित होता है, जोकि आत्म का वास्तविकीकरण, संधारण एवं गुरुतर करना कहा जा सकता है, व्यक्ति के सब प्रयास इस मूल आवश्यकता के आशिक पक्ष समझे जा सकते हैं। व्यक्तियों में एक व्यापक शक्ति होती है जो उन्हें वृद्धि करने के लिए बाध्य करती है और व्यक्ति अपना वास्तविकीकरण वृद्धि की दिशा में करते हैं, चाहे उन्हें कष्ट ही क्यों न उठाने पड़े और कुछ लाभों से वंचित रहना पड़ें इसको हम सज्जित होना कह सकते हैं। बालक को कष्ट ही क्यों न हो, वह अधिक स्वतंत्रता और अधिक उत्तरदायित्व की ओर बढ़ता रहता है केवल इसलिए कि वह उसके लिए बालक बने रहने से अधिक संतोषजनक है। यह आगे की ओर बढ़ना उस समय ही रूकता है जबकि लगातार उपघाती अनुभव उसे हो जाते हैं ऐसा होने पर इस प्रक्रिया की दिशा उलट जाती है।
एक व्यक्ति जो सज्जित होने की स्थिति में है उसकी मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित है-
1. एक आत्म-वास्तविकीकरण व्यक्ति यथार्थता का एक ऐसे व्यक्ति की तुलना में, सुरक्षात्मक प्रकार (Defensive person) (ऐसा व्यक्ति जो स्थापित आत्म-संगठन का ही बचाव करता रहता है) का है-अधिक पर्याप्त प्रत्यक्षीकरण करता है तथा यथार्थता के साथ अधिक सुविधा से अपना सम्बन्ध बनाता है।
2. आत्म-वास्तविकीकरण व्यक्ति परिवर्तन की प्रक्रिया का भाग बन जाने के लिए तैयार रहता है। रूढ़िबद्धता से उसकी स्वतंत्रता उसे विचारों के साथ बिना रोक-टोक के खेलने की आज्ञा प्रदान करती है और उसमें नवीन के साथ प्रयोग करने की क्षमता उत्पन्न करती है। उसमें वह योग्यता होती है, जिसे मेस्लो (Maslow) शिखर अनुभव (Peak experiences) कहता है।
3. व्यक्ति जो सज्जित होने की प्रक्रिया में होता है वह अपने सम्बन्ध में सकारात्मक दृष्टिकोण रखता है। उसमें अपनी इस योग्यता में विश्वास होता है कि वह ठीक प्रकार कर सकता है। उसके मूल्यों में स्पष्टता होती है और अपने इरादों को पूरा करने का साहस । वह अपने मूल्यों के आधार पर ही जीना जानता है।
उसके लालसा के धरातल में वास्तविकता होती है और यह अपनी योग्यता एवं शक्तियों को उसे प्राप्त करने की ओर लगता है जो कि वह जानता है कि प्राप्त की जा सकती है। उसमें अपनी सफलता के प्रति आत्मविश्वास होता है।
4. अनुभव की ओर पूर्ण खुलापन उनमें एक उच्च स्तर का व्यक्तिगत समन्वय (Personal Integration) स्थापित करता है।
5. उसमें अपने साथियों के प्रति एक दृढ़ तादात्म्य की भावना होती है। उसमें कुछ प्रदान करने की एक बलवती इच्छा होती है। वह उत्तरदायित्व का भार उठाता है और अपने सहयोगियों की सेवा के लिए तत्पर रहता है।
ऊपर हमने एक सज्जित होने वाले व्यक्ति का आदर्श चित्रण किया है। यह किसी भी मानव को प्राप्त नहीं होता। कोई पूर्णरूप से सज्जित नहीं हुआ है। हमें व्यक्ति को एक सज्जित होने वाली प्रक्रिया के अन्दर ही देखना चाहिए। अतएव एक वास्तविकीकरण व्यक्ति वह है जो कि अपनी निहिताओं का प्रभावशाली उपयोग कर रहा है, वह इस रूप में आत्म-वास्तविकी है कि वह अपनी स्वयं की शक्ति अपने विकास में लगा रहा है और आत्म-वास्तविकीकरण के बराबर फैलते हुए चक्र में आगे की ओर ही बढ़ता जा रहा है।
भारतीय दर्शन में हमें ऐसे व्यक्तियों के उदाहरण मिलते हैं। वास्तव में अधिकतर भारतीय दार्शनिक चिन्तन आत्म-वास्तविकीकरण के समझने की ओर ही केन्द्रित है। भारतीय चिन्तन हमें उन मार्गों की ओर ले जाता है जिनके द्वारा यह स्थिति प्राप्त की जा सकती है क्योंकि सज्जित होने की प्रक्रिया एक कठिन प्रक्रिया है और इसको साधारण विधियों से प्राप्त नहीं किया जा सकता है। शिक्षक के व्यक्तित्व पर बल दिया जाता है जो कि अपना उदाहरण एक सज्जित व्यक्ति की भाँति देकर अपने विद्यार्थियों को इस उद्देश्य की ओर अग्रसर होने की प्रेरणा देता है। यही कारण है कि एक भारतीय शिक्षक से आशा की जाती है कि वह दूसरे व्यक्तियों की तुलना में जो दूसरे व्यवसायों में लगे हैं, आध्यात्मिकता तथा नैतिकता के स्तर में कहीं ऊँचा होगा। जैसा ऊपर कहा गया है- पाश्चात्य के मनोवैज्ञानिक यह विचार करते हैं कि कोई व्यक्ति सुसज्जित नहीं हुआ है। भारतीय चिन्तन इसको नहीं मानता। वह इसे सम्भव समझता है और हमारे सामने ऐसे सन्त पुरुषों के उदाहरण है जो कि इस ओर चेष्टा के शिखर पर पहुँच गये हैं। वह ही वास्तव में सधे गुरु या अध्यापक हैं।
शैक्षिक निहितार्थ (Educational Implications)
मानववाद का दृष्टिकोण मनोविज्ञान में दिन-प्रतिदिन अधिक मान्यता प्राप्त कर रहा है। लेखक का दृष्टिकोण भी इस पक्ष की ओर ही है। इस कारण यहाँ हम इनका वर्णन इस पूर्ण विश्वास के साथ कर रहे हैं कि भारतीय शिक्षा का भविष्य मानववाद की स्वीकृति पर ही निर्भर है।
मानववाद के दृष्टिकोण में निहित है- आत्म-प्रतिमा, आत्म-वास्तविकीकरण एवं अन्य आत्म- केन्द्रित प्रत्यय। यह ऐसे सन्दर्भों से विकसित हुआ है जो कि प्रत्यक्ष ज्ञानात्मक (Perceptual), ज्ञानवाद (Phenomenological) तथा अन्योन्यक्रियावाद (Interactional), मानववाद (Humanistic) अथवा अस्तित्ववाद (Existential) कहे जाते हैं। यह दृष्टिकोण व्यक्ति को एक बाहरी व्यक्ति की आँखों से नहीं देखता वरन् उस व्यकित की आँखों से देखता है जो कि व्यवहार करता है। हम वह प्रत्यक्षीकरण करते हैं जो कि हमारे लिए इस समय महत्त्वपूर्ण है और हम इस प्रकार से व्यवहार करते हैं जो कि उसके साथ संगत करता है, जिसे हम विश्वास करते हैं कि वह सत्य है। हमारे प्रत्यक्षीकरणं आवश्यक रूप से सही नहीं भी हो सकते हैं किन्तु हम केवल उसकी ओर ही प्रतिक्रिया कर सकते हैं जिसका कि हम प्रत्यक्षीकरण करते हैं। इस पृष्ठभूमि में शिक्षा में निहित है केवल उन तत्वों को स्वीकार करना, जो कि सीखने वाले के लिए व्यक्तिगत अर्थ रखते हैं। शिक्षा के लिए चुनौती इस ओर है कि वह ऐसा स्वतंत्र वातावरण प्रदान करें कि जिसमें विद्यार्थियों को अपने ऐसे निर्णयों पर आने के लिए, जो कि अपने लिए हैं तथा महत्त्वपूर्ण है सच्चे तथ्यों की खोज के लिए प्रोत्साहन मिले।
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