भाषा में सामाजिक सांस्कृतिक विविधता (The socio-cultural variations in language)
भारत सामाजिक-सांस्कृतिक विविधताओं से सम्पृक्त राष्ट्र है। प्रत्येक समाज में अपनी रीतियों, कार्य-प्रणालियों, प्रभुत्व और पारस्परिक सहायता, विविध समूहों और श्रेणियों, मानव व्यवहार के नियंत्रणों और स्वतंत्रताओं की व्यवस्था होती है। यह व्यवस्था गतिशील अवश्य होती है। प्रत्येक समाज की भौगोलिक एवं सामाजिक परिस्थितियाँ दूसरे समाज से भिन्न या पृथक् हो सकती हैं। प्रत्येक समाज की विशिष्ट संस्कृति होती है, जो उसके लिए आदर्श होती है। खान-पान, रहन-सहन, रीति-रिवाज, परम्परायें, प्रथायें, वेशभूषा, धर्म, दर्शन, कला, विज्ञान और व्यवहारों के साथ-साथ भाषा भी संस्कृति का अंग है। एक विशेष भौगोलिक क्षेत्र में विशेष सांस्कृतिक प्रतिमान होते हैं। भाषा भी एक प्रतिमान है। भाषा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित होती है। सीखने की प्रक्रिया में बालक अपने सामाजिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के अनुसार भाषा को सीखता, ग्रहण करता और आत्मसात् करता है। प्रत्येक समाज अपनी इच्छाओं, संवेगों, भावनाओं और आवश्यकताओं को भाषा के माध्यम से मूर्त रूप देता है।
विविध सामाजिक-सांस्कृतिक प्रतिमानों के कारण भारत एक बहुभाषा-भाषी देश है। सामाजिक सांस्कृतिक विविधताओं का प्रभाव भाषा पर स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है-
(i) विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न भाषायें बोली जाती हैं।
(ii) अलग-अलग सामाजिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के लोगों की भाषा को बोलने का लहजा (Accent) अलग-अलग होता है। उदाहरणार्थ- उत्तर प्रदेश और बिहार दोनों प्रदेशों में हिन्दी बोली जाती है, परन्तु बोलने का लहजा अलग होता है।
(iii) जो माता-पिता शिक्षित तथा अच्छी सामाजिक-आर्थिक स्थिति वाले होते हैं, उनके बालकों का शब्द भण्डार सुन्दर होता है तथा उच्चारण शुद्ध होता है।
(iv) जो परिवार निम्न सामाजिक-सांस्कृतिक स्थिति वाले होते हैं, वहाँ बालकों के भाषा विकास को महत्व नहीं दिया जाता। माता-पिता स्वयं गन्दे शब्दों का उच्चारण करते हैं तो उनके अनुकरण से उनके बच्चे भी भ्रष्ट उच्चारण करने लगते हैं।
(v) जिन परिवारों में माता-पिता कई भाषाओं का प्रयोग करते हैं, वहाँ बालकों का भाषा विकास ठीक से नहीं हो पाता। भाषा विकास की गति बहुत धीमी हो जाती है, क्योंकि एक ही वस्तु के लिए दो अलग-अलग शब्दों के प्रयोग से बालक को याद करने में कठिनाई होती है।
(vi) परिवार का सामाजिक-सांस्कृतिक वातावरण जितना विस्तृत होता है, बालक का शब्द भण्डार उतना ही विस्तृत बनता है।
संक्षेप में कहा जा सकता है कि बालक के भाषा विकास के निम्न आयामों पर उसकी सामाजिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि का प्रभाव पड़ता है- (i) भाषा सीखने की प्रक्रिया पर, (ii) उच्चारण पर, (iii) लहजे पर, (iv) सम्प्रेषण पर, (v) भाषा विस्थापन पर, और (vi) भाषायी अभिव्यक्ति पर ।
भारत बहु-संस्कृति वाला देश है। कक्षाओं में विभिन्न संस्कृति पृष्ठभूमि से आये विद्यार्थी एक साथ अध्ययन करते हैं, शैक्षिक और पाठ्य सहगामी क्रियाओं में भाग लेते हैं, सामाजिक अनुक्रिया करते हैं। प्रत्येक बालक अपनी भाषा के माध्यम से अपनी इच्छाओं, संवेगों, भावनाओं एवं आवश्यकताओं को व्यक्त करता है। भाषा संचार का एक सशक्त माध्यम है, विभिन्न सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से आये बालक अपनी सीखी हुई भाषा के द्वारा ही परस्पर सम्पर्क में आते हैं, सामाजिक सम्बन्धों का निर्माण करते हैं। बालक जैसी भाषा सीखता है, उसी के साथ उसके व्यक्तित्व का विकास होता है। भिन्न-भिन्न सांस्कृतिक परिवेश से आये बालकों की भाषा में बोलने के तरीके, उच्चारण, शब्दों के चयन, शब्दों के प्रयोग आदि में स्पष्ट अन्तर होता है, जैसे-ग्रामीण बनाम शहरी, धर्म बनाम धर्म, जाति बनाम जाति, उच्च सामाजिक स्थिति बनाम निम्न सामाजिक स्थिति, अच्छी आर्थिक स्थिति बनाम निम्न आर्थिक स्थिति, शिक्षित माता-पिता बनाम अशिक्षित माता-पिता आदि । शिक्षा प्रक्रिया में विभिन्न बहु-सांस्कृतिक कक्षायें एक चुनौती हैं, अतः निम्न बातों का ध्यान रखना आवश्यक है-
(i) भाषा विकारयुक्त बालकों को भाषा विकास हेतु प्रेरित किया जाना चाहिए।
(ii) अध्यापक भाषा के आधार पर विद्यार्थियों से भेदभाव न रखें।
(iii) अध्यापकों का स्वयं की भाषा पर नियंत्रण होना चाहिए। बालक अनुकरण से भाषा सीखते हैं। अध्यापक बालक का आदर्श होता है। वह अपने अध्यापक की भाषा को आत्मसात् करता है।
(iv) अध्यापकों को चाहिए कि बालकों को व्यक्तिगत रूप से पहचानें, उनकी भाषा पर ध्यान दें, आवश्यकतानुसार वैयक्तिक परामर्श दें।
(v) अध्यापक बालकों की भाषागत समस्याओं (उच्चारण दोष, लहजा आदि) कोसमझने और उसका निराकरण करने के लिए प्रयास करें।
(vi) अध्यापक यह भी प्रयास करें कि बालकों को रचनात्मक प्रवृत्तियों को व्यक्त करने के अवसर मिलें। इससे उनका भाषा विकास उन्नत होगा।
(vii) अध्यापक भाषा के आधार पर बालकों में आत्म-सम्मान और स्वानुशासन की भावना विकसित करने के लिए उन्हें प्रेरित करें।
(viii) भाषागत विचारों को सुधारने के लिए पाठ्य सहगामी क्रियाओं की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है। अतः अध्यापक को नियमित रूप से पाठ्य सहगामी क्रियाओं का आयोजन करना चाहिए।
(ix) भाषा में गिरावट का एक प्रमुख कारण उसका पारिवारिक वातावरण है। अध्यापकों को आवश्यकतानुसार उचित रूप से माता-पिता का भी मार्गदर्शन करना चाहिए।
(x) टी. वी. साहित्य, पत्र-पत्रिकाओं तथा मनोरंजन के साधनों का बालक की भाषा पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। अध्यापकों को इस बात पर भी निगरानी रखनी चाहिए।
(xi) बालकों के शब्द-ज्ञान को विकसित करना चाहिए। इससे भाषा तथा उच्चारण सम्बन्धी विचलन नियंत्रित हो सकते हैं।
(xii) भाषा विकास के लिए पुरस्कार और दण्ड का सावधानी से प्रयोग किया जाना चाहिए। अच्छी और सामाजिक रूप से मान्य भाषा बोलने वाले बालक की प्रशंसा की जानी चाहिए। अश्लील व असभ्य भाषा बालने वाले बालकों को कठोर दण्डों की अपेक्षा सामान्य सुधारात्मक दण्ड दिया जाना चाहिए।
(xiii) अध्यापक समस्याग्रस्त भाषा बोलने वाले बालकों को उपेक्षित न करें, उनकी भाषा को सुधारने के लिए उनके मानसिक स्वास्थ्य को उन्नत करने का प्रयास करना चाहिए।
(xiv) बालकों में भाषा चयन की योग्यता का विकास किया जाना चाहिए।
द्विभाषी या बहुभाषी बालक : अध्यापकों के लिए निहितार्थ (Bilingual or Multilingual Children : Implications for teachers) –बालक अपने सांस्कृतिक परिवेश में अपने माता-पिता व परिवार के अन्य सदस्यों से भाषा सीखता है। बालक माता-पिता से स्थानीय या क्षेत्रीय बोली ही सीखता है, जिसका लिखने में प्रयोग नहीं होता। लिखने की भाषा परिष्कृत होती है। विभिन्न प्रदेशों व क्षेत्रों की अपनी विशिष्ट प्रादेशिक भाषा होती। इस भाषा में बालक अपने भावों की अभिव्यक्ति सहज और स्वाभाविक तरीके से कर लेता है, क्योंकि यह उसकी मातृभाषा है। मातृभाषा में लिखने और बोलने वाली भाषा का अन्तर होता है। उदाहरणार्थ-उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की तथा बिहार की मातृभाषा हिन्दी है। भाषा के अन्तर्गत अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग बोलियाँ बोली जाती हैं। वही बोलियाँ बालक अपने घर में सीखता और बोलता है, परन्तु लिखने में हिन्दी की खड़ी बोली प्रयुक्त की जाती है। ये बालक अपने घर में क्षेत्रीय भाषा अवश्य बोलते हैं, परन्तु विद्यालय/कक्षा में परस्पर सम्पर्क तथा विचारों का आदान-प्रदान खड़ी बोली में ही करते हैं।
द्विभाषी या बहुभाषी बालकों के प्रसंग में एक विवेचना यह भी है कि मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा या प्रादेशिक भाषा का क्षेत्र सीमित होता है। राष्ट्रीय स्तर पर व अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सम्पर्क बनाने के लिए सम्पर्क भाषा की आवश्यकता होती है। राष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी सीखने के लिए बालकों को प्रेरित किया जा रहा है। परन्तु अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के लिए अंग्रेजी सीखना आवश्यक है । भारत बहुभाषी क्षेत्र है। यहाँ सम्पर्क भाषा मातृभाषा के अतिरिक्त हो सकती है। हम यह भी नहीं भूल सकते कि वैज्ञानिक गतिविधियों और कम्प्यूटर के प्रयोग ने अंग्रेजी को जीवन का एक अहम् हिस्सा बना दिया है। साथ ही यह ध्यान रखना पड़ेगा कि भारतीय समाज परम्परावादी है और आधुनिक प्रभावों द्वारा, पर्यटन या प्रवास द्वारा बहुभाषिकता को सहज बढ़ावा मिलता है। देश का अधिकांश हिस्सा बहुभाषी है। एक भाषा तो केवल गाँव में ही बोली जाती है। 1971 की जनगणना से स्पष्ट हो गया था कि भारत में 1,652 भाषायें बोली जाती हैं।
भारत में 87 से अधिक भाषायें प्रिण्ट मीडिया में प्रयुक्त हो रही हैं। रेडियो पर 71 भाषायें प्रयोग की जा रही हैं। देश का प्रशासन 18 विभिन्न भाषाओं में चलाया जा रहा है। 47 भाषायें विद्यालय में शिक्षा के माध्यम के रूप में प्रयुक्त हो रही हैं। द्विभाषी या बहुभाषी बालकों को ध्यान में रखते हुए अध्यापकों को निम्न बातों को ध्यान में रखना चाहिए-
(i) अध्यापकों को बहुभाषी या द्विभाषी बालकों को प्रोत्साहित करना चाहिए।
(ii) अध्यापकों को इस भ्रान्ति से दूर रहना चाहिए कि द्विभाषी या बहुभाषी होना बालक के संज्ञानात्मक और शैक्षिक विकास में बाधक है। शोध के माध्यम से पील और लैम्बर्ट (1962), गार्डनर और लैम्बर्ट (1972), क्यूमिन्स और स्वेन (1986) ने यह प्रस्तुत किया है कि द्विभाषी होने, संज्ञानात्मक विकास और शैक्षिक उपलब्धि में सकारात्मक सहसम्बन्ध होता है।
(iii) द्विभाषी या बहुभाषी बालकों का भिन्न-भिन्न भाषाओं पर नियंत्रण होने के साथ-साथ, अधिक सृजनात्मक और सामाजिक सहिष्णुता वाले होते हैं। अध्यापकों को उनके सृजनात्मकता और सामाजिक विकास के लिए अतिरिक्त चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं होती। इन्हें अभिनव अवसर दिये जाने चाहिए।
(iv) अध्यापकों को चाहिए कि द्विभाषी या बहुभाषी बालकों के लिए विविध प्रकार के शैक्षिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाना चाहिए, क्योंकि इन बालकों में कई प्रकार के चिन्तन (Divergent thinking) की विशेषता होती है।
(v) अध्यापकों को इस बाल का ज्ञान होना चाहिए कि बहुत से महत्त्वपूर्ण भाषायी कौशल आसानी से एक भाषा से दूसरी भाषा में स्थानान्तरित हो सकते हैं।
(vi) बालकों की शिक्षा के द्वारा राष्ट्रीय एकता को सशक्त करना अध्यापकों का कर्त्तव्य है। अतः द्विभाषिता या बहुभाषिता को प्रोत्साहित करना चाहिए।
(vii) अध्यापक को भाषा शिक्षण प्रविधयों का प्रयोग सावधानी और बालकों को केन्द्र में रखते हुए करना चाहिए।
(viii) अध्यापकों को अनुदेशन में शैक्षिक तकनीकों का भी यथासम्भव प्रयोग करना चाहिए।
(ix) स्थानीय डिक्शनरी, दीवार मैगजीन, लोक कथाएँ, लोकगीत, क्षेत्रीय कथनात्मकता आदि प्रभावकारी शिक्षण सामग्री हो सकते हैं।
(x) अध्यापकों को बालकों में सम्प्रेक्षणात्मक दक्षता (Communicative competence) का विकास करना चाहिए।
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