रंगों (रंजकों) का वर्गीकरण
रंगों (रंजकों) का वर्गीकरण- रंजक दो भागों में वर्गीकृत हैं-
(I) प्राकृतिक रंग (Natural Dyes)
प्राकृतिक स्रोतों से प्राप्त रंगों को प्राकृतिक रंग (Natural Dyes) कहते हैं। जैसे पेड़ पौधे की पत्तियाँ, फूल, फल, कलियाँ, जीव-जन्तु, चीटियाँ, खनिज लवण आदि।
प्राकृतिक रंग की भी प्राप्ति स्रोत के आधार पर तीन प्रकारों में बांटा गया है- (1) वानस्पतिज रंग (Vegetative Dyes), (2) प्राणिज रंग (Animal Dyes), (3) खनिज रंग (Mineral Dyes)।
(1) वानस्पतिक रंग- प्राचीन समय में पेड़-पौधों की छाल, तने, टहनियों, पत्तियाँ, फूल, फल, कलियों आदि से रंग प्राप्त किये जाते थे। इनसे प्राप्त रंगों से ही वस्त्रों को रंगा जाता था। हाथ एवं पैरों को भी इन्हीं रंगों से रंगकर सुसज्जित किया जाता था। आज भी कई रंगरेज रंग प्राप्ति के लिए प्राकृतिक स्रोतों से जैसे- जामुन, कत्था, हल्दी, मेंहदी, केसर, पलास के फूल, हरसिंगार के फूल आदि का प्रयोग करते हैं।
वनस्पतियों से रंग प्राप्त करके रंगने की कला अत्यन्त प्राचीनकाल से आरम्भ हो चुकी थी। मेंहदी की पत्तियों को पीसकर हथेलियाँ, तलवे एवं बाल अब भी रंगे जाते हैं। भारत एवं मिस्र में नील द्वारा रंगाई की जाती थी। अब भी नील की पत्तियाँ तथा तने को खमीरीकरण द्वारा तरल रूप में प्राप्त कर उससे नीला रंग बनाया जाता है। पौधे के फूल, फल, पत्तियाँ, छाल, छिलके एवं जड़ सभी भागों से रंग प्राप्त किया जाता है।
केसर, पलाश, पारिजात, जिसे हरसिंगार भी कहते हैं, इनसे रंग बनाये जाते हैं। फूलों को रंग प्राप्त करने के लिये तोड़ा जाता है जब वे ताजे होते हैं। इसी समय उनसे अधिकतम रंग प्राप्त किया जा सकता है। मुरझाए फूलों का रंग फीका हो जाता है। फूलों को पहले कुछ घंटों के लिए ठण्डे पानी में भिगो दिया जाता है तत्पश्चात् उसी पानी में धीमी आँच पर पकाया जाता है। फूलों से प्राप्त गीले रंग गहरे दिखाई देते हैं किन्तु सूखने पर वे कुछ हल्के हो जाते हैं।
फलों के रूप में हर्र, बहेड़ा, आँवला, जामुन आदि को कुचलकर पानी में भिगोकर रंग निकाला जाता है। पेड़ों की छाल से भी रंग बनता है। कत्था (Catechu) का उपयोग भारत में दो हजार वर्ष पूर्व भी कत्थई रंग बनने में होता था। कत्थे के पेड़ की छाल छीलकर पानी के साथ उबाली जाती है। इससे प्राप्त गाढ़ा घोल गहरे कत्थई रंग के रूप में जम जाता है। इससे सूती वस्त्र अच्छे रंगते हैं।
अखरोट के छिलकों से रंग प्राप्त करने के लिए उन्हें तभी तोड़ा जाता है जब वे हरे रहते हैं। इसके अतिरिक्त अनार के छिलके, प्याज के छिलके, हल्का पीला रंग बनाने के लिए उपयोग में लाये जाते हैं। डैंडलियॉन की जड़ें मैजेंटा (Magenta) रंग प्रदान करती है। लिली फूल सफेद होता है। उसकी गहरे हरी रंग की पत्तियों से ऑलिव ग्रीन (Olive green) रंग बनता है।
(2) जीव सम्बन्धी रंग (Animal Dyes) – प्राणिज स्रोतों से प्राप्त होने वाले रंग प्राणिज रंग कहलाते हैं। हजारों वर्ष पहले ही इनकी खोज हो चुकी थी। भूमध्य सागर में मिलने वाली एक विशेष प्रकार की मछली से गहरा बैंगनी (Tyrian purple) रंग प्राप्त होता है किन्तु यह रंग बहुत मंहगा होता है। एक ग्राम रंग के लिए हजारों मछलियों को मारना पड़ता है।
अमेरिका की खोज के पश्चात् सोलहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में स्पेनिश लोग कॉकनिएल नामक कीट को लेकर यूरोप आए। यह कीट ( Insect) कैक्टस के पौधों पर रहता है। कैक्टस के पौधों पर से कॉकनिएल कीटों को झाड़कर थैलों अथवा लकड़ी के टोकरों में एकत्र किया जाता है। उन्हें उबलते हुए पानी में डालकर, तंदूर में अथवा धूप में सुखाकर मारा जाता है। एक किलो वजन में पचास हजार कीट तौले जाते हैं। पाँच सौ ग्राम कॉकनिएल रंग के निर्माण हेतु सत्तर हजार कॉकनिएल कीटों की आवश्यकता होती है। वर्षों तक स्पेनिश लोगों ने इस रंग निर्माण का रहस्य छुपाए रखा। सन् 1643 में इंग्लैण्ड में इस रंग के बनाने का उद्योग आरम्भ हुआ। फिर भी सन 1725 तक वहाँ के लोग यही समझते रहे कि कॉकनिएल किसी अमेरिकन घासनुमा पौधे का बीज है। कॉकनिएल द्वारा चटख लाल रंग प्राप्त होता है। इस कीट का वैज्ञानिक नाम ‘कॉकस केकटी’ होता है। आजकल बाजारों में कोलतार रंगों (Coaltar dyes) के निर्माण से कॉकनिएल रंगों (Coccuscacti) की मांग दिनोंदिन घटती जा रही है।
दूसरे प्रकार के कीट केरमिस (Kermes) अथवा कॉकस इलिसिस (Coccus ilicis) कहलाते हैं। प्राचीनकाल में इससे लाल रंग प्राप्त किया जाता था। यूरोप में ओक वृक्ष की पत्तियों पर पाए जाने वाले इन कीटों को एकत्र करने का काम महिलाएँ करती थीं। रात को लालटेन लेकर हाथ के लम्बे नाखूनों की सहायता से ये कीट पकड़े जाते थे। इन्हें एकत्र करने का कार्य सूर्योदय के कुछ समय पहले तक चलता था। वेनिस में इन कीटों द्वारा लाल रंग में रंगे वस्त्रों का व्यापार प्रसिद्ध था। शेक्सपियर के नाटक में भी इस विशेष रंग की चर्चा है। कॉकनिएल रंगों की खोज के साथ ही केरमिस रंगों की मांग कम हो गई।
(3) खनिज सम्बन्धी रंग- खनिज पदार्थों द्वारा उत्पादित रंग खनिज रंग (Mineral dyes) कहलाते हैं। वर्षा ऋतु में भीगे लोहे के तार पर सफेद वस्त्र सुखाने हेतु डाले जाते हैं तो कभी- कभी वस्त्र जंग के दाग पकड़ लेता है। इसी सिद्धान्त पर आधारित लोहे से ब्राऊन, भूरा, क्रोम पीला, क्रोम हरा, क्रोम नारंगी, लोहे की छीलन से प्राप्त रंग इंडिगो तथा खाकी रंग प्रमुख खनिज रंग है। इस प्रकार रंग निर्माण हेतु लोहे की छीलन को पानी तथा सिरके के मिश्रण में भिगो दिया जाता है। कुछ दिनों पश्चात् हवा की ऑक्सीजन के सम्पर्क में आकर भूरे रंग का पानी प्राप्त होता है। इसमें लकड़ी की राख मिलाकर भूरे रंग का दूसरा शेड प्राप्त होता है। इसी प्रकार अन्य रसायन अथवा कुछ झरनों का विशिष्ट खनिजयुक्त जल मिलाकर ब्राऊन अथवा ईट रंग प्राप्त किया जाता है।
(II) कृत्रिम रंजक (Synthetic Dyes)
रासायनिक स्रोतों द्वारा रंग प्राप्त करने का अनुसन्धान सर्वप्रथम विलियन हेनरी पार्कन ने 1857 में किया था। जब वह रंजकों से क्विनाइन तैयार करने का प्रयत्न कर रहा था, तब आकस्मिक रूप से उसे संश्लिष्ट रंजक को तैयार करने की विधि का ज्ञान हो गया। यह रंजक कोलतार का मुख्य उत्पादन है। प्रारम्भ में कोलतार एक व्यर्थ का पदार्थ समझा जाता था, किन्तु धीरे-धीरे इसका उपयोग कई रासायनिक रंजक तैयार करने में किया जाने लगा। संश्लेषित रंग विविध रंगों एवं शेड्स (Shades) में उपलब्ध होते हैं। तथा प्राकृतिक रंगों की अपेक्षा सस्ते होते हैं। इनका उपयोग सरलता एवं सफलतापूर्वक किया जा सकता है। अतः वस्त्र की रंगाई एवं छपाई में इनका प्रयोग अधिक होता है। वस्त्र को रंगीन, आकर्षक एवं मनभावन बनाने के लिए निरन्तर प्रयोग होते रहते हैं और नित्य नये रंगों, शेड्स, नमूने, डिजाइनों और रंगने की विधि का आविष्कार होता रहता है।
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