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राष्ट्रीय प्रसार सेवा खण्ड (NES) | Rashtriya Prasar Sewa in Hindi

राष्ट्रीय प्रसार सेवा खण्ड
राष्ट्रीय प्रसार सेवा खण्ड

राष्ट्रीय प्रसार सेवा खण्ड (NES) पर एक निबन्ध लिखिए।

राष्ट्रीय प्रसार सेवा खण्ड- सामुदायिक विकास के आदर्शों तथा उद्देश्यों के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों एवं समुदायों को विकसित करने हेतु संगठित एवं विकसित किया गया अभिकरण (Agency) ही राष्ट्रीय प्रसार सेवा है जिसको 1953 में लागू किया गया। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि राष्ट्रीय सेवा प्रसार सेवा संगठन एक ऐसी एजेन्सी है जो विभिन्न प्रशासनिक स्तरों पर केन्द्र से लेकर प्रखण्ड तक सुसंगठित है। इनमें ग्राम पंचायत से सीधे जुड़े होने के कारण प्रखण्ड स्तर की भूमिका विशेष उल्लेखनीय है। इस प्रकार सेवा संगठन के जरिए ही सरकार की समस्त विकास योजनाएँ ग्राम्यांचलों के सर्वांगीण विकास हेतु गाँव में चलाई जाती है। इसके जरिए उन्हें अधुनातन उपयोगी ज्ञान की जानकारी दी जाती है तथा साथ-साथ उनकी समस्याओं का भी यथोचित समाधान प्रस्तुत किया जाता है। यह प्रसार सेवा संगठन के प्रयास की वह विधि है जिसमें शिक्षा प्रक्रिया के जरिए ग्रामीणों की इस तरह सहायता की जाती है कि वे स्वयं सक्षम बनकर अपनी सहायता खुद कर सकें। अपने विकास के रास्ते को खुद तय करते हुए उस पर चले और खुशहाल बन सकें। विकास खण्डों की इकाइयों में सामुदायिक विकास योजनाएँ कार्यान्वित की जाती है। प्रत्येक विकास खण्ड में करीब 100 गाँव होते हैं जिनमें लगभग 150-200 वर्ग मील का क्षेत्र और 60-70 हजार की आबादी होती है। अप्रैल 1958 के पूर्व पर यह कार्यक्रम तीन अवस्थआओं में चल रहा था। पाँच वर्ष पूरा करने पर खण्ड दूसरी अवस्था में प्रवेश करता है जिसमें विकास चलता है अगले पाँच वर्षों के लिये बजट कुछ कम होता है। प्रथम अवस्था में प्रवेश करने के पहले प्रत्येक खण्ड पूर्व विस्तार अवस्था (जो केवल एक वर्ष के लिये होता है) से गुजरता है जिसमें कार्यक्रम सम्बन्धी विकास तक ही सीमित रहता है। क्षेत्र में विकास कार्यक्रम चलाने के पहले गाँव वालों की आत्म-निर्भरता की परीक्षा के लिए गाँवों को साफ रखने तथा कम्पोस्ट खाद के गड्डे बनाने के कार्यक्रम प्रारम्भ किये गये । व्यय की अधिकतम सीमा “पूर्व प्रसार अवस्था’ वाले खण्डों के लिए 18800 रू० प्रथम चरण विकास के लिये 12 लाख रूपये तथा द्वितीय चरण विकास खण्ड के लिये 5 लाख रू0 प्रति खण्ड पाँच वर्षों के लिये निर्धारित थे।

बलवन्त राय मेहता दल की सिफारिशों के अनुसार सरकार ने 1959 में विकास कार्यक्रमों का उत्तरदायित्व और उनकी कार्यक्रम बनाने तथा उन्हें कार्यान्वित करने की शक्ति जनता की संस्थाओं को सौंप दिया। इसके तहत पंचायती राज संस्थाएँ राज संस्थाएँ जैसे जिला परिषदों, पंचायत समिति (अब क्षेत्रीय समिति है) तथा ग्राम पंचायत क्रमशः जिला, खण्ड तथा ग्राम स्तर पर स्थापित किये गये। सन 1979 तक देश में 262 जिला परिषद 4033 पंचायत समिति तथा 90% ग्रामीण जनसंख्या गाँव पंचायत के अन्दर आ चुकी है।

सन् 1974-75 तक देश में खण्ड स्तर पर 1,13,041 विभिन्न स्तर के प्रसार कार्यकर्त्ता थे जिनमें 96% प्रशिक्षित थे। प्रथम पंचवर्षीय योजना (1951-69) तक सामुदायिक विकास योजना पर 590.6 करोड़ रुपये खर्च हुये।

सफलताएँ – सामुदायिक विकास योजनाओं द्वारा सबसे अधिक सफलता कृषि उत्पादन में हुई। करीब 15 वर्षों (1960-61 के आगे) खाद्यान्न 82 मिलियन टन से 1977-78 में 126 मिलियन टन पहुँच गया। इसके अलावा प्रसार शिक्षा, स्वास्थ्य, सफाई, भूमि सुधार, पशुपालन, परिवहन तथा प्रशिक्षण व्यवस्था में काफी सुधार हुआ है।

आलोचनाएँ- योजना आयोग द्वारा स्थापित कार्यक्रम मूल्यांकन संगठन अपनी आख्या में निम्नलिखित आलोचनाएँ करता है।

1. स्थानीय समस्याओं का हल्का प्रभाव।

2. सरकारी विभागों में समन्वय की कमी।

3. आवश्यक उपकरणों की कमी।

4. प्रशिक्षण प्राप्त व्यक्तियों का अभाव।

5. जनता के पर्याप्त सहयोग का अभाव।

6. ग्राम सेविकाओं की कमी।

इनके अलावा अनेक आलोचकों ने अपने विचार निम्नवत दिये हैं-

श्री ए० आर० देसाई ने लिखा है कि प्रारम्भ से जितने विद्वान और संस्थाएँ हैं जिन्होंने सामुदायिक विकास योजना का मूल्यांकन किया है यह मानकर किया है कि भारत में पुनर्निमाण के लिए यही योजना आवश्यक और ठीक है। किसी ने निष्पक्षता से आधारभूत तत्वों की ठीक से जाँच करने की कोशिश नहीं की और यह भी जानने की चेष्टा नहीं की कि भारत के ग्रामीण समुदायों के प्रति सहकारी नीति ठीक भी है यह नहीं ।

प्रो० एस० सी० दुबे का कहना है कि योजना का स्रोत ऊपर से नीचे की तरफ है और वह भी प्रशासन के स्तर पर। इससे अधिकारी गण ऊपर से आये और आदेशों को मानने लगे, जबकि इन्हें अपने क्षेत्र में काफी अधिकार प्राप्त हुए हैं। प्रो० दुबे के अनुसार कर्मचारी वर्ग नौकरशाही की तरह व्यवहार करते हैं। समाज सेवा भावना की कमी से वे प्रिय दार्शनिक व पथ प्रदर्शक के रूप में कार्य नहीं करते हैं।

प्रो० दुबे ने यह भी बताया है कि सामुदायिक विकास योजना का आदर्श सारे समुदाय का बहुमुखी विकास करना है किन्तु यदि सूक्ष्मता से देखा जाए तो यह पता चलेगा कि इसके लाभ का अधिकतर भाग अभिजात वर्ग (Elite Group) को पहुँचता है। अधिकांश प्रभावशाली किसान ही इससे उठाते हैं। गरीब किसान बहुत कम लाभ उठा पाते हैं।

बलवन्त राय मेहता समिति ने इस योजना की प्रशासनिक ढाँचे की कड़ी आलोचना की है। रिपोर्ट के अनुसार उक्त योजना, स्थानीय जनता का नेतृत्व प्राप्त करने में असफल रही है। ग्राम पंचायत से ऊपर के संगठन, वह भी, बहुत कम इस योजना में भाग ले रहे हैं। इस प्रकार पंचायत भी इस क्षेत्र में आगे नहीं बढ़ सकी तथा समितियों ने भी कोई शक्ति का परिचय नहीं दिया।

श्री देसाई ने तो यहाँ तक लिखा है कि क्या यह मूल्यवान योजनाएँ जो अपने उद्देश्यों की पूर्ति नहीं करतीं, आगे चलने योग्य हैं? सामुदायिक विकास कार्यक्रम का नाम भ्रम पैदा करने वाला नाम है।

सुझाव-

1. स्थानीय समस्याओं पर अधिक जोर ।

2. ग्रामीण परिस्थितियों से परिचित व्यक्तियों की नियुक्ति।

3. अधिक ग्राम सेवक एवं सेविकाओं की नियुक्ति।

4. अधिक-से-अधिक प्रशिक्षण शिविरों की व्यवस्था।

5. प्रचार कम और काम अधिक।

6. युवा संगठनों की स्थापना और उनका सहयोग।

7. ग्रामीण नेतृत्व का विकास पर जोर ।

राष्ट्रीय प्रसार सेवा की स्थापना कब हुई थी?

(A) वर्ष 1947
(B) वर्ष 1953
(C) वर्ष 1952
(D) वर्ष 1987

Answer : वर्ष 1953

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