शिक्षा में मापन एवं मूल्यांकन के उद्देश्य, कार्य, उपयोगिता अथवा महत्त्व
मापन एवं मूल्यांकन के अपने में न कोई उद्देश्य होते हैं और न कार्य, जिस क्षेत्र में इनका प्रयोग जिन उद्देश्यों से किया जाता है उस क्षेत्र में इनके वही उद्देश्य होते हैं और उन उद्देश्यों की पूर्ति करना इनके कार्य होते हैं। हमारा अध्ययन क्षेत्र केवल शिक्षा है इसलिए हम यहाँ केवल शिक्षा के क्षेत्र में मापन एवं मूल्यांकन के उद्देश्य, कार्य, उपयोगिता अथवा महत्त्व के विषय में विचार करेंगे। किसी क्रिया के सम्पादन के जो उद्देश्य होते हैं, उन उद्देश्यों को प्राप्त करना ही उसके कार्य होते हैं। तब इन कार्यों का सम्पादन ही उसकी उपयोगिता है और यह उपयोगिता ही उसका महत्त्व है। एक उदाहरण द्वारा हम अपने इस कथन को स्पष्ट किए देते हैं। शिक्षा के क्षेत्र में मापन एवं मूल्यांकन का एक उद्देश्य छात्रों की बुद्धि, अभिक्षमता, रुचि और अभिवृत्ति के आधार पर उनका शैक्षिक एवं व्यावसायिक निर्देशन करना है। कार्य की दृष्टि से इसी कथन को इस प्रकार कहेंगे- शिक्षा के क्षेत्र में मूल्यांकन का एक कार्य बच्चों की बुद्धि, अभिक्षमता, रुचि और अभिवृत्ति के आधार पर उनका शैक्षिक और व्यावसायिक मार्गदर्शन करना है। उपयोगिता की दृष्टि से इसी कथन को इस प्रकार कहेंगे-शिक्षा के क्षेत्र में मूल्यांकन की एक उपयोगिता यह है कि इसके द्वारा छात्रों को, उनकी बुद्धि, अभिक्षमता, रुचि और अभिवृत्ति के आधार पर, , शैक्षिक एवं व्यावसायिक निर्देशन दिया जाता है महत्त्व की दृष्टि से इसी कथन को इस प्रकार कहेंगे- शिक्षा के क्षेत्र में मूल्यांकन का बड़ा महत्त्व है, इसके द्वारा छात्रों की बुद्धि का मापन किया जाता है; उनकी अभिक्षमता, रुचि एवं अभिवृत्तियों का पता लगाया जाता है और इनके आधार पर उन्हें शैक्षिक एवं व्यावसायिक निर्देशन दिया जाता है। साफ जाहिर है कि शिक्षा के क्षेत्र में मापन एवं के जो उद्देश्य हैं, वही उसके कार्य हैं, वही उसकी उपयोगिता हैं और उन्हीं के कारण उसका शिक्षा के क्षेत्र में महत्त्व है। बस इनकी अभिव्यक्ति शैली में अन्तर है शिक्षा के क्षेत्र में मूल्यांकन के उद्देश्य, कार्य, उपयोगिता अथवा महत्त्व को हम निम्नलिखित रूप में क्रमबद्ध कर सकते हैं-
(1) प्रवेश के समय प्रवेशार्थियों की योग्यता का मापन करना, उनकी रुचि और रुझान का पता लगाना और इस सबके आधार पर उन्हें प्रवेश देना।
(2) प्रवेश के बाद उनकी बुद्धि एवं व्यक्तित्व का मापन करना और उसके आधार पर उन्हें वर्ग विशेषों में विभाजित करना और समय-समय पर व्यक्तित्व निर्माण में सहयोग देना।
(3) समय-समय पर छात्रों पर शिक्षण के प्रभाव (शैक्षिक उपलब्धियों अथवा व्यवहार परिवर्तन) का पता लगाना और उसके आधार पर छात्रों का मार्गदर्शन करना, उन्हें सीखने के लिए अभिप्रेरित करना।
(4) समय-समय पर छात्रों की शैक्षिक उपलब्धियों का मापन एवं मूल्यांकन करना और उन्हें पृष्ठ पोषण प्रदान करना।
(5) समय-समय पर छात्रों की शैक्षिक प्रगति में बाधक तत्त्वों की जानकारी करना और उनका उपचार करना।
(6) समय-समय पर छात्रों की कठिनाइयों का पता लगाना और उनका निवारण करना।
(7) सत्रान्त में छात्रों को उपलब्धि परीक्षा के आधार पर पास फेल करना, श्रेणी प्रदान करना, कक्षोन्नति देना और प्रमाणपत्र देना।
(8) सामान्य शिक्षा प्राप्त करने के बाद छात्रों की बुद्धि, रुचि, रुझान और योग्यता का पता लगाना और उसके आधार पर उन्हें शैक्षिक एवं व्यावसायिक निर्देशन देना।
(9) समय-समय पर शिक्षकों के छात्रों के प्रति व्यवहार के छात्रों पर प्रभाव का पता लगाना, सुधार के लिए सुझाव देना और क्रियात्मक अनुसंधान के लिए मार्ग प्रशस्त करना।
(10) समय-समय पर प्रधानाचार्य के शिक्षकों एवं छात्रों के प्रति व्यवहार का शैक्षिक प्रक्रिया पर पड़ने वाले प्रभाव का अध्ययन करना, सुधार के लिए सुझाव देना और क्रियात्मक अनुसंधान के लिए प्रेरित करना।
(11) समय-समय पर शिक्षा प्रशासकों एवं अन्य कर्मचारियों और अभिभावकों की क्रियाओं के शैक्षिक महत्त्व की परख करना, उन्हें सुधार के लिए सुझाव देना।
(12) शिक्षा के उद्देश्यों की व्याख्या करना, उनकी उपयोगिता की परख करना, उनमें समयानुकूल परिवर्तन हेतु सुझाव देना।
(13) विभिन्न स्तर पर शिक्षा के पाठ्यक्रम के शैक्षिक उद्देश्यों की प्राप्ति में प्रभाव का पता लगाना, सुधार के लिए सुझाव देना और अनुसंधान के लिए मार्ग प्रशस्त करना।
(14) समय-समय पर प्रयोग की जाने वाली शिक्षण विधियों के सीखने पर प्रभाव का अध्ययन करना, उपयोगी अनुपयोगी विधियों का पता लगाना, सुधार के लिए सुझाव देना और अनुसंधान के लिए क्षेत्र स्पष्ट करना।
(15) शैक्षिक उद्देश्यों की प्राप्ति में पाठ्य पुस्तकों की उपयोगिता का पता लगाना, उनमें संशोधन हेतु सुझाव देना और अनुसंधान के लिए मार्ग प्रशस्त करना।
(16) शिक्षण में विभिन्न शिक्षण साधनों के प्रयोग से होने वाले प्रभाव का अध्ययन करना, उनका कहाँ, किस रूप में प्रयोग उपयुक्त होता है, इसका पता लगाना और सुधार लिए सुझाव देना।
(17) शैक्षिक उद्देश्यों की प्राप्ति में सहपाठ्यचारी क्रियाओं के प्रभाव का आंकलन करना और उनके सही प्रयोग हेतु सुझाव देना।
(18) 10-15 वर्ष के अन्तराल से शिक्षा नीति का मूल्यांकन करना तथा उसमें सुधार के सुझाव देना।
(19) शिक्षा की तत्कालीन समस्याओं को समझना, उनके समाधान के उपाय खोजना।
(20) शैक्षिक शोधों के लिए आँकड़ों का संकलन करना।
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