पाठ्यक्रम निर्माण में शिक्षकों के सहभागिता की वर्तमान स्थिति (Present situation of teacher’s participation in Curriculum Development)
वर्तमान समय में पाठ्यक्रम विकास कार्य में शिक्षकों की समुचित भागीदारी के प्रयास विश्व के अधिकांश देशों में किये जा रहे हैं तथा इसके अच्छे परिणाम भी प्राप्त हो रहे हैं किन्तु ब्रिटेन इस कार्य में सबसे आगे है। आज से लगभग तीन दशक पहले ही 1967 में तृतीय अन्तर्राष्ट्रीय पाठ्यक्रम आयोजन में ब्रिटिश प्रतिनिधि श्री जोशलीन ओवन ने इस बात पर विशेष बल देते हुए कहा था कि उनके देश में पाठ्यक्रम नियोजन कार्य में शिक्षकों को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त हैं। उन्हीं के शब्दों में, “विश्वविद्यालय, अनुसन्धानकर्त्ता सभी की अपनी भूमिका है किन्तु हमारी व्यवस्था में यदि किसी का वर्चस्व है तो वह सेवारत शिक्षक का है। स्कूल काउन्सिल कमेटियों में शिक्षकों का बहुमत है, वे ही कार्यक्रमों का चयन करते हैं, उनमें सुधार करते हैं, वे ही कार्यक्रमों एवं योजनाओं पर यथार्थवादी न शिक्षक ही ज्ञात देते हैं, वे ही योजना दलों का निर्माण करते हैं तथा उनका अनुमोदन करते हैं । काउन्सिल के बाहर वे ही इन पर प्रयोग करते हैं एवं इनका मूल्यांकन करते हैं। करते हैं कि विद्यालयों में क्या हो रहा है, उसमें से क्या अच्छा है, क्या कम अच्छा है तथ क्या मात्र दिखावटी है। उनके निष्कर्षो पर विशेषज्ञों की समिति कार्य करती है तथा परीक्षण के लिए सामग्री तैयार करती है जिसका शिक्षकों द्वारा विश्लेषण एवं मूल्यांकन किया जाता है तथा आवश्यक प्रश्न चिह्नों एवं सुझावों के साथ विशेषज्ञ समिति को लौटा दिया जाता है। तब इसमें संशोधन किया जाता है तथा पुनः वही क्रम चलता है।”
भारत में भी विगत दशकों में पाठ्यक्रम विकास कार्य में शिक्षकों की भागीदारी बढ़ी है। राष्ट्रीय स्तर एवं राज्य स्तर पर पाठ्यक्रम समितियों में अधिकांश कुशल एवं अनुभवी कार्यरत शिक्षकों को स्थान प्रदान किया गया है। स्कूल स्तर का पाठ्यक्रम राष्ट्रीय शिक्षा नीति के अन्तर्गत तैयार करने में शिक्षकों की पर्याप्त भागीदारी रही है किन्तु अभी भी अधिकांश शिक्षकों में इस कार्य के प्रति उदासीन भाव रहता है जिसे दूर करने के प्रयास किये जाने चाहिए।
छात्र एवं पाठ्यक्रम (Students and Curriculum) – मनोवैज्ञानिक प्रयोगों से यह सिद्ध हो चुका है कि कोई भी शैक्षिक कार्यक्रम छात्रों के सक्रिय सहयोग के बिना सफल नहीं हो सकता है। यह सहयोग शिक्षा के सभी स्तरों एवं सभी पक्षों के लिए आवश्यक है। कक्षा एवं कक्षा के बाहर आयोजित की जाने वाली अधिगम क्रियाओं का विकास, कार्य-विधि, समयावधि आदि का निर्धारण अन्तर्वस्तु का चयन, शिक्षण सहायक सामग्री का चयन आदि सभी ऐसे पक्ष हैं जिनमें विद्यार्थी का सहयोग बहुत उपयोगी सिद्ध हो सकता है। वास्तव में शैक्षिक कार्यक्रमों में शिक्षार्थी का स्थान उपभोक्ता (ग्राहक) के समान होता है तथा अन्य व्यापारिक क्षेत्रों के समान शिक्षा के क्षेत्र में भी उसकी (उपभोक्ता की) उपेक्षा करके सफलता प्राप्त करने की आशा ही नहीं की जा सकती है। इसीलिए शिक्षार्थियों की उद्यतता तथा उनकी व्यक्तिगत एवं सामूहिक आवश्यकताओं का ध्यान रखना अति आवश्यक है पाठ्यक्रम विशेषज्ञ भी इस बात पर बल देते रहे हैं।
यूनेस्को के ‘बाल अधिकार घोषणा-पत्र’ 1959 में भी कहा गया है कि “बालक को ऐसी शिक्षा दी जायेगी जो उसकी सामान्य संस्कृति में वृद्धि करेगी तथा उसे अपनी योग्यताओं, व्यक्तिगत निर्णय, नैतिक एवं सामाजिक, दायित्व के विकास के समान अवसर प्रदान करके समाज का उपयोगी सदस्य बनाने में सफल होगी।”
इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए शिक्षार्थियों को पाठ्यक्रम निर्माण में सक्रिय भागीदार बनाने की आवश्यकता प्रतीत होती है। अनेक देशों में किये गये प्रयोगों से भी पता चलता है कि पाठ्यक्रम आयोजन में शिक्षार्थी भी उपयोगी योगदान कर सकते हैं। इजराइल में पाठ्य-पुस्तकों के निर्माण में विद्यार्थियों के सम्भागित्व का उदाहरण भी सामने आया है। इटली की एक पहाड़ी पर स्थित एक छोटे स्कूल के बच्चों ने ‘ए लेटर टू दि टीचर’ पुस्तक की रचना की है जिसे ‘पेंगुइन शिक्षा पुस्तक माला’ के अन्तर्गत प्रकाशित किया गया है।
विगत कुछ दशकों में लगभग सभी देशों में छात्र वर्ग एक प्रभावी घटक के रूप में उभरकर सामने आया है जो पाठ्यक्रम को भी प्रभावित कर रहा है। पाठ्यक्रम में छात्रों की भागीदारी को अनेक देशों में स्वीकार भी किया जा रहा है। भारत में भी गजेन्द्र गडकर समिति ने विश्वविद्यालयों की शैक्षिक परिषदों में छात्रों को प्रतिनिधित्व प्रदान करने का सुझाव दिया था जिसे लागू करने के कुछ प्रयास भी हुए हैं। किन्तु पाठ्यक्रम निर्माण छात्रों की सहभागिता सुनिश्चित करने साथ-साथ हमें उनकी सीमाओं का भी ध्यान रखना आवश्यक है। महान शिक्षा-शास्त्री जॉन डीवी ने भी एक तरफ तो बाल-केन्द्रित पाठ्यक्रम का नवीन संप्रत्यय प्रस्तुत करके बालक की अभिरुचियों एवं उनके द्वारा अनुभूत आवश्यकताओं को पाठ्यक्रम का महत्त्वपूर्ण स्रोत बताया है, वहीं दूसरी तरफ चेतावनी भी दी है कि बालक का अनुभव स्थिर एवं स्थायी न होकर तरल एवं अस्पष्ट होता है। कुछ अन्य शिक्षाविदों ने भी इसकी पुष्टि की है। छात्रों के तात्कालिक ज्ञान एवं अनुभव पर अत्यधिक बल प्रदान करने तथा को केवल बालकों की रुचियों पर आधारित करने के भी अनेक दुष्परिणाम हो सकते हैं। छात्र को अन्तिम निर्णायक मानकर भी उद्देश्यों की प्राप्ति सम्भव नहीं होती है इस सम्बन्ध में अमेरिका में इस शताब्दी के चौथे दशक में प्रारम्भ किये गये बाल-केन्द्रित आन्दोलन का उदाहरण बहुत ही सटीक है। इस आन्दोलन के समर्थकों ने पाठ्यक्रम निर्माण में छात्र को प्रमुख घटक माना जिससे समाज के अधिकारों एवं आवश्यकताओं की उपेक्षा होने लगी। उस पर टिप्पणी करते हुए सेलर एवं अलेक्जेन्डर ने लिखा है कि, “सौभाग्यवश ये विचार कुछ प्रायोजिक विद्यायलों एवं भ्रमित शिक्षकों को छोड़कर किसी भी विद्यालय में पूर्णतया क्रियान्वित नहीं किये गये।”
भारत में भी छात्रों की शैक्षिक कार्यक्रमों में भागीदारी के जो प्रयास हुए हैं उनके भी अच्छे-बुरे दोनों तरफ के परिणाम प्राप्त हुए हैं। पाठ्य सहगामी क्रियाओं के आयोजन में तो छात्रों की भागीदारी के अच्छे परिणाम देखने को मिले हैं किन्तु शैक्षिक कार्यक्रमों में इनकी भागीदारी प्रायः व्यवधान ही उत्पन्न करती रही है। इसका प्रमुख कारण छात्र प्रतिनिधियों में उत्तरदायित्व की भावना का अभाव है। अतः हमें छात्रों को पाठ्यक्रम विकास में सम्भागित्व तो प्रदान करना चाहिए तथा यह आवश्यक भी है किन्तु इससे पूर्व उनमें दायित्व बोध को करना भी अति आवश्यक है।
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