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पाठ्यचर्या का शिक्षकों, समुदाय एवं प्रशासकों द्वारा प्रतिपुष्टि क्यों आवश्यक है?

पाठ्यचर्या का शिक्षकों, समुदाय एवं प्रशासकों द्वारा प्रतिपुष्टि क्यों आवश्यक है?
पाठ्यचर्या का शिक्षकों, समुदाय एवं प्रशासकों द्वारा प्रतिपुष्टि क्यों आवश्यक है?

पाठ्यचर्या का शिक्षकों, समुदाय एवं प्रशासकों द्वारा प्रतिपुष्टि क्यों आवश्यक है? (Why feedback of curriculum from teacher, community and administrators in nessesory.)

वर्तमान समय में शिक्षक की भूमिका में बदलाव आया है और अब शिक्षक की मुख्य भूमिका सीखने के मार्ग में सहायता करने वाले की होती है। शिक्षक को शिक्षार्थी को शिक्षण प्रक्रिया में एक सक्रिय भागीदार के रूप में देखना चाहिए न कि निष्क्रिय ग्रहणकर्ता के रूप में तथा ज्ञान को पूर्व निर्धारित न मानकर प्रत्यक्ष स्व-अनुभवों से निर्मित मानना चाहिए अतः, शिक्षक के अनुसार पाठ्यचर्या इस प्रकार निर्मित की जाए कि उसे विद्यार्थियों को खेलते व काम करते हुए प्रत्यक्ष अवलोकन के अवसर मिलें, शिक्षार्थियों के प्रश्नों को समझने तथा प्राकृतिक एवं सामाजिक घटनाओं के अवलोकन में मदद करने वाले कार्य मिल सकें। बच्चों में चिन्तन व अधिगम सम्बन्धी अन्तर्दृष्टि की जा सके। संक्षेप में कहा जाए तो अधिगम को सहभागिता की उस प्रक्रिया के रूप में देखा जाना चाहिए जो पूरे राष्ट्र, समाज, समुदाय के साझे सामाजिक सन्दर्भों के बीच होती है। प्राय: गाँधी, टैगोर, श्री अरविन्द, गिजूभाई, जे. कृष्णमूर्ति, ड्यूई तथा अन्य महान शिक्षाविदों के विचारों को बिना आवश्यक सन्दर्भ के और बिना इस सरोकार के कि ये विचार कहाँ से उत्पन्न हुए हैं, थोड़ा-थोड़ा पढ़ाया जाता है तो जाहिर है कि इन विचारों को पढ़ाया व रटाया तो जा रहा होता है, परंतु शायद ही इन्हें कभी प्रयोग में लाया जाता है। सहभागिता की प्रक्रिया तो स्व-अनुभव पर आधारित क्रिया है जिसमें शिक्षार्थी अपने ज्ञान का निर्माण अपने तरीके से आत्मसात् कर, अन्तःक्रिया, अवलोकन तथा मनन-चिन्तन द्वारा करते हैं।

आज शिक्षा की भूमिका में एक बड़ी तब्दीली आई है, उसे अब तक ज्ञान के स्रीत के रूप में केन्द्रीय स्थान मिलता रहा है, वह सीखने-सिखाने की समूची प्रक्रिया का संरक्षक और प्रबंधक रहा है, परंतु अब उसकी भूमिका ज्ञान के स्रोत के बदले एक सहायक की हो गई है जो सूचना को ज्ञान/बोध में बदलने की प्रक्रिया में विविध उपायों से विद्यार्थियों को उनके शैक्षणिक लक्ष्यों की पूर्ति में मदद करता है। दूसरा महत्त्वपूर्ण बदलाव ज्ञान की अवधारणा में भी आया है तथा अब ज्ञान को एक सतत् प्रक्रिया माना जाने लगा है जो वास्तविक अनुभवों के अवलोकन, पुष्टिकरण आदि से उत्पन्न होता है। अतः, इस सन्दर्भ में पाठ्यचर्या के ज्ञान को शिक्षा के बहु-अनुशासनिक सन्दर्भ में समझकर इस प्रकार की अवधारणाओं का समावेश करना चाहिए जो क्रिया, प्रक्रिया, अवधारणा व घटनाओं का वर्णन-विश्लेषण करें।

शिक्षक को यह समझना चाहिए कि पाठ्यचर्या विद्यार्थी केन्द्रित सीखने की प्रक्रिया के सन्दर्भ में विकसित की जाए ताकि प्रत्येक अधिगम परिस्थिति संचित रूप में शिक्षक को बच्चों की जरूरतों को पहचानने के लिए अन्तर्दृष्टि प्रदान करे। अतः, शिक्षक को पाठ्यचर्या के समुचित संयोजन व क्रियान्वयन हेतु एक ऐसे पेशेवर के रूप में देखना चाहिए जिसमें उपयुक्त क्षमता, लगन, उत्साह, नए तरीके अपनाने की लगन तथा चिन्तनशीलता है, उसे विद्यार्थी को पाठ्यचर्या को अर्थपूर्ण ढंग व सकारात्मक ढंग से सिखाने की क्षमता भी होनी चाहिए।

समुदाय व प्रशासकों द्वारा प्रतिपुष्टि (Feed Back From Community And Administrators)

बच्चों की शिक्षा एक सामाजिक उत्तरदायित्व है और इसे सदैव सामाजिक स्थिति में ही पूरा किया जाता है। समय-समय पर समाज की सामाजिक शक्तियाँ शिक्षा के उद्देश्यों को निर्धारित करती हैं तथा इन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए पाठ्यचर्या तैयार की जाती है अतः, यह आवश्यक है कि पाठ्यचर्या के निर्माण व विकास के समय समुदाय या समाज की प्रतिपुष्टियों को भी ध्यान में रखा जाए।

शिक्षा का बुनियादी उद्देश्य संस्कृति, मूल्यों, विश्वासों, आदर्शों, परम्पराओं, आकांक्षाओं और समाज में स्वीकार्य व्यवहार रूपों को सुरक्षित रखना और सम्प्रेषित करना है। अच्छी पाठ्यचर्या सुनिश्चित करती है कि समाज का अद्वितीय चरित्र और अखण्डता सुरक्षित रहे और सामाजिक समूहों के अजीवन की गुणवत्ता भी बेहतर हो जाए। क्या पढ़ाया जाना है और कैसे पढ़ाया जाना है, इनसे सम्बन्धित निर्णयों को सामाजिक या सामुदायिक शक्तियाँ प्रभावित करती हैं। समाज या समुदाय में होने वाले परिवर्तनों को समायोजित करने के लिए मौजूदा पाठ्यचर्या में क्या जोड़ना है और क्या छोड़ना है, इसका निर्णय समुदाय के लोगों द्वारा प्राप्त प्रतिपुष्टियों के आधार पर किया जाता है।

भारत में ऐसे भी कई समुदाय और व्यक्ति हैं जो भारत के पर्यावरण के विविध रूपों की सूचनाओं और उनके प्रबंधन सम्बन्धी ज्ञान के भण्डार हैं, जो उन्होंने पीढ़ियों से परम्परागत ज्ञान के रूप में पाने के साथ अपने व्यावहारिक अनुभव से भी प्राप्त किया है। इस प्रकार के ज्ञान में, पौधों का नामकरण और वर्गीकरण जल संरक्षण और जल संचय के उपाय या टिकाऊ कृषि की प्रथा शामिल है। कभी-कभी ये उससे भिन्न भी हो सकते हैं, जैसा स्कूल में विषय ज्ञान देते समय बताया जाता है। कभी तो इसकी पहचान भी नहीं हो पाती है कि यह ज्ञान महत्त्वपूर्ण है। इन स्थितियों में स्कूल में शिक्षकों को विद्यार्थियों को स्थानीय परम्पराओं और लोगों के पर्यावरण सम्बन्धी व्यावहारिक ज्ञान पर आधारित परियोजना तैयार करने में मदद करनी चाहिए। इसमें स्कूली परम्परा से उसकी तुलना को भी शामिल किया जा सकता है कुछ मामलों में, जैसे कि पौधों के वर्गीकरण के मामले में। हो सकता है कि दोनों परम्पराओं के मानदण्ड समानान्तर हों और अपने-अपने मुताबिक दोनों महत्त्वपूर्ण हों। अन्य दृष्टान्तों में, जैसे बीमारी के वर्गीकरण और उनके उपचार के मामले में यह स्थानीय परम्परा के विपरीत भी हो सकते हैं। बहरहाल सभी प्रकार के ज्ञान का पाठ्यचर्या में समावेश संवैधानिक मूल्यों और परम्पराओं के अनुकूल होना चाहिए।

इसके लिए जरूरी है कि सामाजिक, सांस्कृतिक संसार के अनुभवों को भी पाठ्यचर्या का हिस्सा बनाया जाए। इस बात की जरूरत है कि बच्चे पाठ्य-पुस्तकों में समुदाय की निरूपित जीवन-शैली और लोगों में अनेकत्व की अभिव्यक्ति एवं चित्रण को पहचानें। इन वर्णनों में भी यह ध्यान रखा जाए कि किसी भी समुदाय की अति सरलीकरण न हो, न उन पर कोई ठप्पा लगाया जाए। विद्यार्थियों के लिए यह और भी बेहतर होगा कि वे सामाजिक अध्ययन के पाठ के अन्तर्गत स्थानीय सामाजिक समूहों का खुद ही चित्रण करें। बच्चे सीधे ग्राम पंचायत के सदस्य से सम्पर्क संवाद कर सकते हैं। उनको स्कूल में बुलाया जाए और वे विस्तार से बतावें कि विकेन्द्रीकरण ने स्थानीय नागरिक मुद्दों को सम्बोधित करने में कैसे मदद की है । स्थानीय मौखिक इतिहास को भी प्रादेशिक और राष्ट्रीय इतिहास से जोड़ा जा सकता है। लेकिन सामाजिक सन्दर्भ पाठ्यचर्या विकसित करने वालों एवं अध्यापिकाओं से यह मांग करता है कि वे विवेचनात्मक जागरूकता लाएँ और उस सन्दर्भ में बहुत ही सतर्क एवं संवेदनशील रूप से जुड़ें। लिंग, जाति, वर्ग एवं धर्म की समुदाय आधारित अस्मिता, प्राथमिक अस्मिता होती है, लेकिन यह बेहद उत्पीड़न भी हो सकती है और सामाजिक भेदभाव और ऊँच-नीच को कई बार पुख्ता भी करती है। स्कूली ज्ञान वह दृष्टि भी दे सकता है जिसके द्वारा बच्चे सामाजिक यथार्थ की एक आलोचनात्मक समझ बनाएँ । स्कूली ज्ञान बच्चों को ऐसे मौके भी दे सकता है कि वे घर के अनुभवों और वहाँ पैदा हुई चिन्ताओं के बारे में बात कर पाएँ।

समुदायों के पास किसी अनुभव या ज्ञान को पाठ्यचर्या का हिस्सा बनाने या न बनाने को लेकर प्रश्न हो सकते हैं। इसलिए स्कूल को समुदायों के साथ एक रिश्ता बनाने के लिए तैयार रहना चाहिए, उनकी आंशकाओं को सुनना चाहिए और उन्हें ऐसे निर्णयों के शैक्षणिक मूल्यों के बारे में समझाना चाहिए। इसके लिए आवश्यक होगा कि शिक्षकों को पता हो कि क्यों किसी चीज को शामिल किया गया और क्यों किसी को नहीं। साथ ही उनको इन मुद्दों को लेकर अभिभावकों का विश्वास भी अर्जित करना होगा कि बच्चे कक्षा में घर की भाषा प्रयोग करे, उन्हें प्रजनन एवं सैक्स के विषय में पढ़ाया जाए। प्राथमिक विद्यालयों में बच्चों को खेल-खेल की विधि से पढ़ाना और लड़कों को नाचने और गाने के लिए प्रेरित करना जरूरी क्यों है ? सिर्फ यह तर्क पर्याप्त नहीं है कि निर्णय राज्य स्तर पर लिए जाते हैं। अगर हमें धर्मनिरपेक्ष शिक्षा में हर वर्ग के बच्चे को शामिल करना है तो पाठ्यचर्या सम्बन्धी विकल्पों को लेकर उन सभी लोगों से चर्चा करनी होगी जो शिक्षा के प्रति उत्तरदायित्व रखते हैं।

इस सन्दर्भ में यह ध्यान रखना आवश्यक है कि बच्चों में रुचि, शारीरिक क्षमता, भाषिक क्षमता, अमूर्तन और सामान्यीकरण की क्षमता का विकास स्कूल पूर्व शिक्षा में लेकर माध्यमिक स्तर की शिक्षा तक में होता है। यह समय गहन वृद्धि एवं विकास का, रुचियों और क्षमताओं में मूलभूत बदलाव का होता है। इसलिए पाठ्यचर्या के क्षेत्रों के चयन एवं व्यवस्थापन के प्रस्ताव को निश्चित करने के लिए यह एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण आयाम है। स्कूल में पहली बार प्रवेश करते समय बच्चा संसार के ज्ञान का सृजन शुरू कर चुका होता है । हर चीज जो बच्चे बाद में सीखते हैं, वह उस ज्ञान सम्बन्धित होता है जो वह स्कूल में लेकर आते हैं । यह ज्ञान भी अन्तःप्रज्ञात्मक होता है तथा स्कूल यह अवसर देता है कि इसी ज्ञान को आधार मानकर आगे बढ़ा जाए। अतः, पाठ्यचर्या के विकास में स्थानीय सन्दर्भ में प्रतिपुष्टि के सन्दर्भ में निम्न बातों को ध्यान में रखना होगा-

  • विषय द्वारा दिए गए कौशलों के आधार पर सामाजिक यथार्थ और परिवेश के प्रति आलोचनात्मक दृष्टिकोण का विकास।
  • स्थानीय के साथ जुड़ाव, ज्ञान को सन्दर्भों में रखा जाए ताकि उसकी प्रासंगिकता और अर्थपूर्णता महसूस की जा सके। स्कूल बाहर के अनुभवों की पुष्टि हो जाए, अवलोकन, वर्गीकरण, श्रेणियाँ बनाकर प्रश्न पूछकर इन अनुभवों के सम्बन्ध में तर्क करके स्वयं सीखना।
  • विभिन्न अनुशासनों में अन्तर्सम्बन्ध देखना और ज्ञान में अन्तर्निहित जुड़ाव को समझना।
  • स्थानीय ज्ञान और स्थानीय क्षेत्र के रिवाजों और प्रथाओं के साथ जुड़ना और जहाँ भी सम्भव हो, इन्हें स्कूली ज्ञान के साथ जोड़ना।
  • कक्षायी प्रक्रियाओं में ‘समानता’ के मुद्दों के प्रति संवेदनशील होना और कई समूहों द्वारा ज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों को सीख पाने को लेकर स्थापित रूढ़िबद्ध धारणाओं और भेदभाव के प्रति सजग होना।
  • जहाँ तक पाठ्यचर्या के विकास में प्रशासन स्तर पर प्रतिपुष्टि की बात है तो इसका तात्पर्य क्षेत्रीय, राष्ट्रीय तथा स्थानीय / सामुदायिक स्तरों पर कार्यरत उन सामाजिक शक्तियों में हो जो विभिन्न संगठनों और जनसमूहों के माध्यम से पाठ्यचर्या पर अपना प्रभाव छोड़ती हैं। इन शक्तियों को चार श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है— सरकारी शक्तियाँ, अर्द्ध- विधायी शक्तियाँ, पेशेवर संगठन तथा स्थानीय समाज में कार्यरत विशेष हित समूह आदि।

सरकारी शक्तियाँ- सरकार शिक्षा और इसकी पाठ्यचर्या सम्बन्धी नीतियाँ बनाती है । वर्तमान में स्कूली शिक्षा की अकादमिक योजना भी मुख्यतः ‘ऊपर से नीचे’ चलने वाले वार्षिक समय पर आधारित है । विभिन्न आयोग व राज्य शैक्षिक अनुसंधान व प्रशिक्षण परिषद् विभिन्न शिक्षा विभागों द्वारा इस कार्य को किया जाता है। इसके साथ ही प्रत्यक्ष सरकारी नियंत्रण संवैधानिक तथा संविधि कानूनों पर आधारित है। उदाहरण के लिए, हमारे देश में अनुच्छेद 45 के अन्तर्गत राज्य के नीति निदेशक तत्व सरकार को सबके लिए प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था करने का निर्देश देते हैं। अतः, सरकार को सबके लिए सार्वभौमिक प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था करनी है, जिसमें भौतिक सुविधाओं तथा अध्यापकों के नियोजन के प्रावधान शामिल हैं। सरकार बच्चों के लिए पाठ्यचर्या तथा पाठ्य-पुस्तकें तैयार करती है । इसी प्रकार 1968 और 1986 में संसद के अधिनियमों के माध्यम से सरकार ने कुछ नई शिक्षा नीतियाँ मंजूर की, जिसमें व्यावसायिक शिक्षा, नैतिक शिक्षा और दसवीं कक्षा तक की विस्तारित सामान्य शिक्षा के घटक शामिल थे।

ये सब और ऐसे अनेक नीतिगत निर्णय पाठ्यचर्या के विकास व नियोजन को प्रभावित करते हैं। इन निर्णयों के फलस्वरूप शिक्षा के उद्देश्यों को तथा शिक्षा के विभिन्न स्तरों की पाठ्यचर्या—प्राथमिक, माध्यमिक और उच्चतर का पुनर्निर्माण हुआ है। भारत के संविधान में प्रजातंत्र और पथ-निरपेक्षता के सिद्धांतों को स्थापित किया गया है जो विद्यालय की पाठ्यचर्या तथा उन पर आधारित पाठ्य-पुस्तकों में प्रतिबिम्बित होते हैं।

एक अन्य साधन, जिसके माध्यम से सरकार विद्यालय के पाठ्यक्रम को और वस्तुतः विद्यालयी शिक्षा के अधिकांश भाग को प्रभावित करती है, वह है केन्द्र, राज्य सरकारों तथा स्थानीय प्रशासन द्वारा देश में शैक्षिक उद्यम (कार्य) को दी जाने वाली वित्तीय सहायता। अतः, सरकार पाठ्यचर्या कार्यकलापों और छात्रों को प्रदान किए जाने वाले अनुभवों के सम्बन्ध में अपने नियम, विनिमय और नीतियाँ लागू करने में सक्षम रहती है।

जहाँ तक पाठ्यचर्या के विकास व मूल्यांकन हेतु अर्द्ध- विधायी शक्तियों की बात है, तो ये शक्तियाँ अनिवार्यतः विधि द्वारा सृजित नहीं होतीं। इन्हें स्वैच्छिक संगठनों, पेशेवर संस्थाओं तथा स्वायत्त संगठनों द्वारा सृजित किया जा सकता है। विश्वविद्यालय, महाविद्यालय, अभिभावक-अध्यापक संघ (पी. टी. ए.) पाठ्य-पुस्तक लेखक, प्रकाशक, लोक-हितैषी संगठन, जनसंचार माध्यम आदि इनके अन्तर्गत आते हैं। उदाहरण के लिए, विश्वविद्यालय और कॉलेज न केवल अध्यापक शिक्षा के माध्यम से पाठ्यचर्या को प्रभावित करते हैं, बल्कि विद्यालय की पाठ्यचर्या निर्धारित करने में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। अभिभावक अध्यापक संघ ऐसे स्थानीय समूह होते हैं जिनके माध्यम से पाठ्यचर्या और पाठ्य-पुस्तकों पर स्थानीय समुदाय के विचारों को विद्यालय, विद्यालय शिक्षा बोर्ड तथा पाठ्यक्रम योजनाकारों तक पहुँचाया जाता है। बड़े प्रकाशक पाठ्य-पुस्तकों तथा पाठ्यचर्या में शामिल की जाने वाली सामग्री के प्रकार को अत्यधिक प्रभावित करते हैं। सुदृढ़ मनोवैज्ञानिक आधार पर निर्मित, उपयुक्त अधिगम कार्यकलाप तथा सशक्त उदाहरण वाली पाठ्य-पुस्तकें विद्यालय में अपनाई जाने वाली अध्यापन प्रक्रियाओं और विषय-वस्तु को निर्धारित करती है । पाठ्यचर्या निर्माता कई बार इन सुव्यवस्थित पाठ्य पुस्तकों के माध्यम से अध्ययन क्षेत्र विशेष के पाठ्यक्रम का निर्माण करते हैं।

इसी प्रकार पाठ्यचर्या के विकास व मूल्यांकन को प्रभावित करने वाली प्रशासन सम्बन्धी शक्तियों के अन्तर्गत अध्यापक तथा अध्यापक-शिक्षक संघ शामिल होता है। उदाहरण के लिए, राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद् (NCTE) को अध्यापक शिक्षा के लिए भारत सरकार ने पाठ्यचर्या तैयार करने का अधिकार दिया है। अध्यापक संगठन न केवल अध्यापकों की कार्य- दशाओं को बेहतर बनाने और उनके कल्याण के लिए कार्य करते हैं बल्कि अध्यापन व्यवसाय के बारे में जानकारी का प्रचार भी करते हैं। शिक्षा तथा अध्यापकों के सेवाकालीन प्रशिक्षण में शोध पर आधारित सहायता प्रदान करने और शिक्षण प्रक्रिया को बेहतर बनाने के लिए सुझाव देते हैं। ये सब गतिविधियाँ विद्यालय की पाठ्यचर्या को प्रभावित करती हैं। पाठ्यचर्या के विकास व नियोजन के समय पाठ्यचर्या नियोजनकर्ता, शैक्षिक संगठनों तथा उनके सुविज्ञ सदस्यों के विचारों और सुझावों पर भी विचार करते हैं। इतना ही नहीं वे अन्य सम्बन्धित व्यवहारों के सुझावों पर भी विचार करते हैं। उदाहरण के लिए, वाणिज्य और लेखा पर एक, अच्छी पाठ्यचर्या आयोजित करने के लिए पेशेवर लेखाकारों, कम्पनी सेक्रेटरियों, निर्यातकों आदि की राय को भी ध्यान में रखना चाहिए। इसी प्रकार विषय समितियों के विचारों, अनुसंधान निष्कर्षों तथा अनुभवों पर भी विचार किया जाना चाहिए।

स्थानीय समुदाय द्वारा पाठ्यचर्या विकास व मूल्यांकन के सन्दर्भ में अभिप्राय ऐसे समूह व संगठन से है जो किसी विशेष विचारधारा या विशेष रुचि के क्षेत्रों को बढ़वा देते हैं। इन संगठनों में देशभक्त समूह, सांस्कृतिक व धार्मिक संगठन, नागरिक समूह तथा समुदाय के विभिन्न हितों का प्रतिनिधित्व करने वाले अन्य समूह हो सकते हैं। पाठ्यचर्या आयोजक को समाज के विभिन्न समूहों के विश्वासों, आकांक्षाओं तथा अपेक्षाओं सम्बन्धी अंतर्दृष्टि विकसित करने में रुचि लेनी चाहिए। स्थानीय शिक्षा समिति समुदाय का प्रतिनिधित्व करती है, विद्यालयों को प्रशासित करती है, समुदाय के शैक्षिक हितों की पूर्ति करती है । प्रायः पाठ्यचर्या प्रस्तावों को अनुमोदित भी करती है तथा पाठ्यचर्या सामग्री के विकास का प्राधिकृत करती है। इन समितियों के माध्यम से हितबद्ध समूहों की आकांक्षाएँ और मूल्य राज्य और केन्द्रीय शिक्षा नीति की व्यापक रूपरेखा के अन्तर्गत पाठ्यक्रम में प्रतिबिम्बित होते हैं। ये समूह पाठ्यचर्या नियोजकों को प्रभावित करने का प्रयास करते हैं।

इनके अतिरिक्त अर्द्ध- विधायी शक्तियाँ भी स्वैच्छिक संगठनों, पेशेवर संस्थाओं तथा स्वायत्त संगठनों द्वारा सृजित होती हैं, जिसके अन्तर्गत विश्वविद्यालय, महाविद्यालय, अभिभावक-अध्यापक संघ (पी. टी. ए.), पाठ्य-पुस्तक लेखक, प्रकाशक, लोक-हितैषी संगठन आदि आते हैं, भी पाठ्यचर्या को न केवल अध्यापक शिक्षा के माध्यम से प्रभावित करते हैं, बल्कि विद्यालय की पाठ्यचर्या निर्धारित करने में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। अभिभावक-अध्यापक संघ ऐसे दबाव समूह होते हैं जिनके माध्यम से पाठ्यचर्या और पाठ्य-पुस्तकों पर स्थानीय समुदाय के विचारों को विद्यालय, विद्यालयी शिक्षा बोर्ड तथा पाठ्यचर्या योजनाकारों तक पहुँचाया जाता है।

इसी प्रकार पाठ्यचर्या को अत्यधिक प्रभावित करने वाली कुछ पेशेवर संस्थाओं के अन्तर्गत भी अध्यापक तथा अध्यापक-शिक्षक संघ शामिल होते हैं। उदाहरण के लिए, राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद् को अध्यापक शिक्षा के लिए भारत सरकार ने पाठ्यचर्या तैयार करने का अधिकार दिया है।

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