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पाठ्यचर्या के क्रियान्वयन में शिक्षक की भूमिका | Teacher’s Role In Implementation of Curriculum in Hindi

पाठ्यचर्या के क्रियान्वयन में शिक्षक की भूमिका
पाठ्यचर्या के क्रियान्वयन में शिक्षक की भूमिका

पाठ्यचर्या के क्रियान्वयन में शिक्षक की भूमिका (Teacher’s Role In Implementation of Curriculum)

पाठ्यक्रम विकास का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अभिकरण शिक्षक है। अतः पाठ्यक्रम नियोजन कार्य में इससे सम्बन्धित अन्य घटकों की भागीदारी एवं उनकी सीमाओं के बारे में विवाद हो सकता है किन्तु पाठ्यक्रम विकास के सभी चरणों एवं सभी स्तरों पर शिक्षक की भागीदारी असंदिग्ध एवं सर्वमान्य है शैक्षिक उद्देश्यों के निर्धारण, अन्तर्वस्तु के चयन एवं संगठन, शिक्षण विधियों एवं प्रविधियों के चयन, सहायक सामग्री के चयन, मूल्यांकन विधियों के निर्धारण आदि सभी सोपानों में शिक्षक की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है व्यक्तिगत रूप से छात्रों एवं उनकी समस्याओं को समझने, उन पर ध्यान देने तथा तदनुकूल निर्णय लेने का कार्य प्रभावी रूप से शिक्षक ही कर सकता है। अतः पाठ्यक्रम विकास में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भागीदारी शिक्षक की ही होनी चाहिए।

पाठ्यक्रम विकास में शिक्षकों की भूमिका के सम्बन्ध में जॉन डीवी का प्रयोगात्मक विद्यालय एक सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है। उन्होंने अपने विद्यालय में सब कुछ शिक्षकों पर ही छोड़ दिया था पाठ्यक्रम के सम्बन्ध में जॉन डीवी लिखते हैं कि “मेरे एवं मेरे सहकर्मियों के समक्ष नवयुवकों की शिक्षा के सम्बन्ध में कोई पूर्व निर्धारित सिद्धान्त नहीं थे। सभी निर्णय सामूहिक रूप से लिये जाते थे। विद्यालय मात्र कुछ विचारों (जिन्हें प्रश्न अथवा समस्याएँ कहना अधिक उपयुक्त होगा) को लेकर प्रारम्भ किया गया था। “

एडवर्ड ए. क्रंग (E. A. Krugg) शिक्षकों के सम्भागित्व को पाठ्यक्रम विकास प्रक्रिया का एक अनिवार्य अंग मानते हैं। इसीलिए वे कहते हैं कि पाठ्यक्रम आयोजन में शिक्षकों को भागीदार बनाना उन पर कोई अहसान करना नहीं है। क्रंग महोदय के अनुसार, “शिक्षकों के पास वह ज्ञान और अनुभव होता है जो पाठ्यक्रम विकास कार्य में अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होता है।” इसके साथ ही क्रग महोदय एक प्रकार की चेतावनी भी देते हैं कि “कक्षा शिक्षकों को मात्र सम्भागित्व प्रदान करना तब तक व्यर्थ रहेगा जब तक उनकी सहमति, उनकी अपनत्व की भावना, उनकी उद्यतता प्राप्त नहीं होती। यह कैसे प्राप्त हों? इस प्रश्न का सीधा और स्पष्ट उत्तर यह है कि शिक्षकों का विश्वास प्राप्त किया जाए। इस सम्बन्ध में विश्व शिक्षक संघ में एक विद्वान द्वारा व्यक्त किये गये विचार निश्चित रूप से उल्लेखनीय हैं- “शिक्षकों के सम्भागित्व में यह अर्थ निहित है कि जिन शिक्षकों से परामर्श किया जाता है। वे सक्रिय भूमिका निभा सकें, अन्य घटकों विशेषकर अधिकारी वर्ग द्वारा व्यक्त विचारों एवं प्रतिपादित सिद्धान्तों का विरोध कर सकें, अपनी सहमति एवं असहमति दोनों व्यक्त कर सकें, किसी योजना का विरोध अथवा अनुमोदन दोनों कर सकें।”

परन्तु वर्तमान स्थिति पर दृष्टिपात करने पर पता चलता है कि अनेक देशों में शिक्षकों को शैक्षिक कार्यों के नियोजन में पर्याप्त भागीदारी प्रदान नहीं की जा रही है। इस स्थिति पर टिप्पणी करते हुए विश्व शिक्षक संघ के पूर्व अध्यक्ष सर रोनाल्ड गोल्ड ने ठीक ही कहा था कि “हेमलेट नाटक डेनमार्क के राजकुमार के बिना ही खेला जा रहा है।”

शिक्षकों के सम्भागित की वर्तमान स्थिति (Present Situation of Teacher’s Participation in curriculum Development)

वर्तमान समय में पाठ्यक्रम विकास कार्य में शिक्षकों की समुचित भागीदारी के प्रयास विश्व के अधिकांश देशों में किये जा रहे हैं तथा इसके अच्छे परिणाम भी प्राप्त हो रहे हैं। किन्तु ब्रिटेन इस कार्य में सबसे आगे है। आज से लगभग तीन दशक पहले ही 1967 में तृतीय अन्तर्राष्ट्रीय पाठ्यक्रम आयोजन में ब्रिटिश प्रतिनिधि श्री जोशलीन ओवन ने इस बात पर विशेष बल देते हुए कहा था कि उनके देश में पाठ्यक्रम नियोजन कार्य में शिक्षकों को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। उन्हीं के शब्दों में, “विश्वविद्यालय, अनुसन्धानकर्ता सभी की अपनी भूमिका है किन्तु हमारी व्यवस्था में यदि किसी का वर्चस्व है तो सेवारत शिक्षक का है। स्कूल काउन्सिल कमेटियों में शिक्षकों का बहुमत है, वे ही कार्यक्रमों का चयन करते हैं, उनमें सुधार करते हैं, वे ही कार्यक्रमों एवं योजनाओं पर यथार्थवादी निर्णय देते हैं, वे ही योजना दलों का निर्माण करते हैं तथा उनका अनुमोदन करते हैं। काउन्सिल के बाहर वे ही इन पर प्रयोग करते हैं एवं इनका मूल्यांकन करते हैं। यह शिक्षक ही ज्ञात करते हैं कि विद्यालयों में क्या हो रहा है, उसमें से क्या अच्छा है, क्या कम अच्छा है तथा क्या मात्र दिखावटी है। उनके निष्कर्षों पर विशेषज्ञों की समिति कार्य करती है तथा परीक्षण के लिए सामग्री तैयार करती है जिसका शिक्षकों द्वारा विश्लेषण एवं मूल्यांकन किया जाता है तथा आवश्यक प्रश्न चिन्हों एवं सूझावों के साथ विशेषज्ञ समिति को लौटा दिया जाता है तब इसमें संशोधन किया जाता है तथा पुनः वही क्रम चलता है।

भारत में भी विगत दशकों में पाठ्यक्रम विकास कार्य में शिक्षकों की भागीदारी बढ़ी है। राष्ट्रीय स्तर एवं राज्य स्तर पर पाठ्यक्रम समितियों में अधिकांश कुशल एवं अनुभवी कार्यरत शिक्षकों को स्थान प्रदान किया गया है। स्कूल स्तर का पाठ्यक्रम राष्ट्रीय शिक्षा नीति के अन्तर्गत तैयार करने में शिक्षकों की पर्याप्त भागीदारी रही है किन्तु अभी भी अधिकांश शिक्षकों में इस कार्य के प्रति उदासीन भाव रहता है जिसे दूर करने के प्रयास किये जाने चाहिए।

पाठ्यचर्या के क्रियान्वयन में शिक्षक की भूमिका (Role of Teacher In Implementation of curriculum)

1. पाठ्यचर्या के सन्दर्भीकरण में (In Contextualizing the Curriculum)– एक प्रभावी शिक्षक पाठ्यचर्या का अन्धानुकरण नहीं करता है वह जानता है कि पाठ्यचर्या को किन सन्दर्भों में क्रियान्वित किये जाने की आवश्यकता है। शिक्षक किसी क्षेत्र विशेष राष्ट्र व विश्व की वर्तमान स्थिति का मूल्यांकन करता है और तदनुसार शिक्षार्थी की आवश्यकताओं व आकांक्षाओं के सापेक्ष पाठ्यक्रम को क्रियान्वित करता है। उदाहरणार्थ, विज्ञान पढ़ाते समय यदि शिक्षक यह देखता है कि बहुत से विद्यार्थी कक्षा में जंक फूड खाने के शौकीन हैं, तो शिक्षक जान-बूझकर जंक फूड के दुष्परिणामों पर चर्चा करता है, जब वह खाने की आदतों से सम्बन्धित पाठ को पढ़ाता है। इसी प्रकार राजनीति विज्ञान की कक्षा के दौरान शिक्षक को पाठ्यचर्या की विषय-वस्तु को वर्तमान सन्दर्भ में जोड़ देना चाहिए।

2. उचित संसाधनों का विकास व संरक्षण करना (Developing and Maintain- ing Appropriate Resources) – प्रभावी शिक्षण हेतु अधिगम संसाधनों के रूप में समर्थित सामग्री की आवश्यकता होती है। ये संसाधन छपी सामग्री के रूप में, दृश्य-श्रव्य सामग्री का स्व-अधिगम सामग्री के रूप में हो सकते हैं। शिक्षकों को ऐसे कम व्यय वाले उचित संसाधनों के निर्माण में कुशल होना चाहिए जो पढ़ाये जाने वाले पाठ्य विषयों से व अधिगमकर्ता के अनुकूल हों। इन संसाधनों का पर्याप्त संरक्षण भी आवश्यक है ताकि इन्हें फिर से प्रयोग में लाया जा सके। शिक्षकों को एक-दूसरे से कार्य के सम्बन्ध में जुड़ा होना चाहिए ताकि वे अपने विचार व समाधान साझा कर सकें। आजकल बहुत सी ऐसी वेबसाइट्स उपलब्ध हैं जहाँ शिक्षक अपनी पाठ योजनायें व अधिगम संसाधन संसाधन साझा कर सकते हैं। इसके लिए शिक्षकों को अपने ब्लॉग व वेबसाइट निर्माण में कुशल बनना होगा।

3. पाठ्यचर्या का हस्तान्तरण करना (Transacting the Curriculum) – पाठ्यचर्या के हस्तान्तरण हेतु महत्त्वपूर्ण सोपान हैं- पाठ्यचर्या का संयोजन, उचित अधिगम अनुभवों का निर्माण, मूल्यांकन व निदान हेतु उचित उपकरणों का निर्माण व निदानात्मक शिक्षण । प्रभावी शिक्षक इन सभी सोपानों का पूर्णत: पालन करते हैं और पाठ्यचर्या के उद्देश्यों को पाने हेतु पाठ्चर्या का हस्तान्तरण करते हैं।

4. अधिकारियों से जुड़ाव (Networking with the Authorities) – पाठ्चर्या के प्रभावी हस्तान्तरण हेतु शिक्षक को अधिकारियों से जुड़ाव रखना पड़ता है। एक शिक्षक ही “उन क्षेत्रों की ठीक से पहचान कर सकता है जहाँ पाठ्यचर्या में सुधार की जरूरत होती है। एक शिक्षक शिक्षा अधिकारियों को सुझाव प्रेषित कर सकता है, अधिकारियों से जुड़ाव द्वारा उस सामग्री की व्यवस्था करा सकता है जिससे पाठ्चर्या के हस्तान्तरण में मदद मिलेगी और शिक्षक अधिगम संसाधनों के विकास में भी मदद मिल सके।

5. क्रियात्मक अनुसन्धान में सहभागिता (Participating in Action Research)- एक शिक्षक की समय सारणी का अभिन्न अंग क्रियात्मक शोध होना चाहिए। इससे शिक्षक को नई तकनीकी, नई शिक्षण विधियों के प्रयोग में मदद मिलती है और वह इससे शिक्षण ‘अधिगम प्रक्रिया में प्रभाविता लाने हेतु ऐसे उपाय भी खोज सकता है जिससे शिक्षण प्रक्रिया सुरुचिपूर्ण बनी रहे इन क्रियात्मक शोधों के परिणामों को विस्तारित (Disseminate) किये जाने की भी आवश्यकता है ताकि शिक्षक एक-दूसरे के प्रयासों से कुछ सीख सके।

6. पाठ्यचर्या का मूल्यांकन (Evaluating the Curriculum)- एक अच्छा मूल्यांकन परीक्षा पद्धति सीखने की प्रक्रिया का अभिन्न अंग तभी बन सकती है जब शिक्षार्थी व शिक्षक दोनों ही विवेचनात्मक व आलोचनात्मक प्रतिपुष्टि प्राप्त करें। शिक्षा विशारद के रूप में शिक्षक के लिए यह आवश्यक है कि वह पढ़ाने से पहले ही न केवल आंकलन के तरीकों की तैयारी करे, बल्कि मूल्यांकन के मानकों और उसके लिए प्रयुक्त होने वाले उपकरणों की भी तैयारी करे विद्यार्थियों की उपलब्धि की गुणवत्ता की जाँच के अलावा एक शिक्षक को विभिन्न विषयों में उनकी उपलब्धि की जानकारी इकट्ठा कर उसका विश्लेषण कर उसकी व्याख्या भी करनी चाहिए, तभी वह विभिन्न क्षेत्रों में विद्यार्थियों के अधिगम की सीमा की एक समझ बना पायेंगे। आंकलन का प्रयोजन निश्चय ही सीखने-सिखाने की प्रक्रियाओं एवं सामग्री का सुधार करना है। अतः शिक्षक को मूल्यांकन व प्रतिपुष्टि को पुनः परिभाषित करने व उनके नये मानक ढूँढ़ने की आवश्यकता है।

7. पाठ्चर्या को पूरकता प्रदान करना (Supplementing the Curriculum)- प्रत्येक पाठ्यचर्या का निर्माण केन्द्र द्वारा प्रदत्त एक रूपरेखा के आधार पर किया जाता है। अतः पाठ्चर्या को स्थानीय आवश्यकताओं व आकांक्षाओं के सन्दर्भ में शिक्षक को पूरकता प्रदान किये जाने की आवश्यकता है अतः पूरक पाठ्यचर्या का नियोजन व क्रियान्वयन भी का ही है।

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