अधिगम परिस्थितियों में पाठ्यचर्या का परिचालन का वर्णन करें। (Discuss the Operationalizing Curriculum Intro Learning Situation)
किसी भी पाठ्यचर्या का महत्त्व उसके क्रियान्वयन में निहित होता है जिसके द्वारा ही निर्धारित लक्ष्यों व उद्देश्यों की प्राप्ति होती है। बिशप (1976) के अनुसार, “क्रियान्वयन हेतु पाठ्यचर्या की पुनर्रचना व प्रतिस्थापन की भी आवश्यकता होती है । इसके लिए व्यक्तिगत आदतों, व्यवहार के तरीकों, कार्यक्रम के महत्त्व, सीखने के स्थान, एवं वर्तमान पाठ्यचर्या के पुनर्गठन एवं समायोजन की आवश्यकता होती है।” समाजशास्त्रियों के अनुसार किसी भी क्रिया के क्रियान्वयन हेतु निम्न बातें आवश्यक हैं-
-स्वीकृति,
-अधिक समय तक कार्य करना,
-किसी विशिष्ट पद का एक विचार अथवा चलन,
-व्यक्तियों, समूहों अथवा अन्य अनुकूलित इकाईयों में सम्बन्धित सम्प्रेषण।
लेथवुड (1982) के अनुसार भी कार्यान्वयन एक प्रक्रिया है जिसमें वर्तमान पद्धति एवं नवाचारों अथवा परिवर्तन अभिकर्ताओं द्वारा सुझायी गयी पद्धति में अंतरों को कम किया जाता है कार्यान्वयन व्यवहारात्मक परिवर्तन को प्रभावित करने का प्रयास करता है तथा इसे कुछ सोपानों में संपादित किया जा सकता है।
आर्न्सिटन एवं हाकिन्स (1988) ने कार्यान्वयन को पाठ्यचर्या चक्र का एक अलग घटक माना है इसमें कई व्यक्तियों द्वारा सामूहिक रूप से क्रिया की जाती है । अत: इसे अन्तर्क्रियात्मक प्रक्रिया भी कहा जा सकता है क्योंकि इसमें पाठ्यचर्या निर्माता एवं उपयोगकर्ता के मध्य अन्तःक्रिया होती है। कार्यान्वयन द्वारा व्यक्तियों के ज्ञान, कार्य एवं अभिवृत्तियों में परिवर्तन का प्रयास किया जाता है।
व्यावहारिक परिस्थितियों में पाठ्यचर्या के लागू होने की सीमा का पता क्रियान्वयन की अवस्था में लगाया जाता है कि व्यावहारिक रूप से क्रियान्वयन के साथ क्या-क्या समस्याएँ आयेंगी, जैसे-
-समय, अंक व क्रिया की दृष्टि से जो सापेक्षित भार प्रदान किया गया है वह उपयुक्त है या नहीं।
-शिक्षक की शिक्षण दक्षता अर्थात् शिक्षक शिक्षण विधियों के अनुसार पाठ्चर्या को क्रियान्वित कर पा रहा है या नहीं।
-विषय-वस्तु को व्यवस्थित, अनुक्रमित व रुचिकर बनाना भी शिक्षक पर ही निर्भर है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि पाठ्यचर्या का क्रियान्वयन शिक्षण व्यवस्था का सबसे महत्त्वपूर्ण घटक है। इसके अन्तर्गत विषय-वस्तु का विश्लेषण, इकाई अभिकल्प व विषय-वस्तु के उपयुक्त प्रस्तुतीकरण माध्यम को शामिल किया जाता है, जिसका वितरण निम्नवत् है-
1. विषय-वस्तु विश्लेषण- विषय-वस्तु विश्लेषण में पाठ्यवस्तु का विश्लेषण करते समय एक निश्चित उद्देश्य को सामने रखा जाता है तथा विश्लेषण की प्रकृति भी प्रायः शैक्षिक तथा बौद्धिक प्रकृति की होती है। इसमें विश्लेषण का लक्ष्य पाठ्यवस्तु ही होता है।
आई. के. डेविस ने लिखा है- ” पाठ्यवस्तु विषय विश्लेषण के अन्तर्गत पाठ्य-वस्तु का उसके अवयवों तथा तत्त्वों में विश्लेषण तर्क पूर्ण विधि से किया जाता है, उसका तार्किक विधि से ही संश्लेषण भी किया जाता है।”
करलिंगर के अनुसार, “विषय-वस्तु विश्लेषण चरों (Variables) को मापने के लिए संचारों (Communication) का एक क्रमबद्ध, वस्तुनिष्ठ तथा परिणात्मक ढंग से विश्लेषण एवं अध्ययन करने की विधि है।”
हालस्टी (1969) के अनुसार, ” विषय-वस्तु विश्लेषण सूचनाओं के विशिष्ट गुणों को क्रमबद्ध एवं वस्तुनिष्ठ ढंग से पहचान करते हुए अनुमान लगाने की प्रविधि है।”
विषय-वस्तु विश्लेषण करते समय शिक्षण बिन्दुओं (Teaching points) का निर्धारण करना भी एक प्रमुख लक्ष्य होता है। पाठ्य-वस्तु में शिक्षक को जिन महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं या बातों पर बल देना चाहिए उन्हें बिन्दु कहा जाता है। इन शिक्षण बिन्दुओं का चयन करने में पाठ्य-वस्तु विश्लेषण की प्रक्रिया महत्त्वपूर्ण योगदान देती है। इन शिक्षण बिन्दुओं के माध्यम से शिक्षक सरलता से अपनी पाठ्य-वस्तु में निर्धारित उद्देश्यों को प्राप्त कर लेना है। पाठ्य-वस्तु विश्लेषण से कुल शिक्षण बिन्दुओं का चयन करके उनकी संख्या ज्ञात की जाती है और इन बिन्दुओं की संख्या, महत्त्व आदि के आधार पर पद का निश्चित समय किया जाता है किन शिक्षण बिन्दुओं को अधिक समय देना है, किन्हीं कम अथवा किस बिन्दु को पहले या विषय को पहले पढ़ना है इत्यादि। इस प्रकार विषय-वस्तु विश्लेषण के आधार पर शिक्षक अपने शिक्षण को अधिक प्रभावशाली बना सकता है।
विषय-वस्तु विश्लेषण की विधियाँ – पाठ्यवस्तु (विषय-वस्तु) विश्लेषण की अनेक विधियाँ प्रचलित हैं। इनमें सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विधियाँ डेवीज, होमे (1962), (1963) तथा मेकनर (1965) आदि की मानी गई हैं। इनमें डेवीज की विधि सर्वाधिक सरल, ग्लेमर स्पष्ट तथा उपयोगी सिद्ध हुई है। डेवीज ने अपनी विधि को मैट्रिक्स प्रविधि (Matrix Technique) कहा है।
सर्वप्रथम सम्पूर्ण विषय-वस्तु को उनके प्रकरण में बांटा जाता है, फिर प्रत्येक प्रकरण को उसके तत्वों में विभाजित किया जाता है और एक निश्चित क्रम में व्यवस्थित किया जाता है। इस प्रकार इस विधि में विश्लेषण एवं संश्लेषण दोनों ही प्रकार की प्रविधियाँ अपनाई जाती हैं।
विषय-वस्तु विश्लेषण के स्रोत (Sources of Content Analysis) – पाठ्य-वस्तु का विश्लेषण हेतु शिक्षक को विषय-विस्तु पर पूर्ण अधिकार होना चाहिए। साथ ही सम्बन्धित सभी स्रोतों को ध्यान में रखना चाहिए। छात्रों की योग्यता, रुचि तथा मानसिक विकास का ध्यान रखना आदि। परीक्षा प्रणाली तथा प्रश्न-पत्रों को भी देखना चाहिए। ये सभी आधार विषय-वस्तु विश्लेषण की क्रिया के लिए अति महत्त्वपूर्ण हैं।
2. इकाई अभिकल्पन – अध्ययन-अध्यापन की दृष्टि से सुविधा के मद्देनजर प्राचीन समय से ही महत्त्व पर विशेष बल दिया जाने लगा है।
इकाई अभिकल्पन किसी प्रकरण अथवा प्रकरणों से सम्बन्धित अन्तर्वस्तु एवं शिक्षण विधि के अधिगम-अनुभवों के रूप में छात्रों में अपेक्षित व्यवहार परिवर्तन लाने के उद्देश्य से शिक्षक द्वारा अग्रिम नियोजन के रूप में इस प्रकार इसके विभाजन एवं उसके संगठन के निम्न तीन आधार हैं-
1. अन्तर्वस्तु की समानता,
2. प्रक्रिया की समानता,
3. अधिगम अनुभव की समानता।
इकाई अभिकल्पन में उपयुक्त आधारों में से किसे प्रमुखता दी जाए, यह अपेक्षित उद्देश्यों एवं प्रस्तुत स्थितियों पर निर्भर करता है अर्थात् किसी इकाई की वास्तविक प्रकृति का ज्ञान कार्यात्मक स्तर पर ही हो सकता है। इकाई से सम्बन्धित अनेक नाम प्रचलित हैं। जैसे—इकाई, कार्य इकाई, विषय-वस्तु अनुभव इकाई, प्रक्रिया इकाई, बालकेन्द्रित इकाई, अध्ययन इकाई, सन्दर्भ इकाई आदि ये नाम पाठ्यक्रम संगठन के विभिन्न सम्प्रत्ययों एवं उपागमों पर आधारित हैं। उदाहरणार्थ विषय-वस्तु आधारित पाठ्यक्रम के अन्तर्गत विषय-वस्तु इकाई बनी तो अनुभव प्रक्रिया बाल मनोविज्ञान पर बल आने से क्रमश: अनुभव प्रक्रिया एवं बालकेन्द्रित इकाईयों का अभिकल्पन होने लगा। इसी प्रकार शिक्षण इकाई कक्षा में वास्तविकता शिक्षण कार्य में सहायता प्रदान करने हेतु निर्मित की जाती है, जबकि सन्दर्भ इकाई शिक्षण इकाई के अभिकल्पन की सहायता के लिए बनाई जाती है।
3. विषय-वस्तु के उपयुक्त प्रस्तुतीकरण माध्यम- अधिगम की परिस्थितियों का सृजन करने तथा विषय-वस्तु के उपयुक्त प्रस्तुतीकरण के लिए एवं विषय- -वस्तु को प्रभावशाली बनाने में दृश्य-श्रव्य सहायक सामग्री का प्रयोग किया जाता है दृश्य-श्रव्य सामग्री में विभिन्न प्रकार के शैक्षिक तकनीकी उपकरण आते हैं जो विषय-वस्तु के प्रस्तुतीकरण को सरल, रुचिकर तथा उत्कृष्ट बनाते हैं।
शैक्षिक तकनीकी में दृश्य-श्रव्य सहायक सामग्री के उपयोग को हार्डवेयर आयाम (Hardware Approach) माना जाता है। इनमें से कुछ निम्न हैं-
(1) प्रतिमान (Models)- प्रतिमान वास्तविक पदार्थ, अथवा मूल वस्तुओं के छोटे रूप होते हैं। इनका प्रयोग उस समय किया जाता है जब वास्तविक पदार्थ या तो उपलब्ध न हो अथवा इतने बड़े हों कि उन्हें कक्षा में दिखाना ही सम्भव न हो। उदाहरण- हाथी, घोड़े, रेल के इंजन । इस प्रकार के सम्प्रत्यों को स्पष्ट करने के लिए प्रतिमान एक उपयुक्त माध्यम है।
(2) चार्ट – चार्टों के प्रयोग से शिक्षक को शिक्षण का उद्देश्य प्राप्त करने में बड़ी सहायता मिलती है। ध्यान देने वाली बात है कि चार्टों का प्रयोग भूगोल, इतिहास, अर्थशास्त्र, ‘नागरिकशास्त्र तथा गणित एवं विज्ञान आदि विषयों में सफलतापूर्वक किया जा सकता है।
(3) मानचित्र (Maps)- मानचित्र का प्रयोग प्रमुख ऐतिहासिक घटनाओं तथा भौगोलिक तथ्यों अथवा स्थानों के अध्ययन करने के लिए परम आवश्यक है। वैसे मानचित्र बाजारों में मिलते हैं परन्तु यदि शिक्षक मानचित्रों को स्वयं ही बनाये और उसमें उन्हीं बातों को सुन्दर ढंग से अंकित करे तो वह कक्षा में सशक्त प्रस्तुतीकरण माध्यम बनेगा।
(4) सिरोत्तर प्रक्षेपक (Orverhead Projector (O.H.P.)- प्रस्तुतीकरण का एक नया उपकरण विकसित हुआ है जिसे सिरोत्तर प्रक्षेपक (Overhead Projector) कहते हैं। इसकी उपयोगिता के कारण यह अधिक प्रचलित हुआ है।
प्रक्षेपक के उपकरण में (7″ x 7″ या 1′ x 1′ ) का बड़ा एवचर होता है। यद्यपि यह अपारदर्शी प्रक्षेपक (Opeque Projector) के समान ही होता है, परन्तु इसमें प्रकरण में अनेक अनुदेशनात्मक सामग्री जैसे- चार्ट, चित्र, मानचित्र, आकृतियाँ तथा शिक्षण प्रपत्रों को पदों पर प्रक्षेपित किया जाता है।
इसी प्रकार बहुत सारे अन्य भी विषय-वस्तु के उपयुक्त प्रस्तुतीकरण माध्यम हैं, जैसे- रेडियो, टेलीकान्फ्रेंसलिंग, टेप रिकार्डर, अचल चित्र, फ्लेनेल बोर्ड, संग्रहालय, स्लाइडें, फिल्म पट्टियाँ प्रक्षेपण इत्यादि।
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